विशेष :

आत्म सिञ्चन

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ओ3म् प्र ते नावं न समने वचस्युवं ब्रह्मणा यामि सवनेषु दाधृषिः।
कुविन्नो अस्य वचसो निबोधिषदिन्द्रमुत्सं न वसुनः सिचामहे। (ऋग्वेद 2.16.7)

शब्दार्थ- (सवनेषु) उपासना के अवसरों में (दाधृषिः) प्रतिपक्षियों, काम-क्रोध आदि को दबाकर हे परमात्मन्! मैं (समने नावं न) जीवन संग्राम में नौका के समान (वचस्युवम्) वेद-वचनों के स्वामी (ते) तुझे ही (ब्रह्मणा) ज्ञान के द्वारा (प्रयामि) प्राप्त होता हूँ (नः अस्य वचसः) तू हमारे इस वचन को, प्रार्थना को (कुवित् निबोधिषत्) अवश्य सुनेगा। हम तो (इन्द्रम्) ऐश्‍वर्यवान् तुझको (वसुनः उत्सम् न) ऐश्‍वर्य के कूप के समान जानकर (सिचामहे) निरन्तर अपनी आत्मा को सींचते रहें।

भावार्थ- प्रभो! हमने उपासना के मार्ग में बाधक बनने वाले काम, क्रोध आदि शत्रुओं का पराभव कर दिया है। अब हम तेरे भक्तिरस में मग्न होकर जीवन संग्राम से, संसार-सागर से पार होने के लिए तेरी नौका पर चढ़ बैठे हैं। हे ज्ञानाधिपते! ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए हमने तुझे प्राप्त कर लिया है। प्रभो! हम तेरी नौका पर बैठे हैं। अतः अब तो आपको हमारी प्रार्थना सुननी ही पड़ेगी। प्रभो! तू ऐश्‍वर्यों का अक्षय स्रोत है। ऐसी कृपा कर कि हम तेरे आनन्दामृत से अपनी आत्मा को निरन्तर सींचते रहें, आप्लावित करते रहें, तेरे आनन्द-सागर में डुबकियाँ लगाते रहें। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- अप्रैल 2013)

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