विशेष :

मुझे आश्रय दो

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ओ3म् य आपिर्नित्यो वरुण प्रिय: सन् त्पां आगांसि कृण्वत्सखा ते।
मा त एनस्वन्तो यक्षिन् भुजेम यन्धिष्मा विप्र: स्तुवते वरूथम् ॥ ऋग्वेद 7।88।6॥

ऋषि: वसिष्ठ:॥ देवता वरुण:॥ छन्द:- नचृत्त्रिष्टुप्॥

विनय- हे जगदीश्‍वर! यह जीव तुम्हारा सनातन बन्धु है, यह तुमसे जुदा नहीं हो सकता। जीव चाहे कितना पतित हो जाये, पर असल में यह स्वरूपत: चेतन आत्मा ही है। इस जीवात्मा में तुम सदा स्वामी (संचालक) होकर व्याप्त हो और तुममें यह जीव-आत्मा सदा आश्रित है। एवं जीव सदा तुम्हें प्राप्त तुम्हारा ‘आपि:‘ है, सदा तुमसे बँधा हुआ तुम्हारा बन्धु है, तुम्हारा सखा है। यह तुम्हारा साथी तुम्हें इतना प्रिय भी है कि तुमने स्वयं कुछ न भोगते हुए भी इस जीव के भोग के लिए ऐश्‍वर्यों से भरा यह सब संसार खोलकर रख दिया है। पर फिर भी यह जीव, यह तुम्हारा ऐसा प्यारा सखा जीव इस संसार में तुम्हारे प्रति अपराध करता रहता है, तुम्हारे नियमों को भङ्ग कर तुम्हें अप्रसन्न करता रहता है।

हे यजनीय देव ! हम जीवों को इस प्रकार तुम्हारे प्रति अपराधी होने पर क्या करना चाहिए? हमें यह चाहिए कि हम पापी होने पर तुम्हारे दिये गये भोगों को त्याग दिया करें। हे यक्षिन् ! पाप करते ही हमारे द्वारा तुम्हारे यज्ञ का भङ्ग हो जाता है और मनुष्य को बिना यज्ञ किये भोग भोगने का अधिकार नहीं है। अत: पापी होकर हमें भोग-त्याग कर देना चाहिए । किसी भोग के त्याग के रूप में उस पाप का प्रायश्‍चित कर लेना चाहिए। पापी होने पर भोग कभी न करें । ऐसा करने से हमें तुम एक ‘वरूथ‘ अर्थात् सुरक्षित घर वा आश्रय दे देते हो। हे जगदीश्‍वर! तुम सर्वज्ञ हो, मेरे हृदय को जानते हो, मुझ अपने उपासक के सब सच्चे भावों को जानते हो। अत: अब जब कभी मुझसे किसी तुम्हारे नियम का भङ्ग होगा तो मैं किसी भोग के त्यागने के द्वारा तेरी शरण में आने के लिए अपने हाथ फैलाऊँगा। हे विप्र! हे स्वामिन् ! तब मुझे अपना ‘वरूथ‘ अवश्य प्रदान कीजिएगा, हाथ फैैलाये हुए मुझे अपनी गोद में स्थान देकर सुरक्षित कीजिएगा। कुछ समय के लिए अपने घर में मुझे आश्रय दीजिएगा, जिससे पवित्र होकर आगे के लिए मैं वैसा नियम भङ्ग करने से अलग रहूँ।

शब्दार्थ - वरुण= हे वरुण! य: नित्य: आपि:= जो तेरा सनातन बन्धु है वह ते सखा=तेरा साथी प्रिय:सन्= तेरा प्यारा होता हुआ भी त्वां आगांसि कृण्वत्= तेरे प्रति पाप, अपराध किया करता है। यक्षिन्=हे यजनीय देव!एनस्वन्त:=पापी होते हुए हम ते मा भुजेम=तेरे दिये भोग न भोगें विप्र: स्तुवते वरूथं यन्धि स्म= इस प्रकार तुम सर्वज्ञ मुझ उपासक को अपनी शरण या घर दे दो। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - मार्च 2014)