पर्यावरण संरक्षण में पक्षियों का भी बहुत महत्व है। सृष्टि का हर प्राणी एक बृहत् शृंखला की कड़ी है। जिस प्रकार कड़ी टूटने से शृंखला भंग हो जाती है, वैसे ही प्राणिजगत् में जीवों की शृंखला है। हर छोटे-बड़े जीव उससे सम्बद्ध हैं। इनमें से यदि कोई भी प्राणिवर्ग विलुप्त हो जाए, तो पर्यावरण सम्बन्धी भारी अव्यवस्था फैल जाएगी। इसलिए सृष्टि में उनके नियमन तथा सन्तुलन की एक स्वसंचालित प्रक्रिया है। इसमें हस्तक्षेप कर प्रकृति के स्वाभाविक क्रम को बिगाड़ना नहीं चाहिए। प्राचीन ऋषियों ने इस बात को समझा था तथा अपने आश्रमों में सब प्राणियों को संरक्षण दिया था।
पक्षी इस विशाल ब्रह्माण्ड की शोभा बढाते हैं। पक्षियों की बोलियों तथा संकेतों आदि से अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं। यजुर्वेद में उल्लेख है कि अलग-अलग ऋतुओं में अलग-अलग पक्षियों का महत्त्व होता है। बसन्त में कपिञ्जल, ग्रीष्म में चिरौटा, वर्षा में तीतर, शरद में बतख, हेमन्त ऋतु में ककरपक्षी तथा शिशिर ऋतु में विककर पक्षियों की बहुलता होती है-
वसन्ताय कपिञ्जलानालभते ग्रीष्माय कलविङ्कान् वर्षाभ्यस्तित्तिरीन्।
शरदे वर्त्तिका हेमन्ताय ककराञ्छिशिराय विककरान्॥193
भाव यह है कि जिस-जिस ऋतु में जो-जो पक्षी अच्छे आनन्द को पाते हैं, वे उस गुण वाले जानने चाहिएँ। इन पक्षियों का ऋतुज्ञान से गहरा सम्बन्ध है। काले तीतर के विशेष प्रकार की ध्वनि करने पर वर्षा के आगमन का पूर्वानुमान हेाता है। इसी प्रकार अलग-अलग ऋतु में अलग-अलग पक्षियों की बहुलता होती है, जिनसे ऋतु सम्बन्धी अलग-अलग जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
शतपथ ब्राह्मण में भी कपिञ्जल (चातक) कलविंक (चिरौटा), गौरैया तथा तीतर का उल्लेख अनेक बार हुआ है।194
यह भी उल्लेख है कि तीतर भिन्न-भिन्न रंग की वस्तुएँ खाता है, इस कारण उसके शरीर पर (घी तथा शहद जैसे) चितकबरे दाग हैं-
ततस्तित्तिरि: समभवतस्मात्स विश्वरूपतम इव सन्त्येव घृतस्तोका इव त्वन्मधुस्तोका इव त्वत्पर्णोष्वाश्चुतिता एवं रूपं हि स तेनाशनमावयत्।195
अनेक जलचर जीवों का उल्लेख भी यजुर्वेद वाड्मय में मिलता है। कछुआ एक ऐसा ही प्राणी है जिसे ‘कूर्म‘ या ‘कश्यप‘196 कहा गया है। इसे द्यावापृथिवी से सम्बन्धित कहा गया है- द्यावापृथिवीय: कूर्म: ।197
मेंढक198 भी जलचर प्राणी है, जिसका अनेक बार उल्लेख हुआ है। मेंढकों एवं मेघों का बहुत सम्बन्ध है- पर्जन्याय मण्डूकान्।199
मेंढक को वर्षाहू:200 भी कहा गया है। वर्षा ऋतु में मेंढकों की पृथ्वी पर अधिकता से वर्षा होने की जानकारी मिलती है। मेंढक पर्यावरण को शुद्ध व सन्तुलित बनाए रखने में सहायक है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में तो इसकी विशेष उपयोगिता है। मेंढक फसल को हानि पहुँचाने वाले कीड़े-मकोड़ों को खा जाता है।
सरीसृपों में सर्प201 का अनेक बार उल्लेख हुआ है। यजुर्वेद में अनेक स्थलों पर यह देखने में आता है कि बहुत से विषैले सर्प आदि सरीसृपों को भी ‘नम:, नम:‘ कहा गया है यथा-
नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु॥202
ये वावटेषु शेरते तेभ्य: सर्पेभ्यो नम:॥203
येषामप्सु सदस्कृतं तेभ्य: सर्पेभ्यो नम: ॥204
अनेक विद्वानों ने नम: के अर्थ अन्न, मृत्यु आदि किए हैं। परन्तु इसका पर्यावरण के साथ भी कुछ सम्बन्ध प्रतीत होता है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि विषैले प्राणी विषाक्त वायु का आहार करते हैं। सांप कीड़े-मकोड़ों एवं छोटे जीवों को अपना आहार बनाकर पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। यदि वे ऐसा करना बन्द कर दें अथवा उनका समूल नाश हो जाए, तो हानिकारक कीड़े-मकोड़ों की संख्या इतनी अधिक बढ जाएगी, जिससे भारी असन्तुलन पैदा हो जाएगा। विनम्र दूरदर्शी प्राचीन ऋषि उनके इस उपकार के लिए भी यदि ‘नम:‘ कहते हैं, तो यह रहस्य यहाँ कारण बनता है। ‘नागपंचमी‘ को नाग-देवता की पूजा को भी इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
यजुर्वेद वाड्मय में अनेक पक्षिओं, जलचरों, सरीसृपों तथा अन्य जीव जन्तुओं का उल्लेख हुआ है, जिनमें से मुख्य ये हैं-
कपिञ्जल, तीतर, कलविंक, बतख, ककर, विककर, हंस, बगुला, शुतुर्मुर्ग, चक्रवात, घड़ियाल, मुर्गा, उल्लू, मयूर, लवा, बया, गुरुसल, कुलिक, पारुष्ण, कबूतर, सीचापू, जतु, कौआ, सुपर्ण, मूषक, अहि अथवा सर्प, कश, नकुल, बभ्रुक, बाज, मधुमक्खी, सृजय, सयाण्डक, मैना, सेही, तोता, आडी, वाहस, काष्ठकुट्ट, पैड्गराज, अलज, जलकुक्कुट, कारंडव, मत्स्य, कछुआ, गोह, कालका, कटफोड़, तम्रचूर्ण, हंस, नाक्र, मगरमच्छ, कुलीपय, मेंढक, सुषिली, जहका, कोकिला, केकड़ा, गोलत्तिका, चील, क्वविनाम, गिरगिट, पपीहा, शकुनि, सेंबर, चिड़िया (शकुन्तिका), चींटी, शलभ (टिड्डी)।
इस प्रकार यजुर्वेद वाड्मय में अनेक पक्षियों तथा अन्य जीव जन्तुओं का उल्लेख है जो सृष्टि का सन्तुलन कायम रखते हैं तथा पर्यावरण की रक्षा करते हैं।
प्रकृति में एक खाद्य शृंखला निरन्तर चल रही है। यजुर्वेद के 24 वें अध्याय से भी यह बात स्पष्ट होती है। सभी पौधे तथा जन्तु वे चाहे किसी भी श्रेणी के हों मरते अवश्य हैं। मरे हुए पौधों व जन्तुओं को सड़ा गलाकर नष्ट करने का कार्य जीवाणु तथा कवक करते हैं। जीवाणु तथा कवकों को ‘अपघटक‘ कहा जाता है। ऊर्जा के प्रवाह को जब एक पंक्ति के क्रम में रखा जाता है, तो खाद्य शृंखला बन जाती है। जैसे हरे पौधे कीड़े-मकोड़े, सर्प, मोर, यह एक खाद्य शृंखला है। इसमें हरे पौधे उत्पादक, कीड़े प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता, मेंढक द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता, सर्प तृतीय श्रेणी का तथा मोर चतुर्थ श्रेणी का उपभोक्ता है। इसी प्रकार बहुत सी खाद्य शृंखलाएँ विभिन्न घटकों में पायी जाती हैं। ऊ र्जा का प्रवाह सूर्य से हरे पौधों में, हरे पौधों से प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं में, प्रथम श्रेणी से द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं में तथा फिर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के उपभोक्ताओं की ओर होता है। भारतीय संस्कृति में इसे ही ‘जीवो जीवस्य भोजनम्‘ कहा गया है।
पर्यावरण के संरक्षण में अपघटक अर्थात् जीवाणु और कवकों का अत्यधिक योगदान है। मरे हुए जीव-जन्तुओं को सड़ा गलाकर अपघटन का कार्य ये ही करते हैं। यदि ये अपघटक न रहे होते तो इस पृथ्वी पर मरे हुए जीवों के ढेर लगे दिखाई देते तथा यह पृथ्वी मनुष्य के रहने योग्य नहीं रह जाती।
अनेक जीव-जन्तु बिल्कुल अनुपयोगी तथा हानिकारक प्रतीत होते हैं। लेकिन उनका पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। जैसे कीडे-मकोड़े पौधों के तनों तथा पत्तियों को खाकर फसलों को बहुत हानि पहुँचाते हैं। ये पक्षियों का भोजन बनकर पक्षियों से फसल को सुरक्षित रखते हैं तथा पक्षी इन कीड़ों को खाकर कीड़ों से फसल की रक्षा करते हैं। इन कीड़ों के अभाव में पक्षी फसलों को अपेक्षाकृत अधिक हानि पहुँचा सकते हैं। इसी प्रकार सांप मनुष्य को बड़ा हानिकारक तथा खतरनाक दिखाई देता है।
परन्तु यह भी खाद्य शृंखला का एक महत्त्वपूर्ण अंग होने के कारण मानव जाति के लिए बहुत उपयोगी तथा किसानों का यह मित्र भी है। चुहा किसानों का शत्रु है जो बहुत मात्रा में अन्न को खाकर बर्बाद कर देता है। सांप, चुहों को खाकर उनकी संख्या को नियन्त्रित करता रहता है। यदि खेतोें में सांप न होते, तो चुहों की संख्या इतनी अधिक हो जाती कि ये सारी फसल को खा जाते। इसी प्रकार मेंढक, छिपकली आदि जीव मक्खी-मच्छरों को खाकर पर्यावरण के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। इस खाद्य शृृंखला को तोड़ने पर अर्थात् जीव-जन्तुओं को नष्ट करने पर मनुष्य को हानि है। रासायनिक पदार्थो का खेती में कीटनाश के लिए प्रयोग होने पर इसका परिणाम सामने आ भी रहा है। अनेक दुर्लभ पक्षी तथा जन्तुओं की प्रजातियाँ समाप्त हो गयी हैं तथा हो रही हैं।
इसी प्रकार जलीय खाद्य शृंखला भी होती है। शैवाल को छोटी मछलियाँ खाती हैं तथा छोटी मछलियों को बड़ी मछलियाँ खा जाती हैं। इस प्रकार मछलियों की संख्या नियन्त्रित रहती है। अन्यथा यदि छोटी मछलियों को बड़ी मछलियाँ न खाती तो मछलियों की संख्या बहुत अधिक बढ जाती। परिणामस्वरूप समुद्र में मछलियों की भीड़ हो जाती तथा समुद्र का पर्यावरण ही गड़बड़ा जाता।
अत: पर्यावरण की रक्षा के लिए सभी प्रकार के पक्षियों तथा अन्य जीव-जन्तुओं आदि का रहना आवश्यक है। आन्तरिक पर्यावरण को भी स्वस्थ एवं दृढ रखने के लिए पक्षियों का मानव मात्र बहुत आभारी है। प्राकृतिक सौन्दर्य की सूचना पक्षियों से मिलती है। संगीत जीवन में सुख या आनन्द की वर्षा में उपयोगी होता है । यह कोयल, मोर आदि से ही प्राप्त हुआ है। प्रदूषण मुक्त करने के लिए जहाँ काक पक्षी और श्वान पशु आवश्यक हैं, वहीं पारिस्थितिकी की दृष्टि से मयूर और अन्यान्य पक्षी भी महत्त्वपूर्ण हैं। गांव या अरण्य में विषैले कीड़ों को छिपकली मोर आदि खाकर हमारे सहायक ही होते हैं। इस प्रकार पर्यावरण के संरक्षण में पक्षियों तथा कीट-पतंगों का भी अभूतपूर्व महत्त्व है। हमें इनकी रक्षा करनी चाहिए जिससे पर्यावरण सुरक्षित रह सके।
सन्दर्भ सूची
193. यजुर्वेद संहिता 24.20
194. शतपथ ब्राह्मण 1.6.3.3-5,5.5.4-6
196. शतपथ ब्राह्मण 1.6.2.3,7.5.1.5
197. यजुर्वेद संहिता 24.34
198. शतपथ ब्राह्मण 9.1.2.20
199. यजुर्वेद संहिता 24.21
200. यजुर्वेद संहिता 24.38
201. शतपथ ब्राह्मण 11.2.6.13
202. यजुर्वेद संहिता 13.6
203. यजुर्वेद संहिता 13.7
204. यजुर्वेद संहिता 13.8 - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग - मार्च 2014) देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध