विशेष :

मन और विचारों में समन्वय

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ओ3म् सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥ ऋग्वेद 10-191-2;अथर्ववेद 6-64-1॥

अन्वय- हे मनुष्या:! संगच्छध्वम्। संवदध्वम्। व: (युष्माकं) मनांसि संजानताम् ! यथापूर्वे संजानाना: देवा: भागं उपासते।

अर्थ- हे मनुष्यो ! तुम लोग (संगच्छध्वम्) मिलकर चलो। (संवदध्वम्) संवाद अर्थात् प्रेमपूर्वक आपस में बातें करो। (व: मनांसि) तुम्हारे मन मिलकर सत्यासत्य-निर्णय के लिए (संजानताम्) सदा विचार करें। जैसे (पूर्वे देवा:) प्राचीनकाल के विद्वान् लोग (संजानाना:) परस्पर विचार करके, सत्यासत्य का निर्णय करके (भागम्) अपने-अपने उपभोग के भाग को (उपासते) प्राप्त करते आये हैं अर्थात् प्राचीन काल से विद्वानों की यह प्रथा चली आती है कि मन, वचन और कर्म से मिलकर रहें और प्रेम से निर्णय करके अपने-अपने हिस्से की चीजों का उपभोग करें।

व्याख्या- इस वेदमन्त्र में यह उपदेश दिया गया है कि मानव-समाज के निर्माण का मूलाधार क्या हो और निर्मित समाज की रक्षा कैसे हो तथा उससे किस प्रकार अधिक-से-अधिक लाभ उठाया जा सके।

‘संगच्छध्वं‘, ‘संवदध्वं‘, ‘व: मनांसि‘ ये सब मध्यम पुरुष बहुवचन हैं। ‘‘आप लोग या आपके मन।‘‘ इससे स्पष्ट है कि यह ईश्‍वर की ओर से सब मनुष्यों के प्रति उपदेश है। ऋषि, उपदेशक, आचार्य इस ईश्‍वर-उपदेश को जनसाधारण के लिए व्यक्त करते रहते हैं। यह मन्त्र ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त में आया है। इसलिए भी प्रतीत होता है कि समस्त वेद में जो कुछ अब तक उपदेश दिया गया उसका निचोड़ यह है कि मनुष्य-समाज सर्वोत्कृष्ट हो। सम्बोधन मनुष्यों के प्रति है, क्योंकि मनुष्य ही उपदेश को समझ सकते हैं और मनुष्यों के सामाजिक अनुशासन के द्वारा ही अन्य पशु-पक्षी लाभान्वित हो सकते हैं।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी (Gregarious animal) है अर्थात् यह समूह में रहना पसन्द करता है। यों तो मनुष्य के अतिरिक्त हिरन, सुअर, बैल, गाय आदि भी झुण्ड बनाकर रहते हैं। कौवे, कबूतर, चींटियाँ, मधुमक्खियाँ झुण्डों में ही काम करती हैं। परन्तु मनुष्य समाज को बनाना और बनाकर उसे सुरक्षित रखना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बुद्धिपूर्वक योजनाओं की आवश्यकता पड़ती है। मधुमक्खियों का एक-जैसा संगठन अनादि काल से चला आता है। उसके लिए किसी विशेष समाज-शास्त्र के निर्माण की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु मनुष्य-समाज को ठीक रखने के लिए नित्यप्रति हर देश और हर भाषा में नवीन शास्त्र रचे जाते हैं । फिर भी यह निर्णय नहीं हो पाता कि समाज के निर्माण का श्रेष्ठतम साधन क्या हो? मनुष्य के परस्पर मिलने के तीन रूप हैं- साथ चलना, मिलकर वार्तालाप करना और मिलकर सोचना। इनमें पहला स्थूलतम है और पिछला सूक्ष्मतम। ‘गम्‘ धातु से चलने के अर्थ में ‘गच्छत‘ होना चाहिए था। परन्तु वेद ने ‘गच्छत‘ (परस्मैपद) न कहकर आत्मनेपद ‘गच्छध्वम्‘ कहा और ‘सम्‘ उपसर्ग लगाकर अर्थों में विशेषता उत्पन्न कर दी। केवल इकट्ठे होने का नाम समाज नहीं है। लाखों मनुष्यों की भीड़ ‘समाज‘ नहीं है। दस आदमियों के सम्मिलन को भी समाज कह सकते हैं, यदि उसमें समाज के गुण हों। संस्कृत भाषा-विज्ञों ने ‘समज‘ और ‘समाज‘ शब्दों के अर्थों में भेद किया है। यदि बहुत से पशु कहीं एक स्थान पर इकट्ठे हो जाते हैं, तो उसको ‘समाज‘ न कहकर ‘समज‘ कहते हैं। ‘समज‘ और ‘समाज‘ के धातु तो एक ही हैं, परन्तु ये एक ही भाव के द्योतक नहीं। समाज के लिए योजना चाहिए।

संगच्छध्वम् । हे लोगो, साथ चलो! साथ कैसे चलें? सबकी चाल बराबर नहीं। कोई तेज चलता है, किसी की गति मन्द होती है। मन्द गतिवाला तेज कैसे चलेगा? उसमें सामर्थ्य नहीं। वेगवाला अपने वेग को क्यों कम कर दे? इससे क्या लाभ? परन्तु यदि सब ऐसा ही सोचें तो कोई समाज बन ही न सकेगा और समाज के न बनने से व्यक्ति भी समुन्नत होने में अशक्त होंगे। क्या कोई बीच का मार्ग है? अवश्य है! किसी फौज को मार्च करते हुए देखिए ! हजारों सैनिक हैं, उन सबकी शक्तियाँ समान नहीं। उनका वेग समान नहीं। परन्तु उनका नियन्त्रण इस प्रकार का है कि जब एक का बायाँ पैर उठता है तभी सबका बायाँ पैर उठ जाता है। तेज चलनेवाला सैनिक अपनी तेजी को रोकता है। सुस्त सैनिक कुछ विशेष यत्न करके तेज सैनिक का साथ देता है। तेज मनुष्य का आत्मनियन्त्रण सुस्त मनुष्य को प्रेरित करता है और उसके वेग में वृद्धि हो जाती है। यत्न और नियन्त्रण दो साधन हैं संगमन या साथ चलने के। इनसे तेज और सुस्त दोनों को लाभ पहुँचता है। जो सेना इस शुभ गुण से सम्पन्न नहीं होती वह सेना नहीं कहलाती और न वह शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकती है। आपने बड़े-बड़े मेलों में देखा होगा कि पुलिस के नियन्त्रित बीस आदमी लाखों की भीड़ को भगा देते हैं। अत: वेदमन्त्र इस बात पर बल देता है कि किसी जाति या समाज की उन्नति का स्तर मनुष्यों की गणना या संख्या पर निर्भर नहीं है। उनमें ऐसा नियन्त्रण भी होना चाहिए कि वे परस्पर मिलकर अपनी गतियों को समन्वित कर सकें।

गतियों को समन्वित करने का साधन है संवाद या मिलकर स्नेहयुक्त बात करना। तेल या घी को संस्कृत में स्नेह कहते हैं और स्नेह नाम प्रेम का भी है। स्नेह-युक्त वाणी चलने में समन्वय उत्पन्न कर देती है। सेनापति की बाएँ-दाएँ (Left-Right) की आवाज सुनकर ही सैनिकों के पैर साथ-साथ पड़ने लगते हैं। ड्रिल के आदेश मानो संवाद ही हैं। बाप अपने छोटे से बच्चे को साथ लगाना चाहता है। बच्चा कहता है मैं तेज नहीं चल सकता, मुझमें सामर्थ्य नहीं। बाप उत्तर देता है- ‘‘बेटे, कुछ बात नहीं। मैं मन्द गति से चलूँगा, तू मेरी अँगुली पकड़ ले।‘‘ बच्चा अपनी गति कुछ तेज करता है। संवाद से प्रेरणा मिलती है। जो तुम्हारा परम शत्रु है उसके साथ भी संवाद करने से शत्रुता कम हो जाती है। वाणी पैरों की प्रेरिका है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो वाणी का ठीक-ठीक प्रयोग कर सकता है। पैर स्थूल हैं, वाणी सूक्ष्म है। परन्तु वाणी से भी सूक्ष्मतम है मन। इसलिए वेदमन्त्र कहता है कि व: मनांसि संजानताम्। तुम्हारे मन साथ मिलकर विचार करें। विचार सबसे प्रबल वस्तु है । अत: समाज-निर्माण का सबसे उत्कृष्ट साधन परस्पर विचार करना है। झगड़ा विचारों के भेद से आरम्भ होता है। मैं कुछ सोचता हूँ, आप कुछ सोचते हैं तो बात-बात में झगड़ा हो जाता है। मतभेद गाली-गलौज की जड़ है और जब वाग्युद्ध आरम्भ हो गया तो स्थूल युद्ध के होने में कोई देर नहीं लगती। कौरव-पाण्डवों के विचार भिन्न-भिन्न थे । अत: जब द्रौपदी ने ताना मारा कि अन्धों के अन्धे ही पैदा हुए तो कौरवों के हृदय में तीर-सा लगा और उन्होंने ठान ली कि चाहे जो कुछ हो पाण्डवों का नाश करना चाहिए। मतभेद के कारण एक घर के लोग लड़ पड़ते हैं और घर नष्ट हो जाता है। छोटे-छोटे मतभेद बड़े मतभेदों को उत्पन्न कर देते हैं और थोड़ी-सी बात पर बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ हो जाती हैं। अत: मनुष्य-समाज के निर्माण का सबसे बड़ा साधन है बैठकर विचार-विनिमय करना। सभाएँ इसीलिए बनाई जाती हैं कि भिन्न-भिन्न विचारों के लोग अपना-अपना दृष्टिकोण प्रकट करें। ऐसा करने से सन्धि का कोई-न-कोई उपाय निकल आता है। पहले से लड़ाई ठानने की इच्छा करनेवाले लोग भी परस्पर विचार करने लगते हैं तो बहुधा अपनी जिद को छोड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं। राजनीति के क्षेत्र में परस्पर विचार-विनिमय (Negotiations) को बहुत बड़ा महत्त्व दिया गया है और संसार का इतिहास बताता है कि प्राय: जनसंहार को रोकने और मानव-समाज को सुरक्षित रखने में ‘संवदध्वम्‘ का उपदेश बड़े काम की चीज है।

जब मनुष्य परस्पर विचार करने लगता है तो उसको स्वहित और परहित के समन्वय का ज्ञान हो जाता है। प्रत्येक स्वार्थ में स्वलाभ के स्थान में स्वहानि छिपी रहती है। यदि विचार-विनिमय का अवसर मिले तो यह छिपी हुई हानि प्रकट हो जाती है और मनुष्य परहित के गौरव को भी अपने विचारों में स्थान देता है।

मन्त्र के अन्तिम चरण में उदाहरण देकर देव और साधारण मनुष्यों के कामों की शैली में भेद बताकर यह सिद्ध किया है कि एक मार्ग मूर्खों का है और दूसरा विद्वानों का। इस सृष्टि में हिस्सा तो सभी का है, मूर्खों का भी और विद्वानों का भी। दोनों प्रकार के लोगों को जीवन-यात्रा करनी है, दोनों को साधनों की आवश्यकता है, दोनों को भाग चाहिए। परन्तु विद्वानों और अविद्वानों में अपने-अपने भाग को प्राप्त करने के अपने-अपने ढंग हैं। देवा: भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते अर्थात् प्राचीन देवगण एक-दूसरे की भावनाओें को समझकर उनका आदर करते हुए अपने भागों को प्राप्त करते चले आये हैं। यहाँ ‘पूर्वे‘ (सर्वनाम) ‘देवा:‘ का विशेषण है। परन्तु यह समस्त व्यापार की विशेषता प्रकट करता है। इसका अर्थ है ‘यथापूर्वम्‘ अर्थात् आदिकाल से देवों का यह स्वभाव रहा है कि साथ चलें, साथ संवाद करें और साथ मिलकर विचार करें। मूर्ख केवल अपना हित देखता है, विद्वान् पराये हित में अपना हित समझता है। अत: जब वह दूसरों का हित करने लगता है तो दूसरे उसी का अनुकरण करके उसका हित करते हैं । अत: सर्वत्र, सर्वथा और सर्वदा सबका हित होता है और समाज समुन्नत होता है। मूर्ख अपना हित चाहता है, औरों के साथ स्पर्धा, खींचातानी और संघर्ष चलता है, सब एक-दूसरे को हानि पहुँचाने का यत्न करते हैं। हर तरफ से हानि पहुँचाने की प्रबल इच्छा और प्रयत्न हो तो समाज हानियों का मन्दिर बन जाता है। ऐसा समाज कैसे स्थापित और सुरक्षित रक्खा जा सकता है! शतपथ ब्राह्मण में इसी तथ्य का बड़ी उत्तमता से वर्णन किया गया है-
देवाश्‍च वा असुराश्‍च। उभये प्राजापत्या: पस्पृधिरे। ततोऽसुरा अतिमानेनैव कस्मिन्नु वयं जुहुयामेति स्वेष्वेवास्येषु जुह्वतश्‍चेरुस्ते अतिमानेनैव पराबभूवु: तस्मान्नातिमन्येत पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमान:। अथ देवा:। अन्योऽन्यस्मिन्नेव जुह्वतश्‍चेरुस्तेभ्य: प्रजापतिरात्मानं प्रददौ। यज्ञो हैषामास। यज्ञो हि देवानामन्नम्॥ (शतपथ ब्राह्मण 5/1/1/1-2)

प्रजापति के दो सन्तान हैं अर्थात् देव और आसुर। मनुष्यों की दो कोटियाँ सदा से प्रसिद्ध हैं। अच्छे या देव और बुरे या असुर। देवों और असुरों में कभी बनती नहीं। वे झगड़ने लगे। असुरों ने चाहा कि आहुतियाँ अपने-अपने मुँह में ही डालें, अत: वे नष्ट हो गये। क्योंकि ‘अतिमान‘ अर्थात् स्वार्थ पराभव का मुख या हेतु है। देवों ने एक-दूसरे के मुख में आहुतियाँ दीं। वे जीत गये, क्योंकि एक-दूसरे की भलाई में तत्पर रहने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ उसी का है जो परहित की भावना रखता है। जो स्वार्थी है वह यज्ञ कर ही नहीं सकता। समाज का निर्माण यज्ञ से होता है। यज्ञ का अर्थ है परोपकार । इससे सबको अपना-अपना भाग मिल जाता है। यह देवों की प्रथा है, यही देव-मार्ग हैं।

इतिहास इसी तथ्य का साक्षी है। वर्तमान भारतवर्ष के समक्ष दो इतिहास उपस्थित हैं- एक देवों का, दूसरा असुरों का। रामायण पर दृष्टि डालिए। राजा दशरथ के चार पुत्र हैं। राज्यरूपी आहुति किसके मुख में डाली जाए? राम कहते हैं भरत के मुख में। भरत कहते हैं राम के मुख में। परिणाम यह होता है कि राज्य सभी का हो जाता है और अनन्त काल तक समाज के लिए एक आदर्श बन जाता है। ‘रामराज्य‘ के लिए आज भी लोग तड़पते हैं, परन्तु हर एक राज्य को अपने ही मुख में डालना चाहता है। शतपथ की गाथा कहती है पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमान:। अतिमान: का अर्थ है अत्याचार। अत्याचार का अर्थ है स्वार्थ। ‘जो भोजन पा जाओ उसका अपने मुख में ही डाल लो‘ यह तो रामराज्य नहीं होता। इसके विपरीत दूसरा उदाहरण है भारत के मुगल सम्राट शाहजहाँ का। उसके भी चार लड़के थे और भारतवर्ष का बड़ा साम्राज्य था। चारों ने उसको हड़पने का यत्न किया। चारों ने अपने-अपने मुँह में आहुतियाँ डालीं। यह तो देवों की प्रथा नहीं थी, असुरों की प्रथा थी। शास्त्र की बात ठीक सिद्ध हुई कि अतिमान पराभव का मुख है। न केवल चारों पुत्र ही प्रनष्ट हुए, मुगल राज्य की श्री सदा के लिए लोप हो गई और मानवजाति के इतिहास में एक बडी दूषित मिसाल छोड़ गई।

हर घराने, हर सम्प्रदाय, हर जाति और हर देश में ऐसे उदाहरण मिलेंगे। तुलसीदास ठीक कहते हैं-
जहाँ सुमति तँह सम्पत् नाना ।
जहाँ कुमति तँह विपद् निधाना॥
सुमति का अर्थ ही है- सं वो मनांसि जानताम्। परस्पर मिलकर विचार करो। विचारों से वाणी शुद्ध बनेगी और वाणी से कार्यों में एकता आएगी। ऋग्वेद के इसी अन्तिम सूक्त के अगले मन्त्रों में इसी मूलमन्त्र की व्याख्या रूप उपांगों का वर्णन है । जैसे-समानो मन्त्र: हमारे निर्णय समान हों। समिति: समानी, सभा संयुक्त हो। समानं मन:, मन एक हो। सह चित्तमेषाम्, चिन्तन में समन्वय हो। समानी व: आकूति:, हमारी विचारधारा एक-साथ चलनेवाली हो इत्यादि-इत्यादि।• - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग - अप्रैल 2014)