विशेष :

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु

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भारतीय स्वातन्त्र्य समर में क्रान्ति के प्रेरक पथ के अनुगामी बने क्रान्तिधर्मी युवा स्वातन्त्र्य साधकों में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की त्रिमूर्ति को अग्रगण्य स्थान प्राप्त है। इन युवकों ने अन्धानुकरण करते हुए नहीं अपितु तर्क, इतिहास और मानव स्वभाव के पथ खोजी प्रकाश में अपने पथ का निर्धारण किया था। ब्रिटिश सत्ता द्वारा दासता की शृंखलाओं में आबद्ध अपनी मातृभूमि हिन्दुस्थान की दयनीय दशा ने उन्हें उद्वेलित किया था और उन्होंने इस अनुभूति से प्रेरित होकर क्रान्ति पथ का अवलम्बन किया था कि तेरा वैभव अमर रहे माँ! हम दिन चार रहें न रहें।

भारतीय स्वातन्त्र्य समर में क्रान्तिपथ के अनेक पथिकों को स्वाधीनता संग्राम के महान पुरोधा वीर विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित 1857 का ‘भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ इस इतिहास ग्रन्थ ने योगेश्‍वर श्रीकृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र की समरभूमि में दिए गए उपदेश (गीता) के तुल्य ही कर्तव्य पथ पर आरूढ़ होने की प्रेरणा दी थी। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु इस त्रिमूर्ति ने ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपल्बिकन आर्मी’ के नाम से गठित क्रान्तिकारी संगठन के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता विरोधी गतिविधियों का संचालन किया था। इस संगठन का पूर्व नाम ’हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन’ था। भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद की प्रेरणा पर ही इस संगठन को नया नाम दिया गया था।

वीराग्रणी भगतसिंह को राष्ट्रभक्ति और स्वातन्त्र्य साधना की राह पारिवारिक संस्कारों से ही मिली थी। उनके केशधारी पिता सरदार किशनसिंह और चाचा सरदार अजीतसिंह भी स्वाधीनता संग्राम के सक्रिय सेनानी थे। सरदार किशनसिंह ने अपने सुपुत्र सरदार भगतसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न कराया था और देव दयानन्द के चिन्तन-दर्शन से भी उन्हें परिचित कराया था। क्रान्ति यज्ञ के एक और पुरोधा देवतास्वरूप भाई परमानन्द के श्रीचरणों में छात्र के रूप में बैठकर भी वीरवर भगतसिंह ने स्वातन्त्र्य हेतु क्रान्ति के प्रेरक पथ के अनुगमन की प्रेरणा पाई थी, तो पंजाब केसरी लाला लाजपतराय के प्रति भी उनके मन में अनन्य निष्ठा का भाव था। सुखदेव और राजगुरु भी क्रान्ति पथ पर भगतसिंह के सहयात्री थे। ये तीनों ही ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ के सक्रिय सदस्य थे। लाहौर में साइमन कमीशन के बहिष्कार का जनता से आह्वान करने हेतु निकले जलूस के दौरान पुलिस द्वारा लाला लाजपतराय के विरुद्ध की गयी हिंसक कार्रवाही का प्रतिशोध लेने का संकल्प ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ से सम्बन्धित इन क्रान्तिकारी युवकों ने ग्रहण किया था। पुलिस अधिकारियों में से एक साण्डर्स को दिसम्बर 1928 में भगतसिंह और शिवहरि राजगुरु ने गोलियों का निशाना बनाकर लाला लाजपतराय के साथ पुलिस द्वारा बरती गयी हिंसा का प्रतिशोध लेने का अपना संकल्प पूर्ण किया था। इस क्रान्तिकारी दल से सम्बद्ध अमर हुतात्मा चन्द्रशेखर आजाद इस काण्ड के बाद भूमिगत हो गए थे। परन्तु साथ ही साथ वह अपने सहयोगियों के सफल मार्गदर्शन के व्रत का भी पूर्ण निष्ठा सहित पालन करते रहे थे। वह अपने सहयोगियों से वेश बदलकर मिलते भी रहते थे। इसी व्यवहार क्रम में एक दिन ऐसा अवसर भी आ गया, जब पुलिस ने चन्द्रशेखर आजाद को पहचान लिया। तदुपरान्त हुई गोलीबारी में चन्द्रशेखर आजाद ने अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी ओर वे सदा-सर्वदा के लिए अमरत्व प्राप्त कर गए।

साण्डर्स की हत्या के बाद से राजगुरु फरार होकर पुणे जा पहुंचे ते। वहाँ वे एक कोड नाम (एम) के तहत भूमिगत गतिविधियों में संलग्न रहे। परन्तु 30 सितम्बर 1930 को पुणे में वह लाहौर षड्यन्त्र काण्ड के सिलसिले में बन्दी बना लिए गए। उनके साथ श्रीराम सावरगांवकर और दत्तात्रेय बलवन्त करण्टीकर भी थे। इन सभी को बाद में सजाएं भी हुई।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु इन तीनों युवा क्रान्तिकारियों को लाहौर षड्यन्त्र काण्ड में सहभागी होने के आरोप में 23 मार्च, 1931 को लाहौर में मृत्युदण्ड दिया गया। वध स्तम्भों पर ये तीनों क्रान्तिकारी युवक प्रसन्नमना झूल गए। इस त्रिमूर्ति की नश्‍वर काया ने अनश्‍वर वीरत्व का वरण कर इतिहास में अपना नाम सदा के लिए अंकित करा दिया।

उनके बलिदान से प्रेरणा प्राप्त कर अनेक युवकों ने क्रान्तिपथ का अवलम्बन किया। स्वतन्त्र भारत की युवा पीढ़ी को इस त्रिमूर्ति का जीवनदान शाश्‍वत प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। उनकी बलिदान तिथि के अवसर पर उनका पुण्य स्मरण जहाँ हर राष्ट्रभक्त का कर्त्तव्य है, वहीं यह अवसर राष्ट्र को सबल, सुदृढ़ और समृद्ध तथा अजेय बनाने के लिए अपनी समग्र क्षमता के उपयोग का भी संकल्प लेने का भी है। - दिव्या आर्या

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