हमारे गौरवमय देश के इतिहास का जब हम ध्यान देकर अवलोकन करते हैं तो हमें चार प्रतिज्ञाएं ऐसी मिलती हैं, जो इतिहास की धरोहर बन गई हैं। चाहे वे की गई हों या करवाई गई हों, पर उनसे देश का बड़ा उत्थान व परिवर्तन हुआ है।
श्रीराम की प्रतिज्ञा - त्रेताकाल में रामायण में जब रानी कैकेयी ने महाराज दशरथ के युद्ध के समय दिये हुए दो वरदान मांगे थे, जिनमें एक था अपने बेटे भरत के लिए अयोध्या का राज्य और दूसरा था श्रीराम को चौदह वर्षों का वनवास। इन वरदानों के कारण महाराज दशरथ ने श्रीराम को रोते-रोते चौदह वर्षों के लिए वन में जाने की बात कही, तब श्रीराम अपने पिताजी की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार करके जंगल को जाने के लिए तैयार हो गये। तभी उनकी धर्मपत्नी सीता और छोटा भाई लक्ष्मण भी साथ जाने के लिए आग्रह करने लगे। पहले तो उनको साथ ले जाने के लिए इनकार कर दिया, पर उनका विशेष आग्रह नहीं टाल सके और उन दोनों को साथ लेकर वे जंगल में चले गये। वहाँ उन्होंने ऋषि-मुनियों के यज्ञों को विध्वंस करते हुए अनेकों राक्षसों को देखा और ऋषि-मुनियों ने भी अपने दुःख श्रीराम को सुनाये, तब श्रीराम ने अपने धनुष-बाण को एक भुजा से उठाते हुए यह प्रतिज्ञा की- निशिचरहीन करउँ महि, भुज उठाई पन कीन्ह। यानि मैं सौगन्ध खाता हूँ कि इस धरती से राक्षसों को समाप्त करके ही रहूंगा और वैसा ही किया। श्रीराम ने अपने बाहुबल से सब राक्षसों को तथा रावण को उसके परिवार सहित मारकर धरती राक्षसों से खाली कर दी और धरती पर शान्ति स्थापित करके साधु-सन्तों को बेरोक-टोक यज्ञ करने की स्थिति बना दी।
श्रीकृष्ण का दृढ़ निश्चय - महाभारत में हम देखते हैं कि जब कौरव-पाण्डवों के बीच शान्ति स्थापित करवाने के सभी प्रयास असफल हो गये, तब श्रीकृष्ण अन्तिम प्रयास करने के लिए दुर्योधन के राजदरबार में गये और उससे कहा कि ऐ दुर्योधन! युद्ध का परिणाम बहुत बुरा होता है। युद्ध में दोनों कुल तो नष्ट हो ही जायेंगे, उसके साथ-साथ पूरे विश्व के शूरवीर, योद्धा, विद्वान, आचार्य आदि भी समाप्त हो जायेंगे और विश्व में भ्रष्टाचार फैल जाएगा। इसलिए तू अपनी जिद्द को छोड़ और कम से कम पाँच पाण्डवों को केवल पाँच गाँव दे दो, ताकि वे अपना जीवन चला सकें। इस पर भी दुर्योधन नहीं माना और श्रीकृष्ण से बोला कि- सूच्यग्रं नैव दास्यामि, बिना युद्धेन केशव। हे कृष्ण! बिना युद्ध किये मैं पाण्डवों को सूई के नोंक के बराबर भी भूमि देने वाला नहीं। तब श्रीकृष्ण ने निश्चय कर लिया- “यह लातों का भूत, बातों से मानने वाला नहींहै।’’ उसी समय ठान ली कि इसका नाश करवाकर पाण्डवों को राज्य दिलवाना ही है और अपनी कुशलबुद्धि, चतुराई, साहस, वीरता, पराक्रम और चारों नीतियाँ साम, दाम, दण्ड, भेद को अपनाकर दुर्योधन की ग्यारह अक्षौहिणी सेना, भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य जैसे महारथी तथा दुर्योधन के सौ भाइयों को समाप्त करवाकर पाण्डवों को राज्य दिलवाया और युधिष्ठिर को चक्रवर्ती राजा बनाकर धरती से दुष्ट, पापी, अन्यायी, व्यभिचारी लोगों का अन्त करवाया। इससे भारत को नुकसान तो बहुत हुआ, परन्तु ऐसा करना भी बहुत जरूरी हो गया था।
चाणक्य की प्रतिज्ञा - जब मगध के नरेश नन्द ने चाणक्य का भरी सभा में अपमान कर दिया, तब चाणक्य ने अपनी चोटी खोलकर यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं नन्दवंश का विनाश करने के बाद ही अपनी चोटी को गांठ लगाऊंगा और उसने वैसा ही कर दिखाया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को बच्चों के साथ खेलता देखकर यह जान लिया कि यह बच्चा बड़ा होनहार है और इसमें अच्छे राजा के सभी गुण हैं। तब उसको सब विद्याएं सिखाकर वीर, प्रतापी व योग्य बनाया और उसके द्वारा राजा नन्द को पराजित करवाकर उसके वंश को ही समाप्त करवाया। उसने इतना ही नहीं किया, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस को परास्त करवाकर देश को पराधीन होने से बचाया और स्वयं महामन्त्री बनकर देश की बागडोर संभाली और गुप्त वंश की स्थापना की। इनके सुशासन से भारत ‘विश्वगुरु’ कहलाया। चाणक्य जैसा देशभक्त मन्त्री आज तक भारत में कोई नहीं बना है, जो सब सुखों और ऐश्वर्यों को छोड़कर जंगल में एक कुटिया बनाकर रहता था और वहीं से पूरे शासन का कार्य पूर्ण कुशलता के साथ देखता था।
महर्षि दयानन्द की प्रतिज्ञा - महर्षि दयानन्द ने गुरु के आदेश का पालन एक दढ़ प्रतिज्ञा के रूप में पूरे जीवन की आहुति देकर किया और अज्ञान, अन्धविश्वास व पाखण्ड के अन्धकार में डूबे भारत को पुनः वेदज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित किया, यह सबको विदित है। जब महर्षि दयानन्द ने गुरुवर विरजानन्द के पास तीन वर्ष रहकर वेदों का तथा अन्य आर्षग्रन्थों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया और विदाई के रूप में कुछ लौंग लेकर गुरु के चरणों में पहुंचे तथा गुरुदक्षिणा के रूप में लौंग देना चाहा, तब उस सच्चे गुरु ने दयानन्द को अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा- दयानन्द! मैंने तुझे दक्षिणा में लौंग लेने के लिए नहीं पढ़ाया, मैं तो तुमसे कुछ और ही लेना चाहता हूँ। तब दयानन्द ने कहा गुरुदेव! आप जो आदेश देंगे, दयानन्द उसी के लिए तैयार है। मुझे तो आपके आदेश की प्रतीक्षा है, देने में कोई देर नहीं लगेगी। तब गुरु ने रुन्धे हुए कण्ठ से कहा, दयानन्द! आज मेरे देश की हालत बड़ी खराब है। लोग वेदों के सच्चे ज्ञान को भूल बैठे हैं और अज्ञान, अन्धविश्वास व पाखण्ड के अन्धकार से पूरा विश्व आच्छादित है। तुम्हें अपना सारा जीवन देकर इस अन्धकार को मिटाना है और विश्व में वेदों के ज्ञान का प्रकाश फैलाना है। इस कठिन व दुष्कर कार्य के लिए तेरा जीवन दक्षिणा के रूप में चाहता हूँ। मैंने तुझे सुयोग्य पात्र समझकर तीन साल में मेरा पूरा ज्ञान तुम में ही उडेला है, तू मेरे दिल में संजोए हुए अरमानों को साकार रूप दे! वत्स, यही मेरी दक्षिणा है। दयानन्द ने कहा, गुरुदेव! मैं आज आपके सामने व्रत लेता हूँ कि आपने जो कहा है, उसी को पूरा करने के लिए मैं अपना पूरा जीवन लगा दूंगा और गुरु के चरणों में शीश नवाकर वहाँ से विदाई ली।
उस महान् गुरु के महान् शिष्य ने किस प्रकार अपने जीवन की आहुति देकर विश्व में फैले अज्ञान, अन्धविश्वास व पाखण्ड को हटाकर वेदज्ञान के प्रकाश से केवल शहरों, गांवों को ही नहीं, बल्कि घर-घर को आलोकित किया। इस काम को प्रधान मानकर साथ ही देश में जो कुप्रथाएं, कुरीतियाँ व बुराइयाँ थीं उनको भी मिटाते हुए असहायों, दुखियों और विधवाओं के आंसू पोंछते हुए, गोमाता की चीत्कार पर ध्यान दिलाते हुए, स्त्रियों व शूद्रों को पूरा सम्मान दिलाते हुए तथा सर्वप्रथम आजादी की भूख जगाकर देश में आजादी लेने की लहर पैदा की। इसी प्रकार के अनेक कार्यों को करके स्वयं केवल उनसठ वर्षों की आयु में ही अनेकों दुःखों, कष्टों व संकटों को झेलते हुए वह महान् परोपकारी, वेदों का प्रकाण्ड विद्वान् देव दयानन्द मोक्षमार्ग का राही बना। - खुशहालचन्द्र आर्य
Four Pledges for the Upliftment of the Country | Ramayan | Lord Ram | Dashrath | Hindu | Chanakya | Divyayug |