स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन का गम्भीरता से विश्लेषण करने पर यह जानकर हार्दिक वेदना होती है कि अधिकांश विश्लेषकों ने उनके जीवन के वास्तविक पक्ष को यथातथ्य रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत न करके एकांगी पहलू को ही (सम्भवतः राजनीतिक कारणों से) प्रदर्शित किया। ऐसे महानुभावों को तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं डॉ. अंसारी, हकीम अजमल खाँ के साथ जामा मस्जिद के मिम्बर तथा गुरु का बाग गुरुद्वारा (अमृतसर) में दिये गये उनके अमर तथा प्रभावशाली उपदेशों की वास्तविक जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
स्वामी श्रद्धानन्द देश की उन्नति के मार्ग में तीन प्रमुख बाधाएं मानते थे। अशिक्षा, जाति-पाँति तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता का अभाव। इन्हीं दुर्दान्त समस्याओं के समाधान के लिये उन्होंने अपना समस्त जीवन होम दिया। अशिक्षा को दूर करने के लिये डी.ए.वी. कॉलिज तथा गुरुकुलों द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति तथा ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाने की दिशा में सफल एवं सशक्त प्रयास किया। इन संस्थाओं में (विशेषकर गुरुकुलों में) तुलनात्मक धर्म तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति तथा पुरातत्व को अध्ययन का विषय बनाकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का भी हिन्दी के माध्यम से सूत्र पात किया। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली और उसकी सफलता का तो देश में ही नहीं विदेशों में भी चमत्कारिक प्रभाव हुआ। यही कारण था कि बर्मा, फिजी, मॉरीशस आदि देशों से भी अनेक छात्र गुरुकुल (कांगड़ी) में प्रविष्ट हुए।
यदि स्वामी जी के राजनीतिक जीवन पर दृष्टिपात करें तो यह तथ्य स्पष्ट होता है कि प्रत्यक्षतः उनका राजनीतिक जीवन प्रायः तीन वर्ष की अवधि का ही है। परन्तु इस अल्पकाल में किये गये उनके अभूतपूर्व ऐतिहासिक कार्य स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। स्वामी श्रद्धानन्द का ही निर्भीक सीना था जो भारतीय आजादी की ज्योति को प्रज्ज्वलित करने के लिये तिल-तिल कर जला। स्वामी श्रद्धानन्द का ही निष्पक्ष, साहसी और शौर्यपूर्ण पवित्र जीवन था,जिससे प्रभावित होकर तत्कालीन धार्मिक मुस्लिम तथा सिक्ख नेताओं ने विश्व-विख्यात जामा मस्जिद (दिल्ली) तथा गुरु का बाग गुरुद्वारा (अमृतसर) की पवित्र वेदियों से आग्रहपूर्वक उनके उपदेश कराये। स्वामी श्रद्धानन्द का ही देशभक्ति पूर्ण अद्भुत साहस था, जिससे उन्होंने गोरखा संगीनों के सामने बेधड़क होकर वक्षस्थल तान दिया। स्वामी श्रद्धानन्द की ही अलौकिक प्रचण्ड प्रेरणा थी, जिसने जलियाँवाले बाग के बर्बर अमानुषिक हत्याकाण्ड के भयानक परिणाम का आभास होते हुए भी अमृतसर में कांग्रेस के अधिवेशन का भार सहर्ष अपने कन्धों पर लेना स्वीकार किया। देश को सुविधा देने के स्थान पर क्या मिला?
भारत ने बलिदान किया था,
बदला उसका यों फिर पाया।
रौलट एक्ट भेंट में देकर,
बन्दूकों का बटन दबाया॥
गली गली में फौजी शासन,
घर-घर में थी पुलिस लगा दी।
बूटों का निर्घोष पथों पर,
जनता की आवाज दबा दी॥
इतिहास साक्षी है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने मौत के उस भयाकुल साये में भी पंजाब में अद्भुत जागृति उत्पन्न की। कांग्रेस का अधिवेशन हुआ है और शान से हुआ।
अमृतसर कांग्रेस स्वागत समिति के अध्यक्ष की हैसियत से स्वामी जी ने जो भाषण दिया था उसकी प्रशंसा में महात्मा गान्धी ने यंग इण्डिया में लिखा था- “स्वागत समिति के अध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द का भाषण उच्चता, पवित्रता, गम्भीरता और सच्चाई का नमूना था। वक्ता के व्यक्तित्व की छाप उसमें आदि से अन्त तक लगी हुई थी। अमृतसर में कांग्रेस की वह महान सफलता स्वामी जी के महान व्यक्तित्व की महान विजय थी।’’
स्वामी जी की मातृभाषा पंजाबी थी। उनकी आरम्भिक शिक्षा उर्दू-फारसी में हुई। वकालत के लिए उन्होंने अंग्रेजी का दामन पकड़ा। लेकिन अपने गुरु महर्षि दयानन्द के आदेशानुसार हिन्दी को सर्वोपरि महत्व प्रदान किया। वैदिक ग्रन्थों को समझने के लिये संस्कृत में भी निपुणता प्राप्त की। आपकी हिन्दी सेवा से प्रभावित होकर भागलपुर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन का आपको सर्वसम्मति से सभापति चुना गया।
आपने ही महात्मा गांधी को भी हिन्दी में पत्र-व्यवहार की सलाह दी थी, जिसे उन्होंने सहर्ष शिरोधार्य किया था। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि सम्मेलन के सभापति पद से दिये गये भाषण में आपने ही सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिये ‘मातृभाषा’ शब्द का प्रयोग किया था। कितने हिन्दी भाषी हैं जो इस वास्तविकता से परिचित हैं? अमृतसर कांग्रेस स्वागताध्यक्ष के नाते भी आपने अपना भाषण राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही दिया था, इस प्रकार हिन्दी को राष्ट्रीय महासभा में मञ्च पर अधिष्ठित करने का सर्वप्रथम श्रेय और गौरव आपको ही प्राप्त है।
दूसरे सभी सम्प्रदायों के प्रति उनके हृदय में निरन्तर सद्भावना व प्रेम के भाव विद्यमान थे। उन्हीं के शब्दों में- “गुरुकुल में रहते हुए मैंने सब विचारों के सभ्य पुरुषों का उदारता के साथ स्वागत तथा सम्मान किया। श्री भारती कृष्ण तीर्थ जी गुरुकुल मे अपनी पूजा करते रहे। मुसलमान भाइयों ने गुरुकुल में अपनी पाँच बख्ता नमाज आनन्द से अदा की। वहाँ ईसाई पादरियों को भी अपने मतानुसार उपासना की पूरी छूट थी। मैं जिस समाज के धर्म मन्दिर में जाता हूँ, वहाँ उनसे भी बढ़कर मन्दिरों का मान करता हूँ। पुरानी मुसलमानी मजारों में जहाँ मुसलमान स्वयं जूता पहने चले जाते हैं, मैं वहाँ (सम्मानार्थ) नंगे पैरों जाता हूँ।’’
जामा मस्जिद के भाषण के सम्बन्ध में कवि के उद्गार देखिए-
जामा मस्जिद की वेदी पर खड़ा हुआ संन्यासी।
मक्का और मदीना के संग जैसे मथुरा-काशी॥
यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि पंजाब में ब्रिटिश दमन चक्र के बाद दिल्ली में लगभग बीस दिन पूर्णतः रामराज्य का सुखद दृश्य देखने को मिला। हिन्दू-मुस्लिम एकता का ऐसा पावन वातावरण अब तो स्वप्नवत् प्रतीत होता है। एक आस्ट्रेलियन विद्वान के शब्द देखिए-
For full twenty days it appeared that Ram Raj has set in.... Goodness had ceased to exist every Hindu woman was treated like his own mother, sister or daughter by every MUSALMAN and vise versa. (J.T.F. Swami Shradh an and his life & causes P.111)
उन बीस दिनों की यह स्थिति थी-
हर हिन्दू बेटी माता थी बहिन मुसलमानों की।
हर मुस्लिम नारी पूज्या थी हिन्दू अरमानों की॥
उन दिनों तो दिल्ली की हर गली में एक ही ध्वनि गूंजती थी- श्रद्धानन्द की दिल्ली, अजमल खां की दिल्ली।
सन् 1915 में गांधी जी बिना किसी पूर्व सूचना के एकाएक गुरुकुल में पधारे। वहाँ आते ही उन्होने महात्मा मुन्शीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द) के चरण स्पर्श कर उन्हें सादर प्रणाम किया। कर्मवीर गान्धी के इस हार्दिक प्रेम को देखकर कुलवासी गद्गद् हो उठे। वहीं 8 अप्रैल 1915 को गुरुकुलवासियों की ओर से गान्धी जी का विशेष अभिनन्दन किया गया। यह परम उल्लेखनीय है कि आज गान्धी जी जिस महात्मा शब्द से जगत् विख्यात हैं उस ’महात्मा’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आपके लिये गुरुकुल की ओर से दिये गये इसी मानपत्र में किया गया था। भ्रम तथा अज्ञानवश अनेक चापलूस व्यक्ति गान्धी जी के साथ ‘महात्मा’ विशेषण लगाने का श्रेय अन्य लोगों को देते हैं, जो सर्वथा गलत तथा तथ्यहीन है।
वह समय ऐसा था जब प्रथम श्रेणी के नेतागण त्याग, परिश्रम तथा सेवा के आधार पर एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ करते थे। 1917 में जब महात्मा मुंशीराम संन्यास लेकर श्रद्धानन्द बने तो उनके अभिन्न साथी लाला लाजपतराय ने कहा था- “मुझसे आगे निकल गया।’’ और जब 23 दिसम्बर 1926 को उनका बलिदान हुआ तो पंजाब केसरी के उद्गार थे- “कम्बख्त यहाँ भी मुझसे बाजी मार ले गया।’’ लेकिन किसी को क्या पता था कि दो वर्ष बाद उस नर केसरी का बलिदान भी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जायेगा। भावी को कौन जान सकता है?
स्वामी श्रद्धानन्द के रोम-रोम में देश को स्वतन्त्र कराने की इतनी तीव्र ललक थी कि अपने तन, मन, धन से सींचे गुरुकुल तथा आर्यसमाज के कार्य को भी वे अपेक्षाकृत गौण समझने को बाध्य हुए। महात्मा गान्धी द्वारा संचालित स्वातन्त्र्य संग्राम में सम्मिलित होने के लिए उन्होंने आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के तत्कालीन प्रधान लाला रामकृष्ण जी को जो पत्र लिखा था उसे यहाँ अविकल रूप से उदृत किया जा रहा है-
“25 सितम्बर 1920, गुरुकुल
श्रीमान लाला रामकृष्ण जी, प्रधान आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब, नमस्ते। इस समय मेरी सम्मति में ‘असहयोग’ की व्यवस्था के क्रियात्मक प्रचार पर ही मातृभूमि के भविष्य का निर्भर है। यदि यह आन्दोलन अकृत कार्य हुआ और महात्मा गान्धी को सहायता न मिली तो देश की स्वतन्त्रता का प्रश्न पचास वर्ष पीछे जा पड़ेगा। यह जाति के जीवन मृत्यु का प्रश्न हो गया है। इसलिए मैं इस काम में शीघ्र ही लग जाऊँगा। यदि आपकी सम्मति में इस काम में लगने के लिये मुझे गुरुकुल व आर्यसमाज के अन्य कामों से अलग हो जाना चाहिए, तो जैसा पत्र आप तजबीज करेंगे, मैं पब्लिक में भेज दूँगा। मैं इस कार्य से रुक नहीं सकता। मुझे यह काम इस समय सर्वोपरि दीखता है। ......आपका श्रद्धानन्द!’’
इस पत्र से स्वयं ही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्वामी श्रद्धानन्द के हृदय में आजादी की आग किस प्रकार धधक रही थी।
स्वामी श्रद्धानन्द की कार्यप्रणाली से किसी को मतभेद हो सकता है, किन्तु उनकी भावना तथा देशभक्ति चाँदनी की तरह उज्ज्वल तथा गंगाजल की तरह निर्मल थी। उनका समस्त जीवन एक खुली पुस्तक थी। इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमन्त्री मैक्डॉलन को महात्मा मुन्शीराम में ईसा की मूर्ति का आभास हुआ था। दलित समुदाय उन्हें अपना उद्धारक मानता था। हिन्दू-मुस्लिम एकता के वे मसीहा थे। देशभक्ति उनकी रग-रग में व्याप्त थी। राष्ट्रभाषा हिन्दी को उन्होंने वैज्ञानिक शिक्षा का माध्यम बनाया। स्वतन्त्रता की तड़प उन्हें बैचेन करती थी। देश में व्याप्त अशिक्षा तथा जाति-पाँति की स्थिति उनके हृदय को झकझोरती थी। गोखले, गान्धी, ऐण्ड्रूज, लाजपतराय, मालवीय, मोतीलाल, अंसारी तथा अजमल खाँ आदि शीर्ष पुरुष उन पर विश्वास करते थे।
यद्यपि किन्हीं भी दो महापुरुषों के जीवन की तुलना करना सरल कार्य नहीं है। किन्तु यदि स्वामी श्रद्धानन्द तथा महात्मा गान्धी की तुलना करें तो काफी समानता मिलेगी। दोनों का बचपन मस्ती तथा लापरवाही में बीता। समय के झकोरों के साथ दोनों ने जीवन के लक्ष्य को जाना। सेवाभाव दोनों का ही चरम लक्ष्य था। हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा अछूतोद्धार के दोनों ही प्रबल समर्थक थे। देश की स्वतन्त्रता के लिये दोनों ही कटिबद्ध थे। दोनों ही सत्य, सदाचार तथा अहिंसा के पुजारी थे। मतभेद होने पर भी दोनों में मनभेद कभी नहीं हुआ। और विधि का विधान देखिए दोनों का अमर बलिदान भी पिस्तौल की गोलियों द्वारा सीने पर वार होने से ही हुआ। अन्तर केवल यह था कि एक को अन्ध मजहब की कटुता का शिकार होना पड़ा, और दूसरे को ओछी राजनीति का।
हम इस लेख का उपसंहार करते हुए महात्मा गान्धी के उन अभूतपूर्व शब्दों का उल्लेख करेंगे जो उनकी वाणी से नहीं हृदय से प्रकट हुए थे। हमारी सम्मति में यह एक महात्मा की दूसरे महात्मा के प्रति ऐसी रोमांचकारी श्रद्धांजलि है, जिसके विषय में केवल यही कहा जा सकता है- ‘न भूतो भविष्यति।’
स्वामी जी के बलिदान के सम्बन्ध में महात्मा गान्धी ने ये उद्गार प्रकट किये थे- “स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन भी शानदार था और मृत्यु भी शानदार। वे जब तक जीवित रहे शहीद का जीवन व्यतीत करते रहे। मृत्य ने उनकी शहादत को चार चाँद लगा दिये। दुनिया में ऐसे बहुत लोग हुए हैं जिनका जीवन शहीदों का था, किन्तु जिन्हें शहीदों की मृत्यु प्राप्त नहीं हुई। ऐसे लोग भी हुए हैं जिनकी मृत्यु शहीदों की थी, किन्तु उनका जीवन शहीदों का नहीं था। परन्तु स्वामी श्रद्धानन्द को यह श्रेय प्राप्त है कि वे जीवित भी शहीद थे और मृत्यु की दृष्टि से भी। ऐसी महान् आत्मा की मृत्यु पर कौन अपनी श्रद्धा भेंट न करेगा?’’
उस अमर हुतात्मा की पुण्यतिथि पर हमारी विनम्र हार्दिक श्रद्धाञ्जलि। - डॉ. सहदेव वर्मा
Amar Hutatma Swami Shradhhanand | Maharshi Dayanand Saraswati | Swamiji | Creed | Worship | Swarajya | Indian National Congress | Hinduism | Indian Nationalism | Sanatan | Mandir | Prachin Itihas | Hindusm | Manushya | Evils | Dharm | Karm | War | India |