मध्याह्न का भोजन- स्नान करने के पश्चात् जठराग्नि प्रबल हो जाती है। इसलिए स्नान के बाद भोजन करने का विधान बतलाया गया है। विशेष परिस्थिति को छोड़कर बिना स्नान किये भोजन नहीं करना चाहिए। भोजन का नियम भी यही है कि जब तक अच्छी तरह से भूख नहीं लगे भोजन नहीं करना चाहिए । क्योंकि उस समय तक पाचक रसों की क्रियायें मन्द रहती है। इसलिए भोजन का पाक ठीक तरह से नहीं हो पाता। अतः स्नान के द्वारा शरीर शुद्धि करने एवं क्षुधा-प्रवृत्ति होने पर ही भोजन करें।
आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र में सामान्यतः आहार के चार प्रकार बताये हैं -
1. अशित- दाल, भात, रोटी, सब्जी, लड्डू एवं पूरी आदि जिनको दाँतो से हल्का चबाया जाता है।
2. पीत- जल, दूध, शर्बत, छाछ और द्रव पदार्थ जो पीये जाते हैं।
3. लीढ़- रबड़ी, खीर, श्रीखण्ड, चटनी आदि जो चाटकर सेवन किये जाते हैं।
4. खादित- चना, चबेना, पापड़, कठिन लड्डू, शक्कर पारे आदि जो अच्छी तरह से चबाकर खाये जाते हैं।
यह चारों प्रकार का आहार जठराग्नि का बल पाकर अपनी अग्नि से भलि-भाँति पचता हुआ, कुछ काल में स्रोतों में घूमता हुआ समस्त शरीर को पुष्टि, बल, कान्ति, सुख एवं आयु से युक्त करता है एवं शरीर तथा धातुओं को शक्तिशाली बनाये रखता है ।
भोजनविधि- भोजन के लिए एकान्त में बैठना चाहिए और प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिये। भोजन शुरु करने से पहले भोजन का अभिनन्दन एवं प्रशंसा करें। भोजन कैसा भी हो, उसकी निन्दा कभी नहीं करें।
भोजन करते समय सुखपूर्वक सुखदायक आसन पर बैठे और कुछ भी न बोलते हुए मौन रहकर भोजन करे । भोजन करते समय अनावश्यक गपशप, वार्तालाप आदि नहीं करे और न ही जोर-जोर से हँसे, अन्यथा भोजन ग्रासनली के स्थान पर श्वासनली में भी जा सकता है।
आहार स्निग्ध, लघु तथा उष्ण होना चाहिए। अत्यन्त धीरे-धीरे और अत्यन्त शीघ्र नहीं खाना चाहिए। एकाग्रचित्त होकर और अपनी आहार शक्ति एवं पाचनशक्ति आदि का भलि-भाँति विचार करके भोजन करना चाहिए।
भोजन करते समय सबसे पहले गुरु, मधुर एवं स्निग्ध पदार्थ खाने चाहिएं । मध्य में अम्ल एवं लवण रस वाले और अन्त में रुक्ष, द्रव एवं कटु, तिक्त, कषाय रस वाले पदार्थ खाना चाहिये। यदि किसी की जठराग्नि कुछ मन्द हो तो किसी द्रव एवं उष्ण पदार्थ का सेवन अवश्य करें । क्योंकि उससे जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है । फलस्वरूप खाये गये अन्य ठोस एवं शीतल पदार्थ भी अच्छी तरह से पच जाते हैं।
आहार के लाभ- आहार तत्काल शरीर की पूर्ति करता है, बल को बढ़ाता है। शरीर को धारण करता है और आयु, तेज, उत्साह, स्मृति, ओज तथा अग्नि को बढ़ाता है।
भोजन सेवन में ध्यान देने वाली बातें- दुबारा गरम किया गया आहार, अत्यन्त उष्ण आहार, पकाते समय जला हुआ आहार नहीं खाना चाहिए। भली प्रकार बने हुए स्वादिष्ट आहार का लालच भी नहीं करना चाहिये अर्थात् जीम के लालच में अत्यधिक मात्रा में नहीं खाना चाहिए। जो आहार अपने शरीर के अनुकूल नहीं हो, ऐसा आहार नहीं करना चाहिए एवं अपरिचित आहार भी न खायें। रात में अधिक देर से और प्रातःकाल बहुत जल्दी, खुले आकाश के नीचे बैठकर, धूप में तथा अन्धकार में बैठकर और वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन न करें।
बिस्तर पर बैठकर कभी भोजन न करें। तर्जनी अंगुलि को अलग रखकर ग्रास को मुख में न डालें। टूटे-फूटे बर्तन, थाली, कटोरी आदि पात्र में रखकर भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिये। चारों तरफ से खुले स्थान में अर्थात् जहाँ सबकी दृष्टि पड़ती हो, भोजन नहीं करें। गन्दे पात्र में अथवा जूठे पात्र में भी नहीं करें।
भोजन करने के पश्चात् हाथ में लगे अन्न कणों को जल के द्वारा दूसरे हाथ की सहायता से धोना चाहिए। दाँतों एवं दाढ़ में फँसे आहार कणों को नीम के तिनके से या ब्रश करके निकाल दें तथा मुख की भीतर की चिपचिपाहट को, आहारजनित गन्ध तथा स्नेह को दूर करने के लिए जल से कुल्ला करें और अंगुलियों के अग्रभाग से गिरने वाले जल से नेत्रों का सिंचन करें। इससे आँखों की ज्योति बढ़ती है। सुपारी आदि चबाकर मुख को स्वच्छ कर लें अथवा लवंग, इलायची, सौंठ को चबाये। लगभग 100 कदम पैदल चल-फिरकर बिस्तर पर बाँई करवट के बल लेट जावें किन्तु सोवें नहीं। यदि आहार में पतले पदार्थ अधिक मात्रा में सेवन किये गये हैं तो अधिक समय तक बिस्तर पर न लेटें।
निषिद्ध कर्म- भोजन के बाद तत्काल गाड़ी की सवारी अथवा पैदल चलना, उछलकूद करना, घोड़ा, साइकिल आदि पर चढ़कर चलना या परिश्रम करना, भार उठाना, आग के पास बैठना तथा धूप का सेवन नहीं करना चाहिये । अन्यथा भोजन का पाचन ठीक प्रकार से नहीं होता, परिणामतः अनेक विकारों की उत्पत्ति हो सकती है।
अनुभूत नुस्खे
1. गिलोय सत्व 1 ग्राम और पिप्पली का चूर्ण 2 ग्राम मिलाकर शहद से प्रातः-दोपहर एवं रात में सेवन करने पर पुराना बुखार बहुत जल्दी ठीक हो जाता है।
2. यदि किसी को लू लगकर बुखार आ जाये तो आँवले का मुरब्बा खिलाने से आराम मिलता है।
3. जामुन के सिरके में तीन अंजीर डुबोकर प्रातःकाल खाली पेट खाने से प्लीहा-वृद्धि (तिल्ली बढ़ना) में लाभ मिलता है।
4. त्रिकुट (सौंठ, छोटी पीपल और काली मिर्च) को बराबर मात्रा में पीसकर उससे चार गुना गुड़ मिलाकर मटर जितनी मोटी गोलियाँ बना लें। इन गोलियों को कुनकुने पानी से दिन में चार बार सेवन करें तो सर्दी-जुकाम में बहुत लाभ मिलता है।
5. यदि किसी को हिचकी बार-बार आ रही हो तो यवक्षार (जवाखार) 500 मिलीग्राम को घी एवं शहद में मिलाकर चटावें तो हिचकी आना तुरन्त बन्द हो जाती है।
6. गन्ने को आग में भूनकर चूसने से स्वर- भंग (गला बैठना) जल्दी ठीक हो जाता है।
7. सैन्धव लवण और गौघृत मिलाकर छाती पर हल्की मालिश करें तो श्वास रोग (अस्थमा) में शीघ्र लाभ मिलता है।
8. तीन ग्राम पिप्पली मूल को छः ग्राम पुराने गुड़ के साथ सोते समय खाने से रात को अच्छी नींद आती है। यह योग अनिद्रा के रोगियों के लिए परम हितकारी है।
9. पैर के तलवों पर तिल का तैल लगाने एवं हल्की मालिश करने से भी अनिद्रा के रोगियों को अच्छी नींद आती है।
10. रसोंत एवं छुहारे की गुठली को घिसकर 5 एमएल की मात्रा में दिन में तीन बार चाटने से अतिसार रोग (दस्त लगना) ठीक हो जाता है। - डॉ. धर्मेन्द्र शर्मा एम.डी.
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