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अग्नि पर्यावरण (2)

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अग्नि का सबसे प्रथम तथा बड़ा स्रोत सूर्य है, जैसा कि यजुर्वेद में उल्लेख आता है-
दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरस्मद् द्वितीयं परिजातवेदाः।
तृतीयमप्सु नृम्णा अजस्त्रमिन्धान एनं जरते स्वाधीः॥126
अर्थात् अग्नि सर्वप्रथम द्युलोक से सूर्य रूप में प्रकट हुआ, दूसरा जातवेद रूप में पृथ्वी पर पैदा हुआ, तीसरा विद्युत् रूप में जलों से पैदा हुआ। यजुर्वेद वाङ्मय में अनेक स्थलों पर सूर्य का अद्भुत वर्णन आता है।

वैदिक मन्त्रों में ‘सूर्य’ शब्द के कई अर्थ होते हैं, जिनमें ‘सूर्य’ शब्द परमात्मा का भी द्योतक है। इसके अतिरिक्त इस शब्द के अर्थ भौतिक सूर्य के हैं। अधिकतर मन्त्रों में ‘सूर्य’ शब्द इसी अर्थ में आया है। सूर्य के लिए वेदों में कई शब्द आते हैं, यथा-अग्नि, आदित्य, सविता, विष्णु, रवि आदि। इस भौतिक सूर्य की महानता, शक्ति और लाभ का यजुर्वेद वाङ्मय में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। सूर्य को वसु (बसाने वाला देवता) तथा दिव्य शक्ति वाला कहा गया है। अग्निरूप सूर्य ही संसार को ऊर्जा प्रदान करता है तथा संसार में जीवन का आधार है। सारे भूमण्डल की स्थिति इसी पर है। सूर्य की आकर्षण शक्ति से सब ग्रह-उपग्रह अपने-अपने केन्द्र पर हैं। सूर्य ही सारे लोक को प्रकाशित करता है-
अक्रन्ददग्नि स्नयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद्वीरुधः समज्जन।
सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धो अख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः॥127

अर्थात् सूर्य रूप अग्नि द्युलोक में गर्जना करता हुआ पृथ्वी को प्रकाशित करता है, वृक्षों को अंकुरित करता हुआ सबको व्यापकर प्रदीप्त होता है तथा निश्‍चय से शीघ्र प्रकट हुआ अग्नि प्रदीप्त होकर सबको प्रकाशित करता है एवं द्यावापृथिवी के मध्य में अपनी किरणों के द्वारा प्रकाशित होता है।

वर्षा करने वाला तथा लोकों की रक्षा करने वाला सूर्य ही है-
उक्षा समुद्रो अरुणः सुपर्णः पूर्वस्य योनिं पितुरा विवेश
मध्ये दिवो निहितः पृश्‍निरश्मा वि चक्रमे रजसस्पात्यन्तौ॥128
अर्थात् वृष्टि द्वारा सिंचन करने वाला, उदयकाल में ओसकणों से जगत् को गीला करने वाला, अरुण वर्ण वाला, किरणों के माध्यम से शीघ्र गमन करने वाला, अनेक रश्मियों से व्याप्त, पूर्व दिशा से प्रकाशित होने वाला, द्युलोक के मध्य में स्थित यह सूर्य सब लोकों की सब ओर से रक्षा करने वाला है।

सूर्य की ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन है। सूर्य की ऊर्जा और पृथ्वी के जल से वाष्प बनती है, जो आकाश में जाकर मेघमण्डल का रूप धारण करती है, जिससे वर्षा होती है। इसी से अनेक प्रकार के रस, फल, फूल, तृण, अन्नादि पृथ्वी पर उत्पन्न होकर प्राणियों का भरण-पोषण करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य की पूर्ण ऊर्जा की बहुत कम मात्रा पृथ्वी पर पहुंचती है। सूर्य के भीतर तक सैकण्ड में जितनी ऊर्जा पैदा होती है, उसका भी जीव अपने करोड़ों वर्षों के जीवन में उपयोग नहीं कर सके हैं।129

पर्यावरण को प्रदूषण रहित करने में सूर्य का महत्वपूर्ण योगदान है। वह वायुमण्डल, जल तथा पृथ्वी का शोधन करता है, कृमियों का नाश करता है और संसार की वृद्धि तथा पोषण का कारण है। सभी पदार्थों के प्रसव का हेतु होने से उसको ‘सविता’ कहा गया है।130 जिन स्थानों पर सूर्य की किरणें नहीं पहुंचती, वहाँ कीटाणु बढ़ते जाते हैं, जिससे रोगों की वृद्धि होती है। सूर्य अपनी रश्मियों से तथा अपने द्वारा की जाने वाली वर्षा से पवित्रता प्रदान करता है- उभाभ्यां देव सवितः पवित्रेण सवेन च। मां पुनीहि विश्‍वतः॥131

हे सविता देव! तुम अपने दोनों प्रकार के पवित्र स्वरूप से और यज्ञ द्वारा सब ओर से मुझे पवित्र करो।
उदय होता हुआ सूर्य अपने तेजोमण्डल की रश्मियों से पृथ्वी के एक भाग को प्रकाशित करता है तो अस्त होता सूर्य भी अपनी रश्मियों को समेटकर पुनः एकाकार होकर पृथ्वी के दूसरे भाग को प्रकाशमान कर देता है।

यज्ञ भी अग्नि का ही एक रूप है। जैमिनीय ब्राह्मण में तो ‘यज्ञ’ को ही ‘अग्नि’ कहा गया है- यज्ञो वै अग्निः।132

वैदिक कोश निघण्टु में यज्ञ के 15 नामों का उल्लेख है- यज्ञः, वेनः, अध्वरः, मेघः, विदथ, सवनम्, होत्रा, इष्टिः, देवताता, मखः, विष्णुः, इन्दुः, प्रजापतिः, धर्मः।133

देवपूजा, संगतिकरण और दानार्थक ‘यज्’134 धातु से ‘यज्ञ’ शब्द निष्पन्न होता है। यजुर्वेद वाङ्मय में ‘यज्ञ’ शब्द विविध अर्थों का प्रतिपादक है। यथा-
आत्मा ही यज्ञ है- आत्मा वै यज्ञः135
यज्ञ ही वसु है- यज्ञो वै वसुः।136
यज्ञ ही देवों की आत्मा है- यज्ञो वै देवानामात्मा।137
यज्ञ ही विष्णु है- यज्ञो वै विष्णुः।138
यज्ञ ही विष्णु है- यज्ञो वै विष्णुः।138
यज्ञ ही क्षेष्ठतम कर्म है- यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।139
अन्न भी एक यज्ञ है- यज्ञो वोऽन्नम्।140
यज्ञ भुवन की नाभि है- यज्ञो भुवनस्य नाभिः।141
यज्ञमाहुर्भुवनस्य नाभिम्।142
यजुर्वेद वाङ्मय में अग्निहोत्र से लेकर अश्‍वमेघ पर्यन्त अनेक यज्ञों का प्रतिपादन है। परन्तु सभी प्रकार के यज्ञों में ‘अग्निहोत्र’ (हवन यज्ञ) को प्रमुख यज्ञ माना गया है। अग्निहोत्र को यज्ञों का मुख कहा गया है- मुखं एतद् यज्ञानां यदग्निहोत्रम्।143
यज्ञमुखं वा अग्निहोत्रम्।144
जिस प्रकार मुख द्वारा ग्रहण की गई खुराक से समस्त शरीर का पोषण होता है, उसी प्रकार ‘अग्निहोत्र’ द्वारा समस्त यज्ञों का पोषण एवं संवर्धन होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में उल्लेख है कि जो व्यक्ति अग्निहोत्र करता है, वह समस्त देवताओं का यजन तथा तर्पणादि करता है- सर्वेभ्यो वा एष देवताभ्यो जुहोति यो वा अग्निहोत्रं जुहोति।145
संस्कृत में एक कहावत प्रचलित है- सर्वे पदाः हस्तिपदे निमग्ना। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है- सर्वेयज्ञा अग्निहोत्रे निमग्नाः। अर्थात् सभी यज्ञ इसी अग्निहोत्र में समा जाते हैं।
अग्निहोत्र को देवयज्ञ भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें देवताओं का यजन किया जाता है तथा विविध हवियों से देवताओं का तर्पण किया जाता है। इनमें मन्त्रोच्चारणपूर्वक अनेक विधियों से देवों की पूजा और स्तुति आदि की जाती है। (क्रमशः)

सन्दर्भ सूची
126. यजुर्वेद संहिता 12.21
127. यजुर्वेद संहिता 12.18
128. यजुर्वेद संहिता 17.60
129. दिव्यज्ञान, पृ. 234
स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
130. निरुक्त 6.32, 10.21
131. यजुर्वेद संहिता 19.43
132. जैमिनीय ब्राह्मण 2.230
133. निघण्टु 3.17
134. पाणिनीय धातुपाठ, भ्वादिगण
135. शतपथ ब्राह्मण 6.2.1.7
136. शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.9
137. शतपथ ब्राह्मण 9.3.2.7
138. शतपथ ब्राह्मण 2.1.2.13
139. मैत्रायणी संहिता 4.1.1,
शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.5
140. शतपथ ब्राह्मण 2.4.2.1
141. यजुर्वेद संहिता 23.62
142. तैत्तिरीय संहिता 7.4.18,
काठक संहिता 44.7
143. शतपथ ब्राह्मण 14.3.1.29
144. तैत्तिरीय संहिता 1.6.10.2
145. तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.1.8.3

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