मनुष्य विश्वनिर्माता की अनुपम निर्मिति माना जाता है। ऐसा क्यों? क्या है उसमें ऐसी विशेषता पशु-पक्षी प्रभृति अन्य प्राणियों की अपेक्षा? उत्तर है- ‘धर्म’। खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना, जीना-मरना, सन्तानोत्पादन आदि क्रियाएँ तो मानव एवं मानवेतर जीवों में समान रूप से पाई जाती हैं। किन्तु धर्मचारिता एकमात्र ऐसी प्रकिया है जो मनुष्य में ही उपलब्ध होती है, अन्यत्र नहीं।
जिज्ञासा स्वाभाविक है कि ‘धर्म’ क्या होता है। इसकी सहज व सरल परिभाषा यही है कि धारयति इति धर्मः। जो धारण करता है वह धर्म है अथवा धार्यतेऽनेनेति धर्मः। जिसके द्वारा धारण किया जाता है वह धर्म है। अर्थात् वह शाश्वत तत्त्व या गुण जो प्रकृति के कण-कण में निरन्तर व्याप्त रहता हुआ, उसके विभिन्न पदार्थों की पृथक्सत्ता तथा पारस्परिक सम्बद्धता को बनाए रखता है। मानव में इस तत्व की अभिव्यक्ति मानवता के रूप में परिलक्षित होती है और इसी के आधार पर वह अभ्युदय से निःश्रेयस् तक पहुँच पाने में सफल हो जाता है। दूसरे शब्दों में ‘धर्म’ वह सनातन तत्त्व है जो मानव को मानवमात्र से जोड़ता तथा समरसता व सहृदयता के सेतु द्वारा अद्वैतसूत्र में समस्त मानवता को आबद्ध करता है। इस कसौटी पर रखकर देखें तो केवल हिन्दुत्व ही को हम ‘धर्म’ की संज्ञा दे सकते हैं, इस्लाम, क्रिश्चियनिटी अथवा किसी अन्य मत को नहीं। इन सबको हम ‘रिलिजन’ या ‘मजहब’ की श्रेणी में डाल सकते हैं, लेकिन ‘धर्म’ में नहीं। वहाँ तो निर्द्वन्द्व बोलबाला हिन्दुत्व ही का है।
हिन्दुत्व धृति-क्षमा-दम-अस्तेय-शौच- इन्द्रियनिग्रह आदि मानवीय गुणों पर आधारित होने के कारण मनुष्यों के लिए प्रतिपादित एक व्यापक मानवजीवन पद्धति है। संकुचित, संकीर्ण एवं समयाबद्ध होने की अपेक्षा वह समुदार, सर्वगत और सनातन है। व्यक्तिविशेष अथवा ग्रन्थविशेष से प्रतिबन्धित न होने की वजह से हिन्दुत्व मानवत्व का पर्याय बन गया है। यही है हिन्दुधर्म का परिचायक दर्शन जो अनादिकाल से हिन्दुस्तान के मूल निवासी आर्यों (हिन्दुओं) की अस्मिता, आत्मीयता तथा गरिमा का केन्द्र बिन्दु बना रहा है। इस हिन्दू धर्म ही की रक्षा के निमित्त हिन्दू वीरों एवं वीरांगनाओं ने सदा-सर्वत्र हँस-हँसकर नरमुण्डमालाएं अर्पित की हैं। राष्ट्रगौरव परित्राण के इस महायज्ञ में हिन्दू किशोर-किशोरियों की अनगिनत आहुतियाँ भी एक अछूता और अनूठा स्थान बनाए हुए हैं। प्रस्तुत पंक्तियों द्वारा एक ऐसे ही हिन्दूधर्म बलिदानी निर्भीक बालक की चर्चा करना अभीष्ट है।
पंजाब (पाकिस्तान) के प्रसिद्ध नगर स्यालकोट की धरती को यह गौरव प्राप्त है कि वहाँ के एक खत्री (क्षत्रिय) कुल में उस पुण्यात्मा ने जन्म लिया था। उसके पिता का नाम लाला भागमल पुरी तथा माता का नाम श्रीमती कौराँ था। वे नगर के दक्षिण में धारीवाल मुहल्ले में रहते थे। वहीं हकीकतराय नामक इस हिन्दुत्वनिष्ठ धर्मवीर बालक का सन् 1719 में जन्म हुआ था। उन दिनों मुस्लिम शासन की तूती बोल रही थी। राजभाषा फारसी थी। अतः व्यापार चलाने के लिए हकीकत को पिता ने एक मकतब में प्रवेश दिला दिया। वहाँ अधिकतर बालक मुसलमान ही थे। दूसरी ओर हकीकत अति विद्यारत एवं तीव्रमति था। इसलिए निसर्गतः वे हकीकत के प्रति परम ईर्ष्या-द्वेष का भाव रखते थे। उन दिनों बालविवाह की कुप्रथा के प्रचलित होने के कारण दस-ग्यारह वर्षीय बालक हकीकत का बटाला के श्री किशनसिंह की सुपुत्री कु. लक्ष्मीदेवी से विवाह कर दिया गया।
एक दिन मुल्ला जी की अनुपस्थिति में मुस्लिम बालकों ने हकीकत से छेड़छाड़ आरम्भ कर दी और दुर्गा के विषय में अपशब्द कह दिये। इस पर सबल, साहसी एवं स्वाभिमानी हकीकत ने उनसे दृढ़तापूर्वक कहा कि या तो अपने अपशब्दों को वापस लें,अन्यथा यही अपशब्द फातिमा बीबी के लिए भी प्रयोग किए जा सकते हैं। इस कारण वे सब हकीकत पर टूट पड़े और उसकी पिटाई कर दी। फिर एक की दो लगाते हुए उन्होंने मुल्ला जी से उसकी शिकायत भी कर दी।
समस्या की गम्भीरता को भाँपते हुए मुल्ला जी ने झगड़ा नगर के हाकिम को पहुँचा दिया। उसने स्थानीय मौलवी-काजियों से इस विषय में फतवा (निर्णय) माँगा। उन्होंने निर्णय दे दिया कि ‘इस्लाम या मौत’। हकीकत द्वारा इस्लाम मत अस्वीकार कर देने पर उसे बन्दी बना लिया गया। उधर हाकिम ने मसले की नजाकत को देखते हुए उसे लाहौर के नाजिम के पास भेज दिया, जिसने अभियोग को आगे मुख्य काजी को सौंप दिया। उसने भी हकीकत की सजा बहाल रखी।
अब नाजिम निरुपाय हो गया था। फिर भी उसने हकीकत से आग्रहपूर्वक कहा कि “इस्लाम स्वीकार करके अपनी जान बचा लो। मैं अपनी बेटी का निकाह भी तुम्हारे साथ कर दूँगा और एक उन्नत पद पर तुम्हें नियुक्त कर दूँगा।’’ किन्तु हकीकत था कि टस-से-मस नहीं हो रहा था। उसे न जीवन से मोह था,न मृत्यु से भय, न माता-पिता से बिछुड़ने का शोक, न बड़े-से-बड़े प्रलोभन का आकर्षण। वह हिन्दू धर्म पर अचल और अडिग था। उसे छोड़ने के लिए उसने अन्तिम सुदृढ़ एवं सुस्पष्ट ‘न’ कर दी। इस पर विवश होकर नाजिम ने हकीकत की हत्या का आदेश दे दिया। बसन्त पंचमी का दिन था- भारतीय महोत्सव का पर्व- जब हकीकत को मृत्यु के लिए वधशाला ले जाया जा रहा था। सारे लाहौर में हाहाकार मचा हुआ था। सभी हिन्दू स्तब्ध और क्षुब्ध थे। महाबलिदान की पुनीत बेला आखिर आ ही पहुँची। नन्हें और निरपराध पन्द्रह वर्षीय बालक ने तीन बार हिन्दू धर्म का जयकारा लगाया और अगले ही क्षण उसका सुन्दर मुस्कान भरा मुखड़ा कोमल तन से अलग जा गिरा।
हिन्दुओं ने लाहौर से तीन-चार मील दूर रावी नदी के तट पर कोट खोजेशाह के क्षेत्र में उस अमर बलिदानी की समाधि बना दी। अन्त्येष्टि संस्कार शालीमार बाग के निकट किया गया। हकीकत के नश्वर देह की कुछ राख स्यालकोट में लाई गई और वहाँ उसके घर के पास भी एक समाधि बनाई गई। जैसे ही हकीकत के वीरगति पाने का समाचार बटाला पहुँचा, तो ससुराल का नगर भी शोकमग्न हो गया। उसकी अबोध वधू पर तो जैसे पहाड़ ही टूट गया। वह खूब रोई-धोई, परन्तु संभली और अगले पग का निश्चय किया। सुन्दर-सी-चिता बनवाई तथा पति-परमेश्वर का ध्यान किया और चिता में कूदकर जीवन आहूत कर दिया। नगर के बाहर लक्ष्मी की भी समाधि बना दी गई, जहाँ प्रतिवर्ष मेला लगा करता था। मेला हकीकत की समाधि पर भी देश विभाजन से पूर्व हर साल लगा करता था, जब सहस्त्रोें लाहौरवासी बसन्तपंचमी के दिन रावी के किनारे एकत्रित होकर उसे अपने श्रद्धासुमन अर्पित किया करते थे। यही मेला अब ’हिन्दू महासभा भवन’ मन्दिर मार्ग नई दिल्ली स्थित धर्मवीर हकीकतराय की प्रतिमा पर बसंत पंचमी को लगता है।
वस्तुतः हकीकत के बलिदान से बसन्तपंचमी का पर्व वीरपर्व भी बन गया है। बसन्त चोला अब शहीदी परिधान बन चुका है। ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला’ तो क्रान्तिकारियों का सतत प्रेरक-प्रोत्साहक प्रियगान बना रहा, किन्तु क्या इसी से हम सन्तुष्ट होकर बैठ जाएँ? क्या इतने भर से हम हकीकत का ऋण चुका पाएँगे? आज हिन्दू का हाल क्या है? उसकी स्थिति हकीकत कालीन परिवेश से कहीं अधिक दयनीय, शोचनीय व संकटापन्न है। पहले हिन्दुओं की लड़ाई विदेशियोें से थीं, अब उन्हें अपने ही भाइयों के भीतरघात से लड़ाई करनी पड़ रही है। पहले जयचन्द, मानसिंह और जयसिंह इक्के-दुक्के होते थे, अब पग-पग पर राष्ट्रवादियों को इनसे जूझना पड़ रहा है। अन्य लोग जहाँ निरन्तर इतिहास से शिक्षा ग्रहण करके अधिक संगठित, केन्द्रित और सशक्त बनते रहे, वहाँ हिन्दू इतिहास की अनदेखी करके लगातार विगठित, विकेन्द्रित और निश्शक्त बनते रहे।
आज धर्म-निरपेक्षता के छलावे के नाम पर ’अल्पसंख्यक’ तथा ’बहुसंख्यक’ इन दो वर्गों में पदलोलुपों ने देश को बाँट दिया है। हर कोई ‘अल्पसंख्यक’, ’अनुसूचित जाति’ वा ‘जनजाति’ का लेबल लगवाने की बेतहाशा होड़ में है और हिन्दू होते हुए भी ‘हिन्दू’ नाम से कोसों दूर भागता है। अब समय आ गया है कि हम सब कुछ भुलाकर अपने आपको केवल हिन्दू ही समझें और निःस्वार्थ होकर सभी हिन्दू संगठित प्रयास करें। आइए! इस वसन्त पञ्चमी को हम इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कृतप्रतिज्ञ एवं वज्रसंकल्पी बन धर्मवीर हकीकत के अमर बलिदान के प्रति अपना दायित्व निभाएं। - ब्रह्मदत्त वात्सल्यायन
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