र्व्यवहार की शुद्धता एवं पवित्रता के बिना जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करना सम्भव नहीं हो पाता है। अन्तकरणों की व्यावहारिक प्रवृत्ति में शुद्ध और पवित्र भावों की अभिव्यक्ति से ही सामूहिक जीवन निर्बाध एवं समुन्नत होता है। वैयक्तिक आचरण की बाह्यन्त: प्रवृत्तियों में शुद्धता एवं पवित्रता का सन्निवेश ही व्यक्ति का निर्माण करता है। यही व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र की इकाई होता है। इसी के सुधार पर समाज एवं राष्ट्र का सुधार, निर्माण एवं उत्थान सम्भव होता है।
वैदिक वाङ्मय में व्यक्ति निर्माण के साथ ही सहभाव की भावना को सतत जागृत किया गया है और इसी भावना के साथ समाज का शुद्ध गठन एवं उन्नयन करने का निर्देश दिया गया है। सारे वैदिक वाङ्मय में समष्टि भावना से व्यवहार करने हेतु प्रभूत निर्देश दिए गये हैं। सर्वप्रथम व्यक्ति परिवार में रहता है। उसे राष्ट्रीय पर्यावरण को सुरक्षित रखने हेतु वैदिक निर्देश प्राप्त होते हैं, तदनन्दर उसे समाज एवं राष्ट्र के लिए सार्वत्रिक अभ्युदय की भावना से व्यवहार करते हुए समग्र उदय के अनेकश: निर्देश दिए गए हैं। परस्पर सुख-सुविधा में विद्वेष-कलह-ईर्ष्या आदि न पैदा हो, सब अपने-अपने भाग का सुख-दु:ख स्वीकारें तभी स्वस्थ एवं सुखी जीवन का निर्माण हो सकेगा।
पारिवारिक पर्यावरण- मानव जीवन का लक्ष्य सुख एवं आनन्द की प्राप्ति है। इसी लक्ष्य को आधार मानकर प्राचीन ऋषियों ने मानव जीवन को सौ वर्ष की आयु के अनुसार ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास इन चार भागों में बांटकर इसे लक्ष्य की ओर अग्रसर किया। इसमें 25 वर्ष तक का समय व्यक्ति के निर्माण एवं विद्यार्जन का समय था। 25 वर्ष से 50 वर्ष तक का समय ‘गृहस्थाश्रम‘ का था, जिसका लक्ष्य धनोपार्जन, कुटुम्बपालन तथा सन्तान पैदा करके परिवार की वृद्धि करना था। इसके पश्चात् ‘वानप्रस्थाश्रम‘ की अवस्था में साधना, तपस्या, चिन्तन, स्वाध्याय, प्रभुभक्ति आदि द्वारा गृहस्थाश्रम में क्षीण हुई शक्तियों को पुन: प्राप्त करके अन्तिम अवस्था ‘संन्यास आश्रम‘ में पूरा समय लोकोपकार में लगाना होता था।
चारों आश्रमों में सामाजिक दृष्टि से ‘गृहस्थाश्रम‘ को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। शेष तीनों आश्रमों का आधार गृहस्थ-परिवार ही थे। इसी कारण महर्षि मनु का कथन है कि जिस प्रकार सभी जीव वायु के सहारे जीवित रहते हैं, उसी प्रकार शेष तीन आश्रम ‘गृहस्थाश्रम‘ पर ही निर्भर रहते हैं। वही ज्ञान एवं अन्नादि के द्वारा इन तीनों आश्रमों की रक्षा करता है-
यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तव:।
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा:॥
यस्मात् त्रयोऽप्याश्रिमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही॥1
इस प्रकार ‘गृहस्थाश्रम‘ ही मानव-समाज की ज्येष्ठ, श्रेष्ठ एवं महत्वपूर्ण संस्था है। ‘गृहस्थाश्रम‘ में पारिवारिक जीवन व्यतीत करना होता है। परिवार के बिना ‘गृहस्थाश्रम‘ का कोई अस्तित्व नहीं होता।
विवाह संस्कार के साथ ‘गृहस्थाश्रम‘ अर्थात् पारिवारिक जीवन का आरम्भ होता है। पारिवारिक जीवन के निर्माण के लिए स्त्री एवं पुरुष को एक इकाई में बन्धना पड़ता है। एक व्यक्ति या एक ही लिङ्ग के व्यक्ति परिवार का निर्माण नहीं कर सकते। वास्तव में परिवार के निर्माण का आधार स्त्री और पुरुष का युग्म (जोड़ा) ही है। इन्हीं से परिवार का स्वरूप निर्माण होता है जो स्वस्थ समाज के निर्धारण में सहयोगी होता है।
मनुष्य एकाकी रह भी नहीं सकता। बृहदारण्यकोपनिषद् में एक आख्यान में वर्णित है कि जीवात्मा को अकेले में आनन्द न आने से दूसरे की इच्छा की- स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्।2
निश्चय ही वह इतना था, जितने स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर होते हैं। उसने अपने इसी शरीर के दो भाग कर दिए, तब पति और पत्नी हो गए-
स हैतावानास यथा स्त्रीपुमांसौ संपरिष्वक्तौ।
स इममेवाऽऽत्मानं द्वेधाऽपातयत् तत: पतिश्चपत्नीचाभवताम्॥3
इसी कारण (विवाह से पहले) मनुष्य आधा दाल अथवा आधी सीप के समान है। अत: पुरुष के शरीर का रिक्त स्थान स्त्री से ही पूर्ण किया जाता है-
तस्मादिदमर्धवृगलमिव स्व इति ह स्माऽऽह याज्ञवल्क्य:।
तस्मादयमाकाश: स्त्रिया पूर्यत॥4
हमारी सामाजिक व्यवस्था में विवाह के तीन उद्देश्य माने गए हैं- धर्म, प्रजा तथा रति। वैदिक व्यवस्था के अनुसार विवाह का सबसे प्रथम उद्देश्य धर्म का पालन है, दूसरा उद्देश्य प्रजा अर्थात् सन्तान की प्राप्ति है तथा तीसरा उद्देश्य विषय-भोग है।5
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि मनुष्य पर देवों, ऋषियों तथा पितरों का ऋण होता है। उनमें ब्रह्मचर्य (वेदपठन) द्वारा वह ऋषियों का, यज्ञ द्वारा देवताओं का तथा सन्तान द्वारा पितरों का ऋण चुकाता है।6
तैत्तिरीय संहिता में भी उल्लेख है कि व्यक्ति को तीन ऋणों से मुक्त होना चाहिए, जिनमें पितृऋण से मुक्त होने के लिए विधिवत् विवाह एवं सन्तानोत्पत्ति आवश्यक मानी गई है-
त्रिभिर्ऋणै:ऋणवान् जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्य: प्रजया पितृभ्य:।7
इस दृष्टि से (पितृऋण से उऋण होने के लिए) सन्तान प्रवाह को जारी रखना धर्म है।8 शतपथ ब्राह्मण में विवाह का एक उद्देश्य सन्तोनोत्पत्ति करना बताया गया है-
एकाकी कामयते जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथा वित्तं मे स्यादथ कर्म कुर्वीयेति स यावदप्येतेषामेकैकं न प्राप्नोत्यकृत्स्न एव तावन्मन्यते।9
अर्थात् एकाकी पुरुष यह कामना करता है कि मेरी स्त्री हो, फिर मैं सन्तान उत्पन्न करूं तथा मेरे धन हो ताकि मैं कर्म कर सकूं। जब तक इनमें से एक-एक को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक अपने को अपूर्ण ही मानता है।
मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताओं में रति-सुख (वासनापूर्ति) भी एक है, जिसके लिए विवाह आवश्यक है। बृहदारण्यकोपनिषद् में एक स्थान पर आता है कि रति-सुख में व्यक्ति कुछ समय तक स्वयं को भुला देता है-
प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो न बाह्यं किञ्चन वेद नाऽऽन्तरम्।10
पारस्कर गृह्यसूत्र से भी विदित होता है कि सन्तान तथा रति-सुख के लिए विवाह किया जाता है। विवाह के समय वधु से वर कहता है-
सा न: पूषा शिवतमामैरय सा न ऊरू उशती विहर।
यस्यामुशन्त: प्रहराम शेपं यस्यामुकामा बहवो निविष्ट्यै॥11
अर्थात् हे वधू ! वह प्रसिद्ध जगत् का पोषक परमात्मा हमारे प्रति अत्यन्त कल्याणकारिणी तुम्हें प्रवृत्त करे अर्थात् हम में प्रीतियुक्त बनाए। वह तू रति-सुख तथा सन्तान की कामना करती हुई स्वयं आनन्द को प्राप्त हो। और जिस तुझमें रति तथा सन्तान की कामना करते हुए हम आनन्द को प्राप्त होते हैं तथा जिस तुझमें सुख के लिए बहुत सी कामनाएँ विद्यमान हैं।
इस प्रकार के उल्लेखों से यही कहा जा सकता है कि वेदों का चिन्तन सांस्कृतिक व्यवहार का भी है। गुरुओं द्वारा शास्त्र एवं विद्याओं का अध्ययन प्राप्त करके उसे शिष्य-परम्परा में वितरण करने से गुरुऋण या ऋषिऋण पूरा हो जाता है। अपनी गृहस्थी की वस्तुओं से देवपूजन करना, नि:स्वार्थ त्याग या दान करना तथा सद्विचारों को प्रसारित करना आदि देवऋण से मुक्त कर देता है। इसी प्रकार पितृवंश को निरन्तर रखने हेतु सन्तति पैदा करने से पितृऋण भी मुक्त हो जाता है। यही कार्तज्ञ भाव तीनों ऋणों में अन्तर्भूत है।
व्यक्तियों के सुव्यवस्थित रूप का नाम ही परिवार है। ‘परिव्रियतेऽअनेन‘12 अर्थात् जिससे व्यक्ति घेरा जाए, वह परिवार है। परिवार की उन्नति में सभी सदस्यों का सहयोग अनिवार्य है।
यजुर्वेद वाङ्मय में ‘पारिवारिक पर्यावरण‘ के सम्बन्ध में जो उदात्त भाव प्रकट किए गए हैं, वे मानव-समाज की महान् निधि है। ‘परिवार‘ मानव-समाज की सबसे छोटी इकाई है। इसे राष्ट्र एवं समाज का संक्षिप्त रूप कहा जा सकता है। यजुर्वेद वाङ्मय में इस सबसे छोटी इकाई को सुखी, समृद्ध, प्रसन्न, सन्तुष्ट एवं शान्तियुक्त बनाने के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं।
व्यष्टि के सुखी होने पर समष्टि भी सुखी हेाता है। व्यष्टि एवं समष्टि, व्यक्ति और समाज परस्पर सम्बद्ध हैं। व्यक्ति की उन्नति से समाज उन्नत होता है तथा समाज की उन्नति से व्यक्ति।
परिवार में पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, दादा-दादी, भाई-बहिन तथा पौत्र-पौत्री आदि सभी सम्मिलित हैं। परिवार को सुन्दर तथा सुव्यवस्थित बनाना इन सभी का कर्तव्य है। एक सुन्दर एवं सुव्यवस्थित पर्यावरण से युक्त ‘परिवार‘ स्वर्ग है तथा विकृत एवं अव्यवस्थित पर्यावरण से युक्त परिवार नरक है। परिवार को उत्तम पर्यावरण से युक्त बनाना ही यजुर्वेद वाङ्मय को अभिप्रेत है। क्रमश:
सन्दर्भ सूची
1. मनुस्मृति - 3.77.78
2. बृहदारण्यकोपनिषद् - 1.4.3
शतपथ ब्राह्मण - 14.4.2.4
3. बृहदारण्यकोपनिषद् - 1.4.3
शतपथ ब्राह्मण - 14.4.2.4,5
4. बृहदारण्यकोपनिषद् - 1.4.3
शतपथ ब्राह्मण - 14.4.2.5
5. संस्कार चन्द्रिका, पृ. 350,
डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार
6. शतपथ ब्राह्मण - 17.2.1 से 4
7. तैतिरीय संहिता - 6.3.10.5
8. संस्कार चन्द्रिका, पृ. 350,
डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार
9. शतपथ ब्राह्मण - 14.4.2.30
10. बृहदारण्यकोपनिषद् - 4.3.21
11. पारस्कर गृह्यसूत्र - 1.4.16
12. शब्द कल्पद्रुम में ‘परिवार‘ देखें - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग - अप्रैल 2014)