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समाज के चारों वर्ण वन्दनीय हैं

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मानव और ईश्‍वर, क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ का सम्बन्ध तथा ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ के अनुसार वेद, वेदान्त, रामायण, महाभारत, गीता, आदि के प्रसंगों के आधार पर मानव शरीर व उसका परमात्मा से सम्बन्ध, धर्ममार्ग, अच्छे व बुरे पुरुष की पहचान, समाज में बुद्धिजीवी ब्राह्मण, भुजा क्षत्रिय अर्थात् समाज का रक्षाकर्ता क्षत्रिय व सबका भरण-पोषणकर्ता वैश्य एवं समाज-सेवक का शरीर में चरण का स्थान जो कि वन्दनीय है, उसको शूद्र तथा पूर्ण मानव शरीर में जैसे प्रत्येक अंग प्रधानता रखते हैं,

वैसे ही समाज के चारों वर्ण वन्दनीय हैं।

गीता का प्रारम्भ धर्मक्षेत्र से हुआ है। अतः मानव जीवन का मुख्य क्षेत्र धर्माचरण करते हुए कार्य करना है। जीवन में जिसने कृष्ण को सारथी बना लिया तथा इन्द्रिय रूपी घोड़ों की लगाम कृष्ण के हाथ सौंप दी, उस मानव का रथ ही धर्ममार्ग पर चलने योग्य होता है। गीता में अर्जुन के रथ का तो वर्णन है, परन्तु दुर्योधन के रथ व सारथी का कोई वर्णन नहीं आता।

एक राहगीर ने एक मन्दिर निर्माण होते हुए मार्ग में देखा तो उस राहगीर ने एक मजदूर से पूछा, भैया क्या कर रहे हो? मजदूर ने उत्तर दिया- पत्थर फोड़ रहा हूँ। थोड़ी दूरी पर जाकर दूसरे मजदूर से वही प्रश्‍न दोहराया। दूसरे मजदूर ने उत्तर दिया कि रोजी-रोटी कमा रहा हूँ। वही राहगीर थोड़ा आगे बढ़कर एक तीसरे मजदूर से पूछता है, भैया क्या कर रहे हो? उसने उत्तर दिया कि मैं भगवान का मन्दिर बना रहा हूँ। तीनों मजदूरों की क्रिया एक है परन्तु हृदय के उत्तम भाव तीसरे मजदूर में हैं कि मैं प्रभु का मन्दिर बना रहा हूँ। अतः जीवन में प्रत्येक कार्य प्रभु का समझकर करो, तो आनन्द प्राप्त होगा।

तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं- उत्तम, मध्यम व अधम। तीनों की परिभाषा समझाते हुए कहा कि जो व्यक्ति श्रेष्ठ कार्य आरम्भ तो कर देते हैं परन्तु बाधा आते ही या विघ्नों के भय से वे श्रेष्ठ कार्यों को करना बन्द कर देते हैं, वे अधम व्यक्ति हैं। दूसरे वे व्यक्ति हैं जो दूसरों के समझाने से, प्रेरणा से, आदेश से कार्य करना आरम्भ तो कर देते हैं परन्तु बाधा आने पर बीच में ही छोड़ देते हैं, वे मध्यम व्यक्ति हैं। तीसरे प्रकार के वे व्यक्ति हैं जो कार्य आरम्भ करने के बाद कितने ही विघ्न-बाधाएँ आवें परन्तु कार्य करते ही रहते हैं, जो बाधाओं से घबराते नहीं तथा अपने लक्ष्य को प्राप्त करके ही छोड़ते हैं, वे उत्तम व्यक्ति हैं। इसी प्रसंग में इन्द्र और रोहित का आख्यान आचार्यश्री ने सुनाया, जिसमें इन्द्र रोहित को ‘चरैवेति चरैवेति’ का उपदेश देते हैं- चलते रहो, चलते रहो। जंगल में इन्द्र व रोहित का मिलना होता है तब इन्द्र रोहित से कहते हैं कि कार्य करते रहने से लक्ष्मी प्राप्त होगी और यदि बैठे रहे तो आलस्य से भाग्य भी बैठ जाता है। परिश्रम से भाग्य उदय होता है। श्रमहीन को, आलसी को पाप घेर लेता है। अतः श्रम करते रहो।

अन्त में चतुर्युगी काल गणना सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग व कलियुग का वर्णन करते हुए बताया कि प्रत्येक मानव की मनः स्थिति के अनुरूप युग मानव जीवन में आते-जाते रहते हैं। जो सो रहा है, आलसी-प्रमादी है, उस समय कलियुग में मानव रहता है। जब सजग होता है तब द्वापर युग में रहता है, जाग्रत अवस्था में कर्म करने में प्रवृत्त होता है। ‘उत्तिष्ठ’ खड़ा होता है तब त्रेतायुग की मनःस्थिति रहती है और जब जागकर, खड़ा होकर धर्ममार्ग पर चलता है तब सतयुग की मनःस्थिति है। युगधर्म हमारे मन के आधार पर हैं। ‘मन के हारे हार हैं मन के जीते जीत’ कहावत के अनुसार वेद वाक्य ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ शिव संकल्प ही सतयुग प्रवर्तक शिव (कल्याण) कारी है। प्रस्तुतिः रामप्रकाश तिवारी

The Four Characters of the Society are Meaningless | Man and god | Veda | Ramayana | The Wise | Mahabharata | Geeta | Relation with God | Social Worker | Best Price | Hindrance | Unemployed | Commendable | The Pride | Satyug | Tretayug | Dwaparyug | Kaliyug | Slapdash | Divyayug | Divya Yug