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उन्नति के शिखर पर क्रमिक आरोहण

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स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन अधःपतन के गहरे गर्त से निकलकर सार्थकता के सर्वोच्च सोपान पर चढ़ जाने की एक गौरवमयी कथा है। अपनी किशोर और युवा अवस्था में चारित्रिक पतनों की विभीषिकाओं ने उन्हें समय-समय पर त्रस्त और भयभीत तो किया, किन्तु उन पर विजय प्राप्त करने की उनकी चेष्टायें भी निरन्तर चलती रहीं और अन्ततः पर्याप्त प्रयास के पश्‍चात् ही सही, वे अपनी इन क्षुद्र इन्द्रियजन्य दुर्बलताओं को नियन्त्रित कर सके। उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन तब आया जब बरेली में उन्हें ऋषि दयानन्द के तेजःपूत, ब्रह्मचर्य की गरिमा से उद्दीप्त, लोकहित के प्रति पूर्णतया समर्पित, सत्य और धर्म के लिए सर्वथा संकल्पित व्यक्तित्व को जानने का अवसर मिला।

यूरोप के प्रखर चिन्तकों और तार्किक दार्शनिकों के विचारों के रंग में रंगे मुन्शीराम को प्रथम बार ज्ञात हुआ कि भारत का यह साधु जो सर्वथा निरासक्त जीवन व्यतीत करते हुए भी समाज और राष्ट्र के कल्याण की कामना करता है तथा लोगों के बौद्धिक क्षतिज के विस्तार के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है, कोई काम की बात कह सकता है। अन्यथा दयानन्द की वक्तृता सुनने से पहले तक तो उसे विश्‍वास ही नहीं था कि भारत का भिक्षोपजीवी संन्यासी वर्ग भी कोई अक्ल की बात करता है।

दयानन्द का यह सम्पर्क ही मुन्शीराम के जीवन को पतन की कारा से मुक्त करा सका और उसके पश्‍चात् उनकी जीवनधारा जिस दिशा की और उन्मुख हुई उससे वे निरन्तर श्रेय साधना में ही लगे रहे। श्रद्धानन्द का जीवन श्रद्धा और विश्‍वास के दो सूत्रों से सतत ओतप्रोत रहा। जिन नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में उनकी आस्था रही, उनको स्वयं में लाने तथा अन्यों में प्रचारित करने में वे सदा तत्पर रहे। इसी प्रकार जिन विचारों और कार्यक्रमों के प्रति उनकी आस्था समाप्त होती गई उनको त्यागने में भी उन्हें संकोच नहीं हुआ। लाहौर में रहते समय वे ब्रह्मसमाज तथा आर्यसमाज के प्रति समान रूप से आकर्षण का अनुभव करते थे, किन्तु जब अपनी पुनर्जन्म विषयक जिज्ञासा का समाधान उन्हें सत्यार्थप्रकाश में मिला तो वे दयानन्दीय विचारधारा के प्रति पूर्णतया अनुरक्त और समर्पित हो गये तथा अपने शेष जीवन को आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में ही लगा दिया।

सार्वजनिक जीवन- श्रद्धानन्द का सार्वजनिक जीवन निरन्तर विवेकशील रहा। किन्तु उनका केन्द्र बिन्दु आर्यसमाज ही था जो धर्म, समाज और राष्ट्र के कल्याण के साथ विराट् मानव हित जैसे लोकोत्तर आदर्श को लक्ष्य बनाकर जनमानस को आन्दोलित और प्रभावित करता था। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक में वे अपने जन्म प्रान्त पंजाब की आर्यसामाजिक गतिविधियों के सूत्रधार बने रहे। जालन्धर के प्रधान पद पर रहकर उन्होंने धर्म प्रचार की मस्ती को अनुभव किया तथा अपने आचार्य देव के स्वप्नों को सार्थक बनाने हेतु अधिकतम त्याग, परिश्रम, अध्यवसाय और पुरुषार्थ का जीवन जीया। लाहौर के उनके सामाजिक जीवन ने उन्हें आर्यसमाज के एक दल के गौरवशाली नेता के पद पर प्रतिष्ठित किया, जो उतना ही अधिक चुनौती भरा भी सिद्ध हुआ।

जब मांसाहार के विरोध तथा पाश्‍चात्य शिक्षा को प्रधानता न देकर गुरुकुलीय शिक्षा के प्रवर्तन जैसे मुद्दों पर उनका विपक्षी दल से टकराव हुआ, तो मुन्शीराम की चारित्रिक दृढ़ता, सिद्धान्त निष्ठा तथा वैदिक धर्म के प्रति उनके अनन्य प्रेम की ही परीक्षा हुई। दलीय संघर्ष की इस अग्नि ने तपाकर मुन्शीराम को कुन्दन बना दिया और अब वे मात्र आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के ही प्रधान नहीं रहे, किन्तु सम्पूर्ण आर्यजगत के बेताज बादशाह बन गये। उनके समक्ष विरोधी पक्ष के साधारण नेता तो बौने ही लगते थे। महात्मा हंसराज और लाला लाजपतराय की ख्याति तथा प्रसिद्धि के तो कुछ कारण भी थे।

लाला मुन्शीराम के आर्यसमाज में प्रविष्ट होते समय लाहौर आर्यसमाज के पितामाह तुल्य लाला सांईदास ने कहा था कि आज एक नई शक्ति का आर्यसमाज में प्रवेश हो रहा है। पता नहीं यह आर्यसमाज को तारेगी या डुबायेगी। श्रद्धानन्द चरित का पूर्ण अवगाहन करने के पश्‍चात् हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मुन्शीराम नाम का जो व्यक्ति उस दिन आर्यसमाज लाहौर का सभासद बना था, उसने ऋषि दयानन्द की इस दिव्य संस्था के गौरव को चार चान्द ही लगाये हैं। आर्यसमाज के 136 वर्ष के इतिहास में दयानन्द के पश्‍चात् श्रद्धानन्द से भिन्न हमें कोई ऐसी हस्ती दिखाई नहीं देती, जिसने धर्म, समाज, राष्ट्र तथा अखिल मानव जाति के हित चिन्तन में अपने आपको इस प्रकार सर्वथा समर्पित किया हो।

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली- भारत शिक्षा प्रणाली में पुरातन तत्वों को पुनः प्रविष्ट कराना तथा उसे नैतिकता, चरित्र, धर्म, त्याग और बलिदान की सिद्धि में नियोजित करना महात्मा मुन्शीराम का एक अन्य ऐतिहासिक कार्य था। जो लोग श्रद्धानन्द का एक आर्यसमाजी नेता के रूप में मूल्यांकन नहीं करते, वे भी मानते हैं कि भारत की शिक्षा में नैतिक मूल्यों का प्रवेश उनके द्वारा ही सम्भव हुआ। महामना मालवीय जी द्वारा स्थापित हिन्दू विश्‍वविद्यालय तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय की प्रतिद्वन्द्विता में स्थापित पाश्‍चात्य प्रणाली की एक शिक्षण संस्था ही बनकर रह गई। किन्तु गुरुकुल कांगड़ी तो भारत की पुरातन शिक्षा व्यवस्था को ही पुनरुज्जीवित करने का एक सार्थक प्रयास था, जिसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत साहित्य तथा आर्ष ग्रन्थों में तो उपलब्ध होता है, किन्तु विगत अनेक शताब्दियों तक उसके अनुरूप कोई संस्था सचमुच भारत में पनप सकी है, यह कहना कठिन है। गुरुकुल की शिक्षा पद्धति को देखकर यदि देश भक्त एण्ड्रूज तथा इंग्लैण्ड के रैमजे मैकडानल्ड जैसे राजनीतिज्ञों को आश्‍चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई, तो महात्मा गान्धी जैसे भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने भी उसकी प्रशंसा करने में कंजूसी नहीं दिखाई। यह दूसरी बात है कि कालान्तर में वही गुरुकुल कांगड़ी अपने संस्थापक के आदर्शों से विमुख होकर पश्‍चिम की प्रणाली पर संचालित भारत की उन सैंकड़ों युनिवर्सिटियों में एक बनकर रह गया और उसकी सारी विशिष्टतायें उसके संचालकों की अक्षमता, दृष्टिहीनता तथा गुरुकुलीय आदर्शों के प्रति आस्था के अभाव के कारण एक-एक कर नष्ट होती गई।

गान्धी को महात्मा की उपाधि तथा राष्ट्र की सेवा- गुरुकुल के मुख्याधिष्ठाता और आचार्य पद पर अपने जीवन के लगभग दो दशक व्यतीत करने के पश्‍चात स्वामी श्रद्धानन्द को लगा कि अब उन्हें गुरुकुल की प्राचीरों से बाहर निकलकर देश की स्वाधीनता के यज्ञ में भी अपनी आहुति देनी है। दक्षिण अफ्रिका में कुछ ठोस सेवा करके लौटने वाले कर्मवीर गान्धी का उन्होंने गुरुकुल में उस समय स्वागत किया था जबकि देश के अधिकांश लोग उन्हें भलीभांति जानते भी नहीं थे। जिसको उन्होंने ‘महात्मा’ कहकर पुकारा था, सौराष्ट्र का वही ‘बैरिस्टर मोहनदास गान्धी’ अब भारत के जन-मन की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक बन देश में सर्वत्र देवता की भांति पूजा और आराधना का पात्र बना हुआ था। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अनुभव किया कि देश के लिए भी कुछ करने का समय आ गया है। 1917 से 1922 तक के पांच वर्ष राष्ट्रदेव की सेवा में लगाते समय उन्होंने सिपाहियों की संगीनों के प्रहार के लिए अपनी छाती खोल दीथी । जामामस्जिद की प्रवचन वेदी से परमपिता की पुनीत महिमा का आख्यान करते हुए हिन्दू और मुसलमानों को देश के लिए सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा की। कांग्रेस की उच्चकमान के एक महत्वपूर्ण अंग बनकर इस राष्ट्रीय संस्था की नीतियों का संचालन किया और समकालीन राष्ट्र नेताओं के आदरास्पद बने।

राजनीति में धर्म, नैतिकता तथा आध्यात्मिक के पावन मूल्यों को समाविष्ट कराने का श्रेय महात्मा गान्धी को बेशक मिला, किन्तु इसके लिए इतिहासकार स्वामी श्रद्धानन्द को भी विस्मृत नहीं कर सकेंगे, क्योेंकि उन्होंने ही सत्याग्रह को धर्मयुद्ध की संज्ञा दी तथा जिन्हें अमृतसर कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष के पद को स्वीकार करने का अनुरोध करते समय महात्मा गान्धी जी ने लिखा था- “यदि आप स्वागत समिति के सभापति हो जायेंगे तो आप कांग्रेस में धार्मिक भाव पैदा करने में समर्थ हो सकेंगे।’’

कांग्रेस को देन- कांग्रेस के कार्यक्रम में स्वदेशी के महत्व, राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार तथा अछूतोद्धार जैसे रचनात्मक मुद्दों को स्थान दिलाने के लिए स्वामी जी का कर्त्तत्व सदा याद किया जाता रहेगा। महात्मा गान्धी के असहयोग आन्दोलन में उनकी कितनी जबरदस्त आस्था थी, यह उनके उस पत्र में देखते हैं, जो उन्होंने 25 सितम्बर 1920 को आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रधान लाला रामकृष्ण जी को लिखा था। इसमें उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया कि “इस समय मेरी सम्मति में असहयोग की व्यवस्था के क्रियात्मक प्रचार पर ही मातृभूमि का भविष्य निर्भर है। यदि यह आन्दोलन अकृतकार्य हुआ और महात्मा गान्धी को सहायता न मिली तो देश की स्वतन्त्रता का प्रश्‍न 50 वर्ष पीछे जा पड़ेगा। जाति के जीवन व मृत्यु का प्रश्‍न हो गया है।’’ राष्ट्र की लड़ाई के सैनिक बनने में यदि उन्हें गुरुकुल या आर्यसमाज का काम थोड़े समय के लिए छोड़ना भी पड़ा तो उसका उन्हें कोई खेद नहीं था, क्योंकि उन्हें देश की स्वतन्त्रता का यह युद्ध सर्वोपरि दीखता था।

किन्तु जब उन्होंने देखा कि आजादी की लड़ाई का यह कर्णधार (महात्मा गान्धी) खुद कभी-कभी सनक में आकर ऐसे फैसले कर जाता है, जिससे सारे देश को परेशानी का सामना करना पड़ता है और देशवासियों की संघर्ष करने की शक्ति और वृत्ति को आघात पहुंचता है, तो उन्होंने गान्धी जी के समक्ष भावना और आवेश में लिए उनके इन फैसलों का प्रतिवाद भी किया। गान्धी जी ने स्वयं तो अपने कतिपय निर्णयों को हिमालय जैसी भूल माना ही था। गान्धी जी की मुस्लिमतोषिणी नीति से भी स्वामी श्रद्धानन्द सहमत नहीं थे। यदि महात्मा गान्धी हिन्दुओं और मुसलमानों को समान स्तर पर रखकर उनकी किसी आपत्तिजनक बात की आलोचना या टीका करते तो वह समझ में आने वाली बात थी। किन्तु मुसलमानों की साम्प्रदायिक विद्वेषयुक्त बातों को सहन करना एवं उनकी संकीर्ण मनोवृत्ति के प्रति अकारण उदारता दिखाना स्वामी श्रद्धानन्द को कदापि पसन्द नहीं था।

कांग्रेस छोड़ी- अन्ततः वे कांग्रेस से भी दूर हट गये। उनके विचार में देश में हिन्दू समाज का बहुमत है। देश के हित भी तभी तक सुरक्षित हैं जब तक हिन्दू यहाँ रहकर सम्मान और गौरव का जीवन बिताते रहें। किन्तु सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से असंगठित हिन्दुओं को जब तक एकता के सूत्र में आबद्ध नहीं किया जाता, तब तक वे देश की स्वाधीनता, उन्नति और प्रगति के लिए अपना समुचित योगदान करने में असमर्थ है। ऐसी स्थिति में स्वामी श्रद्धानन्द ने हिन्दुओं को संगठित होने की प्रेरणा दी।

संगठन अपने आप में तो एक निराकार विचार सा ही है। जातियों को संगठन का लाभ तभी मिलता है जब वे अपनी सामाजिक दुर्बलताओं को दूर करती हैं तथा भाव, भाषा, विचार, संस्कृति और जीवन दर्शन में समरसता रखती हैं। हिन्दू जाति का संगठन तभी सम्भव था यदि उसके नेता दलित वर्गों की समस्याओं और कठिनाइयों का तत्काल समाधान ढूंढते और शताब्दियों से पीड़ित तथा ठुकराये गए इन लोगों को उनके अधिकार प्रदान करते।

शुद्धि आन्दोलन- इसी प्रकार कारणवश अन्य मतों में चले गए लोगों को अपने धर्म में प्रविष्ट करने के लिये चलाये गये शुद्धि आन्दोलन की सफलता भी संगठन का एक साधन बन सकती थी। अतः अब स्वामी श्रद्धानन्द का समस्त ध्यान शुद्धि, अछूतोद्धार तथा सामाजिक कुरीतियों के निवारण जैसे कार्यक्रमों पर ही लगा। उनके प्रयासों को तब धक्का लगा, जब उन्होंने देखा कि संकीर्ण बुद्धि वाले सनातनी समाज को न तो अछूतों को उनका प्राप्य देना ही पसन्द है और न वे शुद्ध होकर हिन्दू धर्म में प्रविष्ट लोगों को ही दिल खोलकर अपनाने के लिए तैयार हैं। यद्यपि पं. मनमोहन मालवीय जैसे उदार नेताओं के प्रभाव में आकर अधिकांश हिन्दुओं ने अछूतोद्धार तथा शुद्धि के कार्यक्रम को अन्ततः माना। कतिपय महत्वपूर्ण कारणों से स्वामी श्रद्धानन्द हिन्दू महासभा से भी निराश हो गये।

अन्ततः उन्होंने कवि गुरु की ‘एकला चलो’ की नीति ही अपनानी पड़ी। अब वे अपने कार्यक्रमों के लिये आर्यसमाज के लोगों पर ही निर्भर हो चले और सभी के सहयोग से उन्होंने शुद्धि और संगठन का शंखनाद किया। इन कार्यक्रमों में महात्मा हंसराज के नेतृत्व में कालेज दल ने भी उन्हें पूरा-पूरा सहयोग दिया और एक बार पुनः संसार को दिखा दिया कि ऋषि दयानन्द के अनुयायी धर्म और समाज के व्यापक हित में कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ सकते हैं। ऐसे कर्मयोगी श्रद्धानन्द का जीवन जितना शानदार था, उनकी मृत्यु भी उतनी ही गौरवशाली थी, जिस पर महात्मा गान्धी को भी ईर्ष्यां करनी पड़ी। - डॉ. भवानीलाल भारतीय

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