विशेष :

कहाँ जाएँ !

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ओ3म् वयः सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्यस्मान्निधयेव बद्धान्॥ (ऋग्वेद 10.73.11)

ऋषिः गौरिवीतिः॥ देवता इन्द्रः॥ छन्दः निचृत्त्रिष्टुप्॥

विनय- हमारे शरीर में पाँच इन्द्रियाँ रहती हैं। ये पक्षियों की तरह बाहर उड़ती-फिरती हैं। ये ऋषि-इन्द्रियाँ हैं, ज्ञान लाने वाली ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन्हें अपने रूप-रसादि विषयों से संगमन करना बड़ा प्रिय है। इनका उड़ना बड़ा सुन्दर है। बाहर से बड़े सुन्दर-सुन्दर रूपों को, रसों को, गन्धों को ये कैसी विलक्षणता से ले आती हैं। इनमें क्या ही अद्भुत गुण है! आँख खोलो तो सब विविध जगत् दीखने लगता है, आँख बन्द करने पर कुछ नहीं। आँख में क्या विलक्षण शक्ति है! इसी तरह कान को देखो, जीभ को देखो, इन इन्द्रियों में क्या विचित्र जादू है कि वे हमारे लिए बड़ी ही आनन्ददायक अनुभूतियों को पैदा करती हैं।

पर एक समय आता है जब ये इतनी अद्भुत इन्द्रियाँ हमारी ज्ञान पिपासा को तृप्त नहीं कर सकतीं। ये बाहर से जो प्रकाश लाती हैं वह सब तुच्छ लगने लगता है। यह तब होता है जबकि छठी इन्द्रिय (मन) द्वारा अन्दर के प्रकाश की तरफ हमारा ध्यान जाता है, प्रत्याहार शुरु होता है और इन्द्रियों का उड़ना बन्द हो जाता है। सब इन्द्रियाँ मन के प्रकाश के मुकाबिले में बैठकर अपने अन्धकार को और अपनी परिमितता के बन्धन को अनुभव करती हैं। ओह! इन्द्रियाँ कितना थोड़ा ज्ञान दे सकती हैं और वह ज्ञान भी कितना बन्धा हुआ है! अन्दर-बाहर की थोड़ी सी बाधा से उनका ज्ञान ग्रहण रुक जाता है। आँख अतिदूर, अतिसमीप नहीं देख सकती, अतिसूक्ष्म को नहीं देख सकती तथा ओट होने पर पार नहीं देख सकती। यह अन्धेरा और यह बन्धन तब अनुभव होता है जबकि मनुष्य को अन्दर के महान् सब कुछ जान सकने वाले प्रकाश का पता लगता है। यह इन्द्र का, आत्मा का प्रकाश है। इस प्रकाश पिपासा से व्याकुल होकर इन्द्रियाँ आत्मा से उस प्रकाश को पाने के लिए गिड़गिड़ाने लगती हैं, प्रार्थना करने लगती हैं कि ‘‘हमारे अन्धकार का पर्दा उठा दो, हमारी आँखें प्रकाश से भर दो, हम अन्धे हैं, हमें आँख दे दो, हम अपने-अपने जरा से क्षेत्र में बन्धी पड़ी हैं, हमें देशकालाव्यवहित दर्शन की शक्ति दे दो, हमारे बन्धन काट दो, हम जिस देश और जिस काल में जिस वस्तु को देखना चाहें तुम्हारे इस प्रकाश में (प्रज्ञालोक में ) देख सकें।’’ तज्जयात् प्रज्ञाऽऽलोकः। योगदर्शन 3.5॥ इन्द्रियाँ अपने शक्ति स्रोत इन्द्र की शरण में न जाएँ तो और कहाँ जाएँ?

शब्दार्थ- वे सुपर्णाः=शोभनपतनशील वयः=पक्षी प्रियमेधः=जिन्हें मेध (संगमन) प्रिय है और ऋषयः=जो ज्ञान लेने वाले हैं इन्द्रम्=इन्द्र के पास नाधमानाः=यह प्रार्थना करते हुए उपसेदुः=आ बैठे हैं कि ‘‘ध्वान्तम्=हमारे अन्धकार को अप ऊर्णुहि=निवारण कर दो, चक्षुः पूर्धि=हमारी आँखें भर दो या हमें आँखें दे दो और हम जो निधया इव=मानो पाशों से बद्धान्=बंधे पड़े हैं अस्मान्=हमें मुमुग्धि=छुड़ा दो।’’ - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- मार्च 2013)

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Explanation of Vedas & Dharma | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है।