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आओ दीप जलाएं

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Dipawali Diyaइस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष ही नहीं सम्पूर्ण विश्‍व में दीपावली की तैयारियाँ हो रही हैं। जनमानस दीप पर्व को मनाने में सोल्लास रत हैं। ऐसे समय में इस वर्ष को मनाने के कारणों, लाभों व हानियों पर विचार करना मनुष्य होने के नाते आवश्यक है। क्योंकि मनुष्य का मतलब है- ‘मत्वा कर्माणि सीव्यति’। अर्थात् जो विचार करके कर्मों को करता है। आइए विचार करें कि हमें दीपावली क्यों मनानी चाहिए? इसके क्या लाभ हैं तथा इसके साथ क्या-क्या भावनाएँ जुड़ी हुई हैं?

जनश्रुति है कि विजयादशमी को रावण पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त जब राम देवी सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ अयोध्या वापस आये थे तो उनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने घर-घर घी के दीप जलाये थे।

वैदिक संस्कृति के प्राणतत्व हैं कृषि, ऋषि और यज्ञ। हम ऋषि परम्परा का अवलम्बन करते हुए यज्ञ की सिद्धि के लिए कृषि करते हैं और हमारा मूलमन्त्र है- तमसो मा ज्योतिर्गमय। अर्थात् हे प्रभो! हमें अन्धकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले चलो। तो प्रकाश की प्राप्ति के लिए दीप जलाना तो परमावश्यक है। जीवन ज्योति को आदीप्त करने के लिए प्रकाश को लाना आवश्यक है। जब से सृष्टि बनी है तब से मनुष्य अन्धकार से युद्ध कर रहा है और इस पर सर्वांश में विजय पाने के लिए सामूहिक रूप से दीप जलाना आवश्यक है। घर-घर दीप जलाना अनिवार्य है। इसीलिए दीप जलाने को पर्व घोषित कर दिया गया है। ‘पर्व’ का मतलब है- पृणाति पिपर्त्ति पालयति पूरयति प्रीणाति च जगदिति पर्व। अर्थात् जो पालन करता है, पूर्ण करता है और तृप्ति करता है उसे पर्व कहते हैं और तृप्ति होती है भूमि से, प्रचुरता से, आधिक्य से। इसीलिए दीप एक पर्व है। जब इसे सब जलाते हैं और जो इसे ठीक-ठीक जलाते हैं, श्रद्धाभाव से ज्ञानपूर्वक जलाते हैं उनके जीवन में पर्व ही होता है।

हम कृषि करते हैं। उससे जो हमें उपलब्ध होता है उसे प्रभु कृपा मानते हैं तथा उसका अकेले सेवन करना पाप समझते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा जो कुछ हो वह समाज के लिए हो, राष्ट्र के लिए हो। तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित। सब कुछ इदं राष्ट्राय इदन्न मम। तो जब आश्‍विन मास में फसल पककर किसान के घर आती थी तो वह प्रसन्न, सन्तुष्ट और तृप्त होता था और अकेला न खाये इसलिए सर्वप्रथम यज्ञदेव को समर्पित करता था। सबके लिए देने का प्रयत्न करता था। अतः वैदिक परम्परा में यही ‘नवसस्येष्टि’ नये अन्न की इष्टि अर्थात् यज्ञ ही दीपपर्व था। अमावस्या के दिन सब ’नव’ अन्न से यज्ञ करते थे, घर-घर दीप जलाते थे। यहीं से अर्थात् जब धरती पर और कोई संस्कृति नहीं थी, कोई सभ्यता नहीं थी, वैदिक संस्कृति और सभ्यता ही थी तब से हम दीपपर्व मनाते चले आये हैं। राम खुद उस संस्कृति में पले, बढ़े और उसके पोषक थे। यह पर्व तो आदिपर्व है, जिसे राम के पूर्वज भी मानते थे।

इस पर्व का नाम ‘नवसस्येष्टि’ है। अतः यह सिद्ध है कि जब से धरती पर मानवीय संस्कृति है तब से यह पर्व भी है। वैदिक संस्कृति चिरकाल से अजर-अमर है तो इसका कारण ये पर्व ही हैं। जिस वस्तु, जीवन, संस्कृति या सभ्यता में पर्व नहीं होते वह अक्षुण्ण चिरकाल तक जीवित नहीं रह सकती। क्योंकि पर्व शब्द का अर्थ ही है पूर्ति। संस्कृत साहित्य में पर्व शब्द ग्रन्थि=गाँठ के पर्यायवाची के रूप में प्रसिद्ध है। संसार में सब ओर दृष्टिगोचर होता है कि जहाँ-जहाँ पर्व हैं, गाँठ है वहीं-वहीं वृद्धि है। जिसमें जितनी गाँठें हैं वह उतना ही ऋद्ध, वृद्ध और समृद्ध है। बांस में गांठ है इसीलिए वह इतना लम्बा है। दूर्वा घास में, लौकी आदि लताओं में जो वृद्धि है उसका कारण पर्व है, गांठ ही है। हमारी परम्परा तो पर्व से ही चलती है, इसलिए विवाह में भी हमारे यहाँ ग्रन्थि बन्धन होता है और जन्मदिवस को वर्षगाँठ के रूप में मनाते हुए आयुष्यवृद्धि की कामना करते हैं।

प्रतीत होता है कि यही पर्वों की महान् परम्परा ही है जिससे हम हजारों झञ्झावातों में भी अडिग खड़े हुए हैं और यदि हमें अपने को जीवित रखना है तो पर्वों को जीवन्त रखना होगा। यदि ये पर्व अपने यथार्थ रूप में जीवित रहेंगे तो हमारी सभ्यता जीवित रहेगी, हमारी संस्कृति जीवन्त होगी। अतः संस्कृति के संरक्षक इन पर्वों को जीवित और यथार्थरूप में यथार्थ भावनाओं और प्रतीकों के साथ जीवित रखना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है तथा महत्तर उत्तरदायित्व है।

यह पर्व हमें सिखाता है कि हमारा जीवन केवल हमारे लिये नहीं होना चाहिए। इसी भाव के साथ हम अपने घर में आये अन्न के साथ नवसस्येष्टि करते हैं तथा जैसे दीपक सामर्थ्यानुसार यथाशक्ति अन्धेरे से लड़ता रहता है वैसे ही हम भी अज्ञान, अन्याय, अभाव और आलस्य रूपी अन्धेरे से हमेशा लड़ते रहें। यह अन्धेरा कभी हम पर हावी न होने पाये। जितनी शक्ति हमारे पास है उसी से इन अन्धेरों से लड़ने के लिए सर्वदा सन्नद्ध रहें। सद्भावना, श्रद्धा और समर्पण के साथ दीप जलाना ही पर्व है। दीपों की अवली=पंक्ति बना देने का नाम दीपावली है। किन्तु बाहर दीपक जलाकर अन्दर अन्धेरा रह गया तो पर्व सफल नहीं हो सकता। पर्व का साफल्य अन्धेरे के नाश में है।

जहाँ यह पर्व आर्य संस्कृति का परिचायक होने से महत्वपूर्ण है वहीं इस पर्व का महत्व अत्यन्त बढ़ जाता है, क्योेंकि इसी दिन सन् 1883 में आर्यसंस्कृति के प्रचारक, वेद सभ्यता के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती रूपी महादीपक ने लाखों छोटे-छोटे दीपकों को प्रज्ज्वलित करने के उपरान्त निर्वांण को प्राप्त किया था। इस पर्व को हम श्रद्धांजलि दिवस के रूप में भी मनाते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मोक्ष की महानतम उपलब्धियों को छोड़कर करोड़ों दीन-दुखियों, बिछुड़े-पिछड़े, दलित-वलित नर-नारियों के दुःखों को दूर करने के लिए तथा परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ी भारतमाता के कष्ट को हरने के लिए और ईश्‍वराज्ञा में स्वजीवन को समर्पित कर दिया था। जीवन भर पराये कष्टों को देखकर रोने वाले देव दयानन्द को हमने नहीं समझा और हमारी नासमझी के कारण ही उस देवदूत को सारे जीवन धूल-मिट्टी, कंकर-पत्थर सहना पड़ा और विषपान भी करना पड़ा। जड़ मूर्तियों के उपासक, पत्थरों के पुजारियों के पास पत्थर के अलावा और देने को था भी क्या? बड़प्पन तो उस ऋषि का था जो कहता था- “मैं तो बाग लगा रहा हूँ, बाग लगाने में माली के सिर पर धूल मिट्टी गिर ही जाया करती है, मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि यह बगिया हरी-भरी रहे।’’ हे दिव्य देवर्षि! तुम्हें प्रणाम।

जीवन भर तिल-तिलकर जलने वाले इस महादीप की ज्वलित शिखा की जीवन्तता ने करोड़ों लोगों को देदीप्यमान किया और जाते-जाते गुरुदत्त जैसे नास्तिक को भी वह आस्तिक बना गया। आह! यह जीवन, यह दीपन कितना प्यारा था और कितना निर्लेप था! अन्तिम वाक्य इसके प्रमाण हैं- “अहा तूने कैसी लीला की, तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’

आइए! इस महादीप की दीप्ति से दीप्तिमान होकर ऋषि प्रदर्शित मार्ग पर चलकर पिछड़ों के पथ पर करोड़ों दीप जलाकर उस ऋषि को सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करें। यही दीपावली का दीपन, प्रदीपन और उद्दीपन है। आओ दीप जलाएँ साधो! आओ दीप जलाएँ।

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