संसार में प्रकृति के सत्-रज-तम का सब खेल हो रहा है। साधक को यह खेल उसे सावधान करने के लिए आते हैं। मनुष्य के मन में जो विचार आते हैं वे सब बाहर की लहरें हैं। इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी क्रिया में आ रहा है वह मनुष्य जाति कर रही है। वह सब सत्-रज-तम में से किसी की प्रबलता का परिणाम है। मनुष्य सब लहरों को उठता हुआ ध्यान से देखे-सुने तो उसे प्रतीत होगा कि यह काम अच्छे या बुरे, वास्तव में संसार में मनुष्य जाति कर रही है या हो चुके हैं और वैसे-वैसे आगे भी होंगे। वे विचार घटनाओं का रूप धारण करके आते हैं। यदि मनुष्य उन अच्छी या बुरी घटनाओं को अपने रूप और नाम के साथ जोड़ देता है तो उसे प्रसन्नता और उदासी, रोना और हंसना, व्याकुलता और शान्ति भी तत्काल मिल जाती है। यदि अपने साथ न जोड़ने पावे तो वह संसार की वास्तविक घटनाओं का रूप देख रहा होता है। तो इससे साधक बड़ा सावधान हो जाता है।
ऐसा साधक मनुष्य जो मन की गति को देखता रहता है वह संभल जाता है। संसार का कोई प्रलोभन उसे न ठग सकता है और न उसे कोई दुःख होता है। कारण?
सब घटनाएं अच्छी या बुरी उसके सामने आरम्भ से अन्त तक मंजिलें दिखा देती हैं और परिणाम भी साथ प्रस्तुत कर देती हैं। जब मनुष्य वो देख लेवे तब फिर उसमें कैसे फंसेगा?
किसी भी योनि में जागृत मन नहीं है। केवल मनुष्य योनि ही है, जो मन के नाम पर मनुष्य और मानव कहलाती है। मनुष्य का मन सदा विकास करता रहता है। वह विकास ज्ञान के रूप में होता है और यह ज्ञान कइयों का तो भोग में विकास करता है। उदाहरणार्थ, नाना प्रकार के पदार्थ बनाने की योजनाएं (स्कीमें) उसके सामने आ जाती हैं। एक वस्तु को अनेकों रूप में स्वादिष्ट बना देना, जैसे- दही, आलू, मूली, गोभी, बेसन इत्यादि। वस्तु एक है परन्तु अपने ज्ञान से मनुष्य उस एक की कितनी ही वस्तुयें बनाकर प्रस्तुत करता है और स्वाद लेता है। वस्त्रों-आभूषणों के अनेक रूप बना देना। ऐसे ही सब प्रकार के वैज्ञानिक आविष्कार और विभिन्न प्रकार के हथियार बना देना। यह सब मनोविज्ञान है मन की इच्छाओं को विकसित रूप देना।
दूसरा, यह ज्ञान कर्म के रूप में। शुभकर्म की अनेक स्कीमें, उनके चलाने के सहज ढंग, उनकी उन्नति के लिए कई साधन। मन की प्रवृत्ति ऐसे कार्यों में है, तो उसकी सफलता के लिए मन में लहरें उठती हैं। यह विकास है। ऐसे ही बुरे कामों में भी।
तीसरा है भक्ति उपासना। अनेक प्रकार से मन को साधने के लिए योजनाएं निकालना, सोचना और क्रियान्वित करना। यही मन, मौत और आवागमन से छुड़ाता है। संसार-परिवार-जाति का कैसे सुधार हो सकता है? यह सब मन के अन्दर इच्छायें उठती हैं और वैसा ही मन में मानचित्र। सत्-रज-तम की घटनायें कार्टून (व्यंंग्यचित्र) के रूप में बनकर आते हैं। ऐसा नाम निरंजन होई, जो मन जाने सो मन होई।
ओ3म् यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवम्..... तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु। यह मन स्वप्न में तो मानचित्र प्रस्तुत करता है, किन्तु जागृत में इन्द्रियों को दूसरे कामों में लगाकर आप बहुत दूर-दूर चला जाता है। अर्थात् दूर देश, दूर काल के लोगों के हृदयों में हो रही या होने वाली अवस्थाओं का वर्णन करता है। घर बैठे सारे संसार के भलाई-बुराई के वृतान्त (हालात) साक्षात् रूप बनाकर दिखाता है।
साधक को यह विचार गांठ बान्ध लेना चाहिए कि मन कोई निरर्थक बात प्रस्तुत नहीं करता और न ही घड़ता है। यथार्थ और सम्भव घटना को प्रस्तुत करता और घड़ता है। स्वप्न तो कई बार बेजोड़ (अनमेल) हो जाते हैं क्योंकि मन, प्राण और इन्द्रियों का पूरा मेल नहीं होता, किन्तु जागृत विचार अवस्था सम्भव रूप वाली ही होती है।
घटना का रूप- एक नवयुवक सभ्य कुल का आस्तिक है, किन्तु धर्मज्ञान नहीं रखता और दूरदर्शी भी नहीं। साधारण बुद्धि का स्वामी है। अपने से ऊंचे धनी-मानी-दानी-प्रतिष्ठित गृह में ब्याहा हुआ है जो सब परिवार वाले धर्म परायण ईश्वरभक्त हैं। अपनी धर्मपत्नी के मायके (पीहर) में चले जाने से कुछ समय पश्चात् व्याकुल हो जाता है। व्यवसाय पराधीन है और ससुराल में उनके अनुकूल विचार न रखने से और बुद्धिमान न होने से जाने में डरता है। कई दिन जब प्रतिदिन व्याकुलता और व्यग्रता सताती है तो धर्म ज्ञान न रखने के कारण अपना पतन करने के लिए योजनायें बनाता है। कुल की श्रेष्ठता के संस्कार उसे भयभीत कर देते हैं कि यदि पकड़ा गया तो कारावास में तेरा जीवन नष्ट हो जावेगा। बाप-दादा-भाई के कुल के गौरव पर धब्बा लग जावेगा। ससुराल को भी मुंह न दिखा सकेगा। परस्त्रीगमन से बच जाता है। परन्तु कामदेव की सलाई नीली है, इसलिए आंखों को अन्धा कर देती है।
जब आँख में फिर जाती है, तो वेश्या के पास जाने की तैयारी करता है। तैयार हो जाने पर किसी सभ्य मित्र का शुभागमन हो जाता है। वृत्ति उधर लग जाती है। बच जाता है। कई दिन पश्चात् फिर दुखित होता है। तो मन में यह ठान लेता है यदि मुझे व्यग्रता से भी बचना है और पाप-ताप-अपमान से भी, तो यही उपाय है कि मैं आत्महत्या कर लूं। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। फिर मेरे ससुराल वालों को और मेरी पत्नी को मेरा महत्व मालूम होगा कि दामाद और पति से कैसा व्यवहार रखना उचित होता है। दूरदर्शी तो था नहीं, फिर ऐसा ही विचार बनकर उसे सान्त्वना देने के लिए आना ही था। तो यह रूप बनकर विचार अवस्था में आना असम्भव नहीं। ऐसी घटनाएं अनेक बार हुआ करती हैं। - महात्मा प्रभुआश्रित (दिव्ययुग- फरवरी 2013)