श्री रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ बड़े होनहार नौजवान थे। वे गजब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुन्दर थे। योग्य बहुत थे। जानने वाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह या किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो वे सेनाध्यक्ष बनते। आपको पूरे षड्यन्त्र का नेता माना गया है। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे, लेकिन फिर भी पण्डित जगतनारायण जैसे सरकारी वकील की सुध-बुध भुला देते थे। चीफ कोर्ट में अपनी अपील खुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ाकि इसे लिखने में जरूर ही किसी बहुत बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है।
19 दिसम्बर 1927 की शाम को आपको फांसी दी गयी। 18 की शाम को जब आपको दूध दिया गया तो आपने यह कहकर इन्कार कर दिया कि अब मैं माँ का दूध ही पीऊँगा। 18 को आपकी मुलाकात हुई। माँ के आने पर आपकी आँखों से अश्रु बह चले। माँ बहुत हिम्मत वाली देवी थी। आपसे कहने लगी हरिश्चन्द्र, दधीचि आदि बुजुर्गों की तरह वीरता, धर्म व देश के लिए जान देते हुए घबराओ मत। रामप्रसाद बिस्मिल ने उस समय माँ से कहा-, “चिन्ता और पछतावा मुझे नहीं है माँ। मैंने कोई पाप नहीं किया। मैं मौत से नहीं डरता। लेकिन माँ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है। तेरा-मेरा सम्बन्ध ही कुछ ऐसा है कि पास होते ही आँखों में अश्रु उमड़ पड़े। नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ।’’ “फांसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा ‘वन्देमातरम्, भारत माता की जय’ और शान्ति से चलते हुए कहा-
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्र यार, तेरी जुस्तजू रहे।’
फांसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा -मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ। फिर यह शेर पढ़ा-
अब न अहले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़।
एक मिट जाने की हसरत, अब दिले-बिस्मिल में है।
फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और फिर एक मन्त्र पढ़ना शुरु किया। रस्सी खींची गयी। रामप्रसाद जी फांसी पर लटक गये। आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेजी सरकार ने अपना खौफनाक दुश्मन समझा। आम ख्याल यह है कि उसका कसूर यही था कि वह गुलाम देश में जन्म लेकर भी एक बड़ा भारी बोझ बन गया था और लड़ाई की विद्या से खूब परिचित था।
आपको मैनपुरी षड्यन्त्र के नेता श्री गेन्दालाल दीक्षित जैसे शूरवीर ने विशेष तौर पर शिक्षा देकर तैयार किया था। मैनपुरी के मुकदमे के समय आप भागकर नेपाल चले गये थे। अब वही शिक्षा आपकी मृत्यु का एक बड़ा कारण हो गयी। 7 बजे आपकी लाश मिली और बड़ा भारी जुलूस निकला। स्वदेश प्रेम में आपकी माता ने कहा- “मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु पर प्रसन्न हूँ, दुःखी नही। मैं श्री रामचन्द्र जैसा ही पुत्र चाहती थी। बोलो श्री रामचन्द्र की जय।’’
इत्र-फुलेल और फूलों की वर्षा के बीच उनकी लाश का जुलूस जा रहा था। दुकानदारों ने उनके ऊपस से पैसे फेंके। 11 बजे आपकी लाश श्मशान भूमि में पहुँची और अन्तिम क्रिया समाप्त हुई।
आपके पत्र का आखिरी हिस्सा प्रस्तुत है- “मैं खूब सुखी हूँ। 19 तारीख को प्रातः जो होना है उसके लिए तैयार हूँ। परमात्मा काफी शक्ति देंगे। मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिए फिर जल्द ही जन्म लूंगा। सभी से मेरा नमस्कार कहें। दया करके इतना काम और भी करना कि मेरी ओर से पण्डित जगत्नारायण (सरकारी वकील जिसने इन्हें फांसी लगवाने के लिए बहुत जोर लगाया था) को अन्तिम नमस्कार कह देना। उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों से चैन की नीन्द आये। बुढ़ापे में ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।’’
रामप्रसाद जी की सारी हसरतें दिल ही दिल में रह गयीं। फांसी से दो दिन पहले से सी.आई.डी. के मि. हैमिल्टन आपकी मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो, आपको पांच हजार रुपया नकद दे दिया जायेगा और सरकारी खर्च पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जायेगी। लेकिन आप कब इन बातों की परवाह करते थे। आप हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी-कभार जन्म लेने वाले वीरों में से थे। मुकदमे के दिनों आपसे जज ने पूछा था, “आपके पास क्या डिग्री है?’’ तो आपने हंसकर जवाब दिया था, “सम्राट बनने वालों को डिग्री की कोई जरूरत नहीं होती, क्लाइव के पास भी कोई डिग्री नहीं थी।’’ आज वह हमारे बीच नहीं है। आह!!
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