दीपावली अन्धकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है। अज्ञान से ज्ञान की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, पाप से पुण्य की ओर, मृत्यु से जीवन की ओर, शरीर से आत्मा की ओर, प्रकृति से परमात्मा की ओर चलने की प्रेरणा यह पर्व प्रतिवर्ष लेकर आता है। जब तक हम अन्तर में व्याप्त अज्ञान रूपी अन्धकार को नहीं मिटाएंगे, तब तक जीवन में सच्ची सुख-शान्ति, प्रसन्नता और आनन्द की प्राप्ति नहीं कर सकेंगे। दीपावली हम सबको आत्मचिन्तन एवं आत्मनिरीक्षण का सन्देश देती है। बहिजर्गत में रोशनी बढ़ती जा रही है, किन्तु हमारे हृदयों और विचारों में निरन्तर अविद्या, अन्धकार, भोगलालसा, ईर्ष्या, द्वेष आदि का अन्धेरा छाता जा रहा है। जीवन अशान्ति, चिन्ता, तनाव, भटकन व रोगों की ओर बढ़ रहा है। जीवन को जितना व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं, उतना अव्यवस्थित व जटिल हो रहा है। यदि इसके मूल को तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो इसका मूल कारण अज्ञान ही मिलेगा। उसी अज्ञान को मिटाने, हटाने तथा छोड़ने की प्रेरणा देती है दीवाली और यही हमारी प्रार्थना का मूल स्वर है।
असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्माऽमृतं गमय।
दीवाली ऋषि की स्मृति का पर्व है। प्रभु के वरदपुत्र देव दयानन्द की अमर गौरव गाथा स्मरण करने की पुण्य तिथि है। आत्मोत्थान व मिशन हेतु कुछ कराने की सोच की मंगल बेला है। उस महामानव के उपकारों एवं महत्व को स्मरण करने की पुण्य तिथि को याद दिलाता है हर वर्ष यह प्रकाश पर्व। इसी दिन पुण्यात्मा दयानन्द ने संसार से महायात्रा की थी। इसलिए आर्यसमाज के इतिहास में यह दिन विशेष महत्व रखता है। अजमेर के भिनाई भवन में ऋषिवर शान्त भाव से लेटे थे। सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। उन्होंने शौचकर्म से निवृत्त होकर क्षौर कर्म कराने की इच्छा प्रकट की। उपस्थित भक्तों ने नम्रभाव से कहा कि महाराज! सारे मुख पर छाले हैं। खून निकलेगा, कष्ट होगा। वह महायोगी अनुभव कर रहा था कि आज प्रयाण वेला है। पूछा- ‘‘आज कौन सा मास, पक्ष और दिन है।’’ किसी भक्त ने कहा- ‘‘आज कार्तिक मास की अमावस्या व दीपावली का पर्व है।’’ उनका मुखमण्डल शान्त व प्रसन्न था। सहज भाव से भक्तों से बात कर रहे थे। सबको संगठित होकर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दे रहे थे। थोड़ी देर बाद बोले- ‘‘सभी दरवाजे और खिड़कियाँ खोल दो।’’ ऋषि ने ऊपर की ओर दृष्टि करके चारों ओर अलौकिक व चमत्कारी दृष्टि से देखा, गायत्री मन्त्र का पाठ किया और तीव्र स्वर से ओ3म् का उच्चारण करने लगे। शान्त भाव से मुख से उच्चारित होने लगा- ‘‘हे दयामय सर्वशक्तिमान् ईश्वर! तेरी यही इच्छा है। तेरी इच्छा पूर्ण हो। अद्भुत तेरी लीला है।’’
यह कहकर लम्बी सांस खींची और बाहर निकाल दी। प्रभु का प्यारा देवता अपनी इरलीला समाप्त करके प्रभु की शरण में चला गया। भक्तजन असहाय बनकर देखते रहे। गुरुदत्त प्रथम बार ऋषि के दर्शन करने आये थे। ईश्वर में दृढ़ आस्था न थी। इस अन्तिम यात्रा के अपूर्व दृश्य को देखकर गुरुदत्त कट्टर आस्तिक बन गए। जाते-जाते भी वह उपकारी दयानन्द गुरुदत्त जैसे समर्पित व भावनाशील व्यक्ति को आस्तिक बना गए। उस निराले योगी की दीवाली भी निराली थी। जीवन भी निराला था।
ऋषिवर! तुम्हें कोटि कोटि प्रणाम। तुम्हारे स्मरण मात्र से हृदय श्रद्धा भक्ति से भर उठता है। सिर चरणों में झुकने लगता है। नेत्र सजल होकर तुम्हारी स्मृति पर अर्घ्य चढ़ाने लगते हैं। रोम-रोम तुम्हारी स्मृतियों और उपकारों से सिहर उठता है। ऋषि तुम धन्य थे। तुम मानवता के गायक और संसार के उद्धारक थे। तुम आजीवन विषयायी थे। तुम सत्य के शोधक व प्रचार-प्रसारक थे। तुम्हारा महान इतिहास प्रशंसनीय है। तुम्हारे उपकार वन्दनीय हैं। तुम्हारी सेवा और योगदान अर्चनीय है। तुम्हारा तप-त्याग, बलिदान, स्पृहणीय है। तुमने न जाने कितने लोगों को जीवन दिया। तुमने भारतीय स्वर्णिम इतिहास के प्रेरक पृष्ठों को संसार के सामने रका। जो तुम्हारे सम्पर्क में आया वह अमूल्य हीरा बन गया। ऋषिवर! तुम क्या थे, आज तक संसार न जान सका। तुम सत्य के पुजारी और सत्य पर ही शहीद हुए। तुमने सदैव सत्यमेव जयते के अमर वाक्य को जीवित रखा। तुम रातों में जागकर देश में फैले अज्ञान, अन्धकार, पाप, दुःख-दैन्य, जड़ता, गुरुडम, पाखण्ड आदि के लिए घण्टों करुण क्रन्दन किया करते थे। किसी कवि के शब्दों में-
इक हूक सी दिल में उठती है,
एक दर्द जिगर में होता है।
हम रात को उठकर रोते हैं,
जब सारा आलम सोता है॥
ओ दया और आनन्द के भण्डार! मानवता के अमर गायक! सदियों के बाद आए देश-धर्म-संस्कृति के उद्धारक देव दयानन्द! आज तुम्हें क्या श्रद्धांजलि दूँ? आंसुओं के सिवा कुछ पास नहीं। हम भारतीय ने तेरे स्वरूप, योगदान, महत्व और विशेषताओं को समझा ही नहीं। तुम्हें जाना ही नहीं। तेरे उपकारों को स्वीकारा ही नहीं। हम भारतीय तुझे पत्थर, जहर, गालियाँ, अपमान, कष्ट और विरोध देते रहे। तू हंस-हंसकर पीता रहा, सहता रहा, मुस्कुराता रहा। तू भूली भटकी, दीनहीन, अज्ञान, जड़ता में फंसी मानवता पर अमृतवर्षा करता रहा। आजीवन गरलपायी बनकर पाखण्ड, अधर्म, असत्य, अन्धविश्वासों आदि का विरोध करता रहा। गलत बातों से कभी समझौता नहीं किया। सारे जीवन में कहीं भी चारित्रिक दुर्बलता और पदलोभ, अर्थलोभ नहीं आने दिया। हर पहलू से तुझे देखा-परखा, तू खरा ही उतरा। तेरे कट्टर विरोधी व आलोचक भी अन्दर से प्रशंसक रहे। तेरे इस भौतिक संसार को छोड़ने के बाद दुःख वियोग में इतने शोक पत्र आए कि देखने वाले चकित रह गए।
यदि संसार के कभी महापुरुषों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, दूसरे पलड़े में प्यारे ऋषि को रखा जाए तो गुणवत्ता की दृष्टि से जीवन, विचार, योगदान, उपकार, तप, त्याग, तपस्या, बलिदान आदि सभी दृष्टियों से प्रेरणास्रोत दयानन्द का पलड़ा ही भारी होगा। क्योंकि ऋषि प्रभु के लिए जिये थे। उनकी अपनी कोई इच्छा ही नहीं थी। अपने लिए उन्होंने कभी कुछ लिया ही नहीं तथा कुछ मांगा ही नहीं। आर्यसमाज के नियमों में कहीं अपना नाम नहीं आने दिया। संसार के बड़े से बड़े पद, धन, महत्व, पूजा आदि के प्रलोभन को ठुकरा दिया। जीवन के आदि से अन्त तक कोई किसी प्रकार की न्यूनता नहीं आने दी। उनका जीवन प्रेरणाओं, आदर्शों और उपकारों से भरा हुआ है। वह महामानव उनसठ साल के डेपुटेशन पर संसार में आया था। अपने वन्दनीय-स्मरणीय व्यक्तित्व व कृतित्व से संसार को अमूल्य जीवन दृष्टि व दिशाबोध करा गया।
आर्यों! ऋषि का बलिदान-दिवस प्रतिवर्ष आता है। धूम-धाड़ाके चहल-पहल, भागदौड़ मे अपनी मूक वेदना छोड़ जाता है। ये पर्व व स्मृति दिवस प्रेरणा और सन्देश देते हैं कि मिल-बैठकर चिन्तन व विचार करें। क्या खोया क्या पाया? जिस उद्देश्य एवं प्रयोजन के लिए आर्यसमाज का निर्माण हुआ था, उसके लिए हम क्या कर रहे हैं? कहीं व्यर्थ की भूलभुलैयों में, स्वार्थ, पदलोभ, विवाद, अहंकार आदि में आकर मूल से तो नहीं भटक रहे हैं। ऋषि का बलिदान हम सबको जगा रहा है। पुकार कर कह रहा है कि उठो! अन्दर के अज्ञान के अन्धेरे को हटाओ। विवादों व स्वार्थो को छोड़ो। मिलकर चलो। इदं आर्यसमाजाय इदं न मम के भाव ले आओ। यही ऋषि को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। - डॉ. महेश विद्यालंकार (दिव्ययुग- नवंबर 2012)
O stores of mercy and joy! The immortal singer of humanity! Dev Dayanand, the savior of country-religion-culture, came after centuries! What tribute should I give you today? Nothing is near except tears. We Indians did not understand your nature, contribution, importance and characteristics.