ओ3म् इमं जीवेभ्यः परिधिं दधामि मैषां नुगादपरो अर्थमेतम्।
शतं जीवन्तु शरदः पुरुचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन॥ (ऋग्वेद 10.18.4)
शब्दार्थ- परमात्मा उपदेश देते हैं कि मैं (जीवेभ्यः) मनुष्यों के लिए (इमम् परिधिम्) इस सौ वर्ष की आयु-मर्यादा को (दधामि) निश्चित करता हूँ (एषाम्) इनमें (अपरः) कोई भी (एतं अर्थम्) इस अवधि को, इस जीवनरूप धन को (मा, गात्, नु) न तोड़े, उल्लंघन न करे। सभी मनुष्य (शतम् शरदः) सौ वर्ष (पुरूचीः) और उससे भी अधिक (जीवन्तु) जिएँ और (अन्तः मृत्युम्) अकाल मृत्यु को (पर्वतेन) पुरुषार्थ से (दधताम्) दूर कर दें, दबा दें।
भावार्थ-
1. परमात्मा ने मनुष्य के लिए सौ वर्ष की जीवन मर्यादा निश्चित की है।
2. किसी भी मनुष्य को इस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए अर्थात् सौ वर्ष की अवधि से पूर्व नहीं मरना चाहिए।
3. प्रत्येक मनुष्य को सौ वर्ष तक तो जीना ही चाहिए। उसे अपना खान-पान, आहार-विहार और समस्त दिनचर्या इस प्रकार की बनानी चाहिए कि वह अदीन रहते हुए सौ वर्ष से भी अधिक जीवन धारण कर सके।
4. मनुष्य को पुरुषार्थी होना चाहिए। यदि अकाल मृत्यु बीच में ही आ जाए तो उसे अपने पुरुषार्थ से परास्त कर देना चाहिए। मनुष्य को सतत कर्मशील होना चाहिए। जब मृत्यु भी द्वार पर आए तो यह देखकर लौट जाए कि अभी तो इसे अवकाश ही नहीं है। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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