भारतीय व्रत या त्यौहार की प्राचीन परम्परा किसी न किसी आधार पर अवलम्बित होती हुई किसी न किसी वस्तु की ओर इंगित करती है। चाहे वह ऋतु परिवर्तन के आधार पर हो या किसी विजय के उपलक्ष्य में या किसी महापुरुष अथवा हर्षोल्लास या गुण-कर्म-स्वभाव से सम्बन्धित वर्णाश्रम की मान्यता से सम्बन्धित हो। भारतवर्ष प्राचीन काल से ही प्रकृति और परब्रह्म पुरुष का उपासक रहा है। अतः समय समय पर प्रकति के परिवर्तन के साथ-साथ भारतीय ऋषियों ने भी अपने उद्गारों को उसके प्रति प्रकट किया। वेद आदि सभी शास्त्र इसकी ओर इंगित करते हैं और भारतीय त्यौहार इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि शिवरात्रि का यह महापर्व भी इसी दिशा में एक संकेत है।
वसन्त पञ्चमी के तुरन्त बाद आने से और पर्वतीय प्रदेशों में इसको बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाये जाने, हिमालय के साथ भगवान शंकर का अटूट सम्बन्ध होने के साथ-साथ चैत्र में विक्रम सम्वत् के नवीन वर्ष का प्रारन्भ होने से तथा वसन्त ऋतु से ऋुतुओं की गणना होने से जहाँ इसका सम्बन्ध अन्य बातों से रहा होगा वहाँ प्रकृति परिवर्तन के साथ भी अवश्य किसी न किसी प्रकार रहा होगा। शास्त्रों के आधार पर भगवान शंकर द्वारा हलाहल विषपान करने से वे नीलकण्ठ कहलाये। उत्तर भारत के पर्वतीय प्रदेश के कुछ भागों में जहाँ प्रकृति की प्रधानता एवं कृषि ही एकमात्र आजीविका का साधन तथा पशुधन ही सर्वप्रकारेण मान्य है, वहाँ के ग्वाले वसन्त ऋतु में ही एक दिन सभी वृक्षों की नई-नई कोंपलों को जंगल से एकत्रित करके सबको कूटकर शंकर की पूजा के बाद अपने पशुओं को इकट्ठा करके खिलाते हैं। उनका मानना है कि इस प्रकार करने पर पूरे वर्ष पशु चाहे कहीं भी चरते रहें उनको विषैली घास का विष नहीं चढ़ता। प्रतीत होता है कि शिवरात्रि का उत्सव इस परम्परा में भी प्राचीन समय में प्रचलित रहा होगा।
अब थोड़ी शिवरात्रि व्रत पर भी चर्चा कर लें।
शं कल्याणं करोतीति शिवः। इस प्रकार ‘शिव’ शब्द कल्याण का वाचक है। शिव पुराण में एक स्थान पर कहा गया है कि-
समा भवन्ति ते सर्वे दानवा मानवाश्च ये।
शिवोऽस्मि सर्वभूतानां शिवत्वं तेन मे स्मृतम्॥
श्रुतियों में भी अनेकत्र शिव के विषय में प्रतिपादन मिलता है जैसे- शिव प्रशान्तममृतं ब्रह्म योगिम् इति। शिव के विषय में प्रसिद्ध है कि वह अपने आश्रितों का कल्याण करने वाले हैं- आरितात्यन्त शिवदः शिवः इत्युच्यते बुधैः इत्यादि वाक्य महाभारत में प्राप्त होते हैं। इन सभी वचनों से ‘शिव’ कल्याणकारी शब्द है। शिव शब्द के वाच्य अनादि ब्रह्मस्वरूप ‘शिव’ का अर्थ भी कल्याणकारी है। शब्दार्थयोर्नित्यः सम्बन्ध होने से, शब्द के नित्यत्व से शिवतत्व भी स्वतः नित्य है, इसलिए सत् है। सत् से तात्पर्य तीनों कालों में विद्यमान सत् होने से ‘शिव’ अपरिणामी है। जो सत् नहीं वह परिणामी है, जैसे घड़ा इत्यादि। अतः शिव वह तत्व है जो भूत, भविष्य तथा वर्तमान में सदा सर्वत्र रहने वाला है। उससे सम्बन्धित रात्रि ‘शिवरात्रि’ कहलाती है।
रात्रि शब्द ‘रै’ धातु से ञिप् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ है। उसका अर्थ किया जाता है कि ‘रात्रि सुखं भयं वा’ जो सुख देने वाली हो। वैदिक साहित्य में भी रात्रि की अत्यधिक प्रशंसा की गई है। उसको कल्याणकारी माना गया है।
देखा जाए तो रात्रि आनन्द देने वाली है। दिन भर के नाना प्रकार के पचड़ों से थका हुआ मानव रात्रि आते ही माता निद्रा की गोद में जब आँख बन्द करके सो जाता है तो वह उतने समय के लिए ही सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त हो जाता है और योगियों की सुषुप्ति जैसी स्थिति को प्राप्त करता हुआ नाना प्रकार के झंझटों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। रात्रि के समय एक साधारण श्रमिक एवं धनपति, एक विशेष विद्वान और महान् मूर्ख समान रूप में निद्राजन्य विस्मृति से एक प्रकार से आनन्द ही प्राप्त करते हैं। अतः शिवरात्रि का अर्थ हुआ कल्याणकारी शिव से सम्बन्धित आनन्द देने वाली रात्रि।
शिवरात्रि के साथ व्रत शब्द भी जुड़ा है। व्रत से तात्पर्य है प्रायश्चित कर्म। पांच प्रकार के कर्मों में ही प्रायश्चित कर्म भी गिना जाता है। प्राणी द्वारा जाने-अनजाने में यदि कोई पापमय, परपीड़ादायक इत्यादि कुत्सित कर्म किया जाए तो उसकी शान्ति के लिए प्रायश्चित कर्म का विधान है। प्रायश्चित कर्म में व्रत और तप की गणना की गई है। व्रत का सीधा अर्थ नियम है। वैदिक ग्रन्थों में इसका अर्थ इष्ट प्रतिरूप कर्म कहा गया है। पौराणिक साहित्य में इसका अर्थ धर्म है। अतः वेदशास्त्र में कथित नियम आदि साधारण या असाधारण कर्म को व्रत कहा जाता है। इस व्रतरूपी कर्म से जहाँ हमारे इहजन्म के कर्मों में सुधार होता है वहीं यह नियम परमात्मा की प्राप्ति में भी सहायक होता है। इसी व्रत को लेकर जो अन्न इत्यादि का त्याग किया जाता है वह उपवास कहलाता है। पर यह ध्यान रखना भी परम आवश्यक है कि व्रत अर्थात् उपवास केवल मात्र भोजन इत्यादि का ही त्याग नहीं, अपितु उपवास का वास्तविक अर्थ भी समझ लेना चाहिए।
उपनिषद् में उपवास का अर्थ किया गया है-
उप समीपे वासः जीवात्मपरमात्मनोः।
उपवासः स विज्ञेयो न तु काय शोषणम्॥
अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा का एक स्थान पर स्थित होना या जीवात्मा का परमात्मा अर्थात् अपने अभीष्ट देव के पास विद्यमान अनुभव होना उपवास है, न कि केवल मात्र भूखा रहकर शरीर को कष्ट मात्र देना। परमात्मा का ध्यान तो दिन भर किया नहीं पर दिन भर भूखे जरूर रहे। यह उपवास, उपवास नहीं। किसी भी प्रकार का नियम पालन न कर केवल मात्र पेट को खाली रखना व्रत या उपवास नहीं है। अतः उपवास से तात्पर्य है नियमपूर्वक अपने इष्टदेव के समीप बैठकर उसका चिन्तन करना।
यह भी विचारणीय है कि इसको ‘शिव दिन’ न कहकर शिवरात्रि क्यों कहा। इससे पहले कि इसके विषय में कुछ लिखा जाए यह जान लेना भी आवश्यक है कि अमरकोष में रात्रि का पर्यायवाची शब्द ‘निशा’ भी है। ‘निशा’ की अगर व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाए कि ‘निःशेषेण शाम्यन्ति इन्द्रियाणि यस्याम्’ जिसमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ शान्त रहती हैं, वह निशा है तो तब भगवान् कृष्ण का कथन कि सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो निशा है योगी उसमें जागते हैं। जागरण का तात्पर्य है इन्द्रियों को सचेष्ट रखना। इन्द्रियों को अपने-अपने धर्म से हटाकर एकमात्र उस शिव की उपासना में लगाना। इस प्रकार जो कोर्ई भी महाशिवरात्रि को ‘सर्वधमान् परित्यज्य’ अर्थात् इन्द्रियों में सम्पूर्ण धर्म को छोड़कर ‘अनन्याश्चिन्तयतो माम्’ अनन्यभाव से जो इस कल्याणकारिणी रात्रि में उस परब्रह्मस्वरूप शिव की उपासना करते हैं, वे निश्चय ही संसार सागर से पार होते हैं। - आचार्य इन्द्रदत्त उनियाल
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