संसार में मनुष्य को कर्म करने का स्वतन्त्रतापूर्वक अधिकार है। कर्म किये बिना वह अपना जीवन यापन नहीं कर सकता। परोपकार अथवा परहित भी कर्म द्वारा ही संभव है। यदि मनुष्य को जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है,
तो भी उसे निस्वार्थ भाव से कर्म करना ही होगा। इसलिये वैदिक संस्कृति के अनुसार कर्म का बड़ा महत्व है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह कर्म अनिच्छापूर्वक अस्थिर मनोभाव के द्वारा किया जाये या आत्मबल, उत्साह और आशापूर्ण दृढ़ता के साथ। किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व उस पर अन्तमुर्खी, मनोवृत्तियों के मंथन द्वारा खूब मनन करके और उसके हिताहित, सफलता-असफलता, हानि-लाभ आदि विषयों पर भी पूर्ण रूप से विचार परमावश्यक है । जब प्रत्येक दृष्टि से विचार कर लिया जाये, तो दृढ़ता से उस कार्य के सम्पादन में संलग्न हो जाना चाहिए। यह मनोबल और साहसपूर्ण दृढ़ता ही मानव जीवन की सफलता की कुञ्जी है।
वैदिक साहित्य में अनेकों स्थानों पर दृढ़ निश्चयी बनकर कर्म करने का उत्तम एवं महत्वपूर्ण सन्देश है। जिन व्यक्तियों ने इस सन्देश को अपने जीवन में धारण किया, उन्हें प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त हुई और वे सदैव उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहे। किन्तु जिन व्यक्तियों के जीवन में कर्त्तव्य-दृढ़ता का अभाव एवं सन्देह रहा, यह कार्य होगा या नहीं, करें या नहीं, इन्हीं ऊहापोह और भ्रम तरंगों में फंसे रहे, वे जीवन में सफलता नहीं प्राप्त कर सके।
इस प्रकार के विचार वाले व्यक्तियों के लिये ही कवि ने कहा है किः-
आज करे सो काल कर,काल करे सो परसों,
इतनी जल्दी क्या पड़ी है,जीना है अभी बरसों॥
अकर्मण्यता की इस हीन भावना ने न केवल व्यक्तिगत जीवन को ही हानि पहुँचाई, अपितु परिवार- समाज और राष्ट्रहित के लिये भी वह कभी हितपूर्ण एवं प्रभावशील नहीं रही। इसके कारण ही विजयशील जातियाँ और देश पराजित हो गये। क्यों? इसलिये कि उसके कर्णधार अपनी अकर्मण्यतावश युद्ध विजय को कोई महत्त्व नहीं देते थे। पददलित और पराजित जातियाँ पुनः संगठित हो संसार में उन्नति पथ पर अग्रसर हुई। क्यों? इसलिये कि उनके विचारकों को बिना युद्ध और कर्त्तव्य पालन के चैन ही नहीं मिलता था।
वर्तमान में देश के धार्मिक-सामाजिक संगठनों में जहाँ अन्य त्रुटियाँ हैं, उनमें सबसे अधिक दोष इस बात का आ गया है कि वे कार्य की दृढ़ता को कोई महत्व नहीं देते। नेता लोग किसी विषय पर गम्भीरता-तन्मयता और सामुहिक दृष्टि से अनेकों बार विचार करते हैं। अन्ततोगत्वा इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि अमुक कार्य अमुक समय पर अवश्य करना चाहिये। उनके अनुयायी उस कार्य की सफलता के लिये घोर परिश्रम और पुरुषार्थ करते हैं, परन्तु ज्यों ही निश्चित अथवा निर्धारित समय आता है, त्यों ही उत्साह को भंग करके कर्तृत्व शक्ति का विनाशक आदेश होता है। अभी इस अमुक कार्य को न किया जाये। इससे कार्य करने वाला व्यक्ति हताश और निराश होता है तथा जनता में अविश्वास उत्पन्न हो जाता है।
भारतीय समाज दिन प्रतिदिन जो अवनति की ओर जा रहा है, उसका मूल कारण है, कर्त्तव्य पालन के प्रति उपेक्षा, उदासीनता और मन की अस्थिरता। वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन की घटनाएं देशवासियों के लिये अनुकरणीय और मननीय हैं। महर्षि विचार करने के पश्चात् जो निश्चय कर लेते थे, उस पर दृढ़ता के साथ डट जाते थे। अनेकों बाधायें आईं, घोर विरोध हुआ, परन्तु कर्त्तव्य पालन के दृढ़व्रती-स्तम्भ ऋषि कभी अपने निश्चय से नहीं डिगे। यही कारण है कि संसार में जब महान् अन्धकार था, चारों ओर निराशा की घटायें छायी हुई थीं, आशा की कोई किरण कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती थी, उस समय अकेले दृढ़व्रती संन्यासी ने दृढ़ता का सम्बल लेकर वह कार्य किया, जिसे संसार देखकर आश्चर्यचकित हो गया था।
वेदों में अनेकों स्थानों पर दृढव्रती होकर कर्म करने के सन्देश प्राप्त होते हैं। परन्तु हम उन सन्देशों का न तो यथावत् पालन करते हैं और न मनन ही। इसका परिणाम हमारे सामने स्पष्ट है।
ओ3म् व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ यजु. 19.30
इस वेदमन्त्र में स्पष्ट सन्देश है कि हे मनुष्यो! यदि सत् चित्-आनन्द की प्राप्ति करना चाहते हो, तो उसके लिये सर्वप्रथम जीवन में दृढ़ता धारण करो। प्रत्येक कार्य के लिये दृढ़व्रती बनो। यही जीवन की सफलता का मुख्य साधन है, किन्तु जो अपने जीवन में दृढ़ भावना को धारण करता है, वही लक्ष्य की प्राप्ति कर पाता है। निष्क्रिय और दृढ़ताविहीन मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर पाते। वे कायर पुरुष की भांति मिथ्या प्रलाप करते हैं। वे किसी कार्य में स्वयं भी सफल नहीं होते और अन्य व्यक्तियों की सफलता में बाधक बनते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन-जिन व्यक्तियों ने इस सिद्धान्त को श्रद्धा और दृढ़तापूर्वक मानकर उसका पालन किया, साधारण स्थिति से बहुत ऊंचे क्षेत्र में उन्हें सफलता प्राप्त हुई।
वेद एवं वैदिक संस्कृति के प्रचारक धर्मवीर पं. लेखराम जी को एक बार सूचना मिली कि किसी स्थान पर पांच हजार हरिजन ईसाई बनने वाले हैं। उस स्थान पर पहुंचने के लिये समय बहुत कम रह गया था। गाड़ी छूटने में एक घंटे की देर थी। परन्तु कठिनाई यह थी कि गाड़ी उस स्थान पर नहीं ठहरती थी। पंडित जी ने दृढ़ता के साथ निश्चय किया कि अमुक स्थान पर निश्चित समय पर उन्हें अवश्य पहुंचना है। अतः वे उस गाड़ी में सवार हो गये और सोचने लगे कि निश्चित स्थान पर कैसे उतरना होगा ? पूर्ण चिन्तन करने के पश्चात् उनके विचारों ने एक उपाय ढूँढ निकाला और गन्तव्य स्टेशन जब आया तो अपना बिस्तर नीचे फेंक कर तुरन्त कूद पड़े। यद्यपि इससे पंडित जी को पर्याप्त चोट पहुंची, परन्तु साहस और दृढ़ता के बल पर ही उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ उपरोक्त हरिजन ईसाई बनने वाले थे। इस घटना की सूचना जब उन लोगों को मिली, तो वे श्रद्धा विभोर गद्गद् हो उठे। उनका एक मुखिया जिसकी आँखों में आँसू भरे हुए थे, वह कातर स्वर से कहने लगा कि जब हमारे इस प्रकार के धर्म संरक्षक तथा त्यागी-तपस्वी विद्यमान हैं, तो हम प्यारे हिन्दू धर्म को कैसे छोड़ सकते हैं! पंडित लेखराम के जीवन की अमर कहानी आज भी जन साधारण के लिये प्रेरणा का स्रोत है और शिक्षा देती है कि बन्धुओं ! यदि जीवन को प्रगतिशील और उन्नत बनाना चाहते हो तथा सफलता प्राप्त करना चाहते हो तो दृढ़व्रती और दृढ़ निश्चयी बनो, तभी सफलता प्राप्त हो सकती है।
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