अग्निहोत्र से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होता है अर्थात् वायु का श्वास, स्पर्श, खान-पान से आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़ के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अनुष्ठान पूरा होना। इसीलिए इसको ‘देवयज्ञ’ कहते हैं।146
शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि यजमान अग्निहोत्र में दी गई आहुतियों से प्राकृतिक देवों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) को प्रसन्न करता है तथा मनुष्य देवों (ब्राह्मणों, विद्वानों, आदि को) को दक्षिणा द्वारा सन्तुष्ट करता है-
आहुतिभरेव देवान् प्रीणाति दक्षिणाभिर्मनुष्यदेवान् शुश्रुवुषः अनूचानान्।147
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि देव क्या हैं? आचार्य यास्क के अनुसार जो दाता अथवा दानशील हैं, जो प्रकाशक अथवा द्योतक हैं अथवा जो द्युस्थानीय सूर्यादि हैं, वे सब देव कहलाते हैं-
देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा यो देवः सा देवता।148
यजुर्वेद के एक मन्त्र में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, वसु आदि को देवता कहा गया है-
अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवताऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता।149
इसी सन्दर्भ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में माता, पिता और आचार्य आदि तथा पृथ्वी, अग्नि, आदित्य, चन्द्रमा आदि को मूर्तिमान् देव तथा अन्तरिक्ष, वायु व मन आदि को अमूर्त देव कहा है।150
इस प्रकार मुख्य रूप से चार प्रकार के देव माने जा सकते हैं- मूर्त, अमूर्त, जड़ और चेतन। अग्निहोत्र। एक ऐसा उपयोगी एवं महत्वपूर्ण साधन है, जिससे इन सभी प्रकार के देवों का तर्पण होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है कि यज्ञ के द्वारा देवों को प्रसन्न करो और देव तुम्हें प्रसन्न करें। इस प्रकार दोनों, दोनों को प्रसन्न करते हुए सदा कल्याण को प्राप्त करें-
देवान् भावयतानेन, ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भायन्तः, श्रेयः परमवाप्स्यथ॥151
इस ब्रह्माण्ड में प्राकृतिक यज्ञ निरन्तर हो रहा है। सूर्य, पृथ्वी को प्रकाश देता है तथा भाप रूप में जल को लेकर संसार में वृष्टि करता है। पृथ्वी का जल भाप बनकर बादल बनता है। वह वर्षा के द्वारा संसार के सभी वृक्षादि वनस्पतियों को जीवन देता है, नदियों को प्रवाहित करता है तथा संसार को जीवनी शक्ति देता है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि देवतागण जिस पुरुष के साथ मिलकर यज्ञीय हवि से यज्ञ करते हैं, उस यज्ञ में बसन्त ऋतु घृत है, ग्रीष्म ऋतु समिधा है तथा शरद् ऋतु हवि है-
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यां ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः।152
ग्रीष्म, यज्ञ को तपाता है, वसन्त रस देता है। यदि इस प्राकृतिक यज्ञ में घृत न हो तो यज्ञ शुष्क रहेगा। शरद् ऋतु फल-फूल-पत्ते झाड़कर यज्ञ के अर्पण कर देता है तथा इस प्रकार संसार का चक्र चालू रहता है। ग्रीष्म के तीव्र ताप से रेगिस्तान की बालू तपती है तथा सम्पूर्ण वायुमण्डल को शुद्ध कर देती है। इस प्रकार सारे विश्व में सूर्य, चन्द्र, वायु आदि देव ऋतुओं का निर्माण करते हुए प्राकृतिक यज्ञ करते रहते हैं। इन देवों की शक्तियाँ नित्य यज्ञों में कार्यरत रहती है।
वेदों में सम्पूर्ण विज्ञान को यज्ञ के रूप में ही प्रगट किया गया है। वेदमन्त्रों में जो विज्ञान के सिद्धान्त प्राप्त होते हैं, उनका प्रयोग यज्ञों के द्वारा ही हो सकता है। वह यज्ञ दो प्रकार से है- एक प्राकृतिक यज्ञ, जो प्रकृति में निरन्तर हो रहा है तथा दूसरा अनुष्ठेय अथवा कृत्रिम यज्ञ जो मनुष्यों द्वारा किया जाता है। प्राकृतिक यज्ञ ही इस कृत्रिम यज्ञ का आधार है। प्राकृतिक यज्ञ में विज्ञान के सिद्धान्त बताए जाते हैं तथा अनुष्ठेय यज्ञों में उनका प्रयोग।153
यज्ञ हेतु अग्नि की स्थापना करते हुए वैदिक यजमान कहता है कि जिस प्रकार आकाश में स्थित महान् सूर्य इस विस्तृत पृथ्वी के ऊपर देवयज्ञ कर रहा है, उसी प्रकार मैं भी अन्नादि पदार्थों के लिए इस अग्नि की स्थापना करता हूँ-
भूर्भुवः स्वद्यौंरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नाद्-अमन्नाद्यायादधे॥154
यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करते हुए वैदिक ऋषि कहता है-
उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृ हि त्वमिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥156
अर्थात् हे अग्ने! तुम उत्तम रीति से उठो तथा जाग्रत होओ और इस यजमान को भी जाग्रत बनाए रखो। तुम्हारी कृपा से यह यजमान भी उत्तम सुख को प्राप्त हो तथा इष्ट और पूर्त कर्मों के फल प्राप्त करे। हे विश्वदेवो तुम्हारी कृपा से निष्पाप हुआ यह यजमान उत्तम द्युलोक में चिरकाल तक स्थित रहे।
यज्ञ से प्राकृतिक देवों की तुष्टि होती है। प्राकृतिक देवों की तुष्टि तता पुष्टि होने से पर्यावरण शुद्ध रहता है। यही मानव का द्युलोक से सम्पर्क स्थापित होना होता है। इस यज्ञ का फल सब दिशाओं में फैलता है-
यज्ञस्य दोहो विततः पुरुत्रा सो अष्टधा दिवमन्वाततान।
स यज्ञ धुक्ष्व महि मे प्रजाया रायस्पोषं विश्वमायुरशीय स्वाहा।156
अर्थात् यज्ञ का फल अनेक प्रकार से फैलता है तथा आठों दिशाओं में विस्तृत हो जाता है। हे यज्ञ! तुम मेरी प्रजाओं को धनादि से समृद्ध करो। मैं भी यज्ञ क्रिया से सब समृद्धियाँ तथा सम्पूर्ण आयु प्राप्त करूं।
यज्ञ सम्पूर्ण पर्यावरण को सन्तुलित रखने में सहायक है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि यज्ञ ही प्रजाएं हैं। यज्ञ में सभी प्राणी समाविष्ट हैं अर्थात् यज्ञ उनके जीवन का महत्वपूर्ण रक्षक तत्व है-
यज्ञो वै विशो यज्ञे हि सर्वाणि भूतानि विष्टानि।157
यज्ञ सभी स्थावर-जंगम प्राणियों का पालन-पोषण रक्षण करता है-
यज्ञो हि सर्वाणि भूतानि भुनक्ति।158
यजुर्वेद वाङ्मय में यज्ञ को आयु का धारण करने वाला कहा गया है। मैत्रायणी संहिता में उल्लेख है कि ऋत्विग्गण यज्ञ के द्वारा यजमान की चिकित्सा करते हैं तथा उसमें आयु को धारण कराते हैं-
यज्ञेनास्मा आयुर्दधति, सर्व ऋत्विजः पर्याहुः, सर्वे वा एत एतस्मै चिकित्सन्ति, सर्व एवास्मा आयुर्दधाति।159
तैत्तिरीय संहिता में भी उल्लेख है कि पवित्र अग्नि में जो आहुति दी जाती है, उससे यज्ञ, यजमान को आयु धारण कराता है-
यदग्नये शुचये आयुरेवास्मिन् तेन दधाति।160 (क्रमशः)
सन्दर्भ-सूची
146. सत्यार्थ प्रकाश-चतुर्थ समुल्लास,
स्वामी दयानन्द सरस्वती
147. शतपथ ब्राह्मण 2.2.2.6
148. निरुक्त 7.4
149. यजुर्वेद संहिता 14.20
150. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-वेदविषय विचार,
स्वामी दयानन्द सरस्वती
151. श्रीमद्भगवद्गीता 3.11
152. यजुर्वेद संहिता 31.14
153. वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति,
म.म. गिरधर शर्मा प्राक्कथन पृ.16
154. यजुर्वेद संहिता 3.5
155. यजुर्वेद संहिता 18.61
156. यजुर्वेद संहिता 8.62
157. शतपथ ब्राह्मण 8.7.3.21
158. शतपथ ब्राह्मण 9.4.1.11
159. मैत्रायणी संहिता 2.3.5
160. तैत्तिरीय संहिता 2.2.4.3
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