सन् 1680 में औरंगजेब हिन्दू-पद पादशाही को कुचलने महाराष्ट्र जाकर जम गया था। छत्रपति शिवाजी, छत्रपति शम्भाजी, इनके छोटे भाई राजाराम दिवंगत हो चुके थे। बिना राजा के महाराष्ट्र की हिन्दू प्रजा घरों से निकल पड़ी थी और स्वराज के लिये संघर्ष कर रही थी। उत्तर भारत में औरंगजेब के निर्देश पर मुसलमानों के जत्थे मन्दिरों-मूर्तियों को तोड़ते व हिन्दुओं का कत्लेआम करते उन्हें जबरन मुसलमान बनाते घूम रहे थे। ऐसे भीषण समय में दिल्ली में गुरु तेगबहादुर जी के धर्म के लिये हुए बलिदान से हिन्दुओं को सिख गुरुओं में आशा की किरण दिखाई दी और गुरु तेगबहादुर के पुत्र गुरु गोविन्दराय जी के आह्वान पर असम से सिन्ध तक और उड़ीसा से कश्मीर तक के हिन्दू आनन्दपुर में एकत्र हुए। यहीं सन् 1699 में गुरु गोविन्दराय जी ने खालसा पन्थ की नींव रखी और गोविन्दसिंह कहाये। पंजाब के प्रत्येक हिन्दू घर से जवान लड़के खालसा बन सिर पर कफन बाँध निकल पड़े। सारा पंजाब सुलग उठा।
सन् 1707 में औरंगाबाद में औरंगजेब की कबर खुद गई और राजस्थान व बुन्देलखण्ड के राजपूत, जाट, बुन्देलों ने अपनी आजादी की घोषणा कर दी। दिल्ली को खिराज (कर) देना बन्द कर दिया। जोधपुर ने मुसलमानों के तीर्थ अजमेर व हिन्दू तीर्थ पुष्करराज पर कब्जा कर लिया। भरतपुर के जाटों ने मथुरा, आगरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना का सारा ब्रज मुगलों से छीन लिया। यहाँ मन्दिरों में घण्टे-घड़ियाल बजने लगे, आरती होने लगी।
महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज के पौत्र शाहू जी हिन्दू-पद-पादशाही के तीसरे छत्रपति बने और हिन्दवी स्वराज की सेना ने राजपूत, जाट, सिख, बुन्देलों की सहायता से दिल्ली विजय की। मुगलों के पास रह गया मुलतान, पंजाब, रुहेलखण्ड, उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल का मात्र एक चौथाई भारत। ऐसे में सन् 1749 में छत्रपति शाहूजी महाराज का देहान्त हो गया और हिन्दवी स्वराज नाना पेशवा के अधिकार में चला गया। दुर्भाग्य देश का यह रहा कि पेशवा के शासन में हिन्दुत्व का लोप हो गया।
विजय पर विजय करती बढ़ती जाती पेशवा की सेना के साथ मुगल बादशाह अहमदशाह की 12 अप्रैल 1752 को एक सन्धि हुई। सन्धि में मुगल बादशाह की ओर से वजीर सफदरगंज और नाना पेशवा की ओर से मल्हारराव होलकर व जयप्पा सिन्धिया ने हस्ताक्षर किये। सन्धि की शर्तें थीं-
1. पेशवा विदेशी हमलावर अहमदशाह अब्दाली एवं मुगलों के भारतीय दुश्मन राजपूत, जाट, बुन्देले और सिखों से मुगल साम्राज्य की रक्षा करेगा. बदले में बादशाह पेशवा को 50 लाख रुपया देगा।
2. राजपूत व जाट राजाओं ने मुगल इलाके अजमेर, पुष्कर, मथुरा, आगरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना पर कब्जा कर लिया है ये इलाके राजपूत-जाटों से छीनकर मुगलों के सुपुर्द किए जाएं।
3. राजपूत, जाट, बुन्देलों ने 40-50 वर्षों से मुगलों को खिराज (कर) देना बन्द कर आजादी की घोषणा कर दी है। उनसे कर वसूलकर चौथाई पेशवा रखेगा और तीन भाग मुगल बादशाह को दिल्ली भेजा जाएगा और राजपूत-जाट-बुन्देलों को फिर मुगल साम्राज्य के अधीन किया जाएगा।
4. पेशवा को पुष्कर-अजमेर जोधपुर राजा से छीनकर मुगल बादशाह को लौटाने पर इसकी सूबेदारी पेशवा को दी जायेगी। इसी प्रकार मथुरा, आगरा, गोकुल, वृन्दावन, बरसाना के हिन्दू धर्म स्थान जाटों से छीनकर मुगल बादशाह को लौटाने पर इनकी भी सूबेदारी नाना पेशवा को दी जाएगी। सूबेदारी का वेतन, भत्ते आदि बादशाह नाना पेशवा को देंगे (अर्थात् पेशवा मुगलों का वेतन भोगी नौकर बन जाएगा)।
5. पेशवा राजपूत व जाटों से जो इलाके छीनकर मुगलों को लौटाएगा, उसका आधा भाग विजय के खर्चे के रूप में नाना पेशवा को दिया जाएगा।
6. पेशवा और उसकी सेनाएं बादशाही भक्त मुसलमान रियासतों, अधिकारियों, जागीरदारों के अधिकारों का सम्मान करेंगे और इन शाही समर्थकों पर आक्रमण नहीं करेंगे, न चौथ वसूलेंगे।
7. पेशवाई सूबों के अन्दर स्थित दरगाहों, मस्जिदों, किलों व नगरों के प्रशासन में पेशवा कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा जो बादशाह भक्त मुसलमानों के अधिकार में हैं।
8. पेशवा सीधे दिल्ली दरबार के अधीन भूमि, किलों और जो भाग बादशाह ने पेशवा को न दिया हो उन पर अपना अधिकार न जमाएगा।
9. पेशवा या उसका प्रतिनिधि मुगलों के अधीन अन्य मनसबदारों के समान शाही दरबार में उपस्थित होगा और शाही सेना के साथ युद्ध में जाएगा। (नागपुर शोधपत्र, यादव-गूजर के आधार पर)
नतीजा निकला- अजमेर-पुष्कर तीर्थ काफी खून-खराबे के बाद राजपूतों से छीनकर बादशाह को सौंप दिये गये। शाही सेना का एक भी मुसलमान सैनिक नहीं मरा। दोनों ओर के हजारों राजपूत - मराठे हिन्दू ही मारे गए। यहाँ तक कि मराठा सेनापति जयप्पा सिन्धिया भी मारा गया।
जाटों से मथुरा-वृन्दावन, आगरा और ब्रज के हिन्दू तीर्थ छीनकर मुगल बादशाह को सौंपने में एक भी मुसलमान सैनिक नहीं मरा। दोनों ओर के हिन्दू जाट, मराठे मारे गए। मल्हारराव का पुत्र खण्डेराव (अहिल्याबाई का पति) भी मारा गया। 40 वर्षों से इन मुक्त हिन्दू तीर्थों के मन्दिरों में घण्टे घड़ियाल बज रहे थे। पूजा अर्चना हो रही थी, सब फिर बन्द हो गई और पाँच वर्ष बाद ब्रज के हिन्दू तीर्थ में खून की होली खेली गई।
अहमदशाह अब्दाली का तीसरा आक्रमण- 28 जनवरी 1757 को अहमदशाह अब्दाली ने सेना के साथ दिल्ली में प्रवेश किया। प्रत्येक हिन्दू घर की विवाहित या कुँवारी सुन्दर महिलाएँ घरों से खोज-खोजकर निकाली गईं और अफगानों में बांट दी गई। हजारों हिन्दू महिलाओं से बलात्कार हुए, हजारों महिलाओं ने आत्महत्या कर ली। अपने घर की महिलाओं का अपमान न देख पाने के कारण हजारों हिन्दू पुरुषों ने भी आत्महत्या कर ली। कईं विष खाकर, कईं कुओं व यमुना नदी में कूदकर, कईं कटार मारकर मर गए। (मराठों का नवीन इतिहास भाग 2 सरदेसाई पृष्ठ 362 से 363)
हजारों का कृष्ण भूमि ब्रज पर हमला- 22 फरवरी 1957। 25 दिनों तक दिल्ली में लूटमार और हत्याकाण्ड करने के बाद अब्दाली ने अपनी आधी सेना के कई जत्थे बनाये और उन्हें मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना, आगरा में आक्रमण के लिये रवाना कर दिया। जाने के पूर्व अब्दाली ने अपने सैनिकों के सामने एक भाषण दिया। अब्दाली ने कहा- “मथुरा तथा ब्रज के कई स्थान हिन्दुओं के आराध्य कृष्ण के स्थान माने जाते हैं। यह तुम्हारा धार्मिक कर्त्तव्य (जिहाद) है कि तुम अधिक से अधिक काफिरों के सिर काटो, इससे तुम्हें सबाब (पुण्य) मिलेगा। तुम कटे सिरों के ढेर लगा दो, प्रत्येक हिन्दू के कटे सिर पर मैं तुम्हेें पाँच रुपये इनाम दूँगा। यह मैं वचन देता हूँ।’’
22 फरवरी को ये विदेशी हत्यारे जिहाद को निकले, उनके साथ-साथ दोआब (गंगा-यमुना के बीच का प्रदेश) का भारतीय शासक नजीब खान भी अपनी 15000 सेना के साथ हो लिया। अभी पाँच वर्ष पूर्व तक यह सारा पवित्र क्षेत्र सूरजमल जाट के अधिकार में था जो उसने तलवार के बल पर मुगलों से छीन लिया था। नाना पेशवा (बालाजी बाजीराव) की सन् 1752 में मुगलों से हुई सन्धि में यह इलाका जाटों को हराकर उसने (नाना पेशवा ने) मुगलों को सौंप दिया। मुगलों ने यह इलाका नाना पेशवा की सूबेदारी में दिया था। गोविन्द पन्त, पेशवा की ओर से यहाँ का शासन करता था। नजीब खान और अब्दाली की सेना के हमले की खबर सुन गोविन्द पन्त इलाका खाली कर बुन्देलखण्ड की ओर पीछे हट गया।
पेशवा के सेनापतियों की आदत थी........वे शान्ति काल में इस इलाके के हिन्दुओं को लूटते थे और मुसलमानों के आक्रमण के समय जयपुर, भरतपुर, बुन्देलखण्ड में शरण लेने चले जाते थे। इस नीति से उन्हें लूट का धन खूब मिलता था, उनकी जन-हानि नहीं होती थी। अब्दाली के संभावित आक्रमण के समाचार नाना पेशवा को गुप्तचरों से पूना में मिल गये थे और पेशवा ने मल्हारराव व अपने भाई रघुनाथराव को पूना से रवाना कर दिया था। अब्दाली व रघुनाथराव एक ही समय काबुल और पूना से चले थे। दिल्ली से दोनों स्थानों की दूरी एक समान थी। यदि अब्दाली की गति से रघुनाथराव भी चलता तो दोनों एक ही समय दिल्ली पहुँचते। किन्तु रघुनाथराव की ढिलाई हिन्दुओं के महाविनाश का कारण बनी।
हत्यारों का पहला आक्रमण मथुरा पर हुआ जो दिल्ली के सबसे निकट थी। मधुरा के चारों ओर कोई परकोटा नहीं था और न ही गोविन्द पन्त की सेना थी। इस कारण हत्यारों ने आसानी से मथुरा पर कब्जा कर लिया। लूट व हत्याओं का सिलसिला एक साथ चला। मथुरा की सड़कें और गलियाँ लाशों से पट गईं। चौराहों पर हिन्दुओं के कटे सिरों के ढेर लगाये गये। सारे नगर में भगदड़ मच गई। जिनसे बन पड़ा वे गाँवों की ओर भाग निकले। एक सप्ताह तक लूट व हत्याकाण्ड का दौर चलता रहा। हिन्दुओें का सिर काटते व भागते हिन्दुओं का घोड़ों पर पीछा करते अफगान जब तक थक नहीं जाते, हत्याएँ करते रहते। थककर किसी भी सूने घर में शरण लेते और नगर की हिन्दू महिलाओं को पकड़ लाते और उनसे सेवा करवाते। सड़ती लाशों से एक सप्ताह में सारा मथुरा बास उठा, तब हत्यारों ने वृन्दावन, गोकुल और बरसाना (राधाजी का गाँव) की ओर रुख किया।
ब्रज में 5 मार्च से 12 मार्च तक होली उत्सव की धूम थी। ब्रज की होली देखने दूर-दूर से यात्री आते थे, साधु सन्त भी आते थे। तीन हजार बैरागी कृष्ण दर्शन व होलिकोत्सव में भाग लेने वृन्दावन आये थे। आक्रमणकारी मुसलमानों का उन्होंने डटकर मुकाबला किया। बैरागियों ने तीन हजार अफगानों को मार गिराया व लड़ते हुए जै-जै राधे कहते हुए शहीद हो गए। 5 से 12 मार्च रंग पञ्चमी तक अफगानों ने हिन्दुओं की नकल करते हुए खून की होली खेली। वृन्दावन में भी सड़ती लाशों को छोड़ हत्यारों ने गोकुल (कृष्ण जी का गांव) व बरसाना (राधाजी का गाँव) तथा ब्रज भूमि के छोटे-छोटे गांवों में हत्याकाण्ड किया।
3 मार्च को खून की होली में शामिल होने अब्दाली स्वयं दिल्ली से चला। डीग-कुम्भेर में 15000 जाट मुसलमानों से टक्कर लेने के लिए तैयार खड़े थे। उनके पीछे जयपुर में राजपूत सेना सजग थी। इसलिये अब्दाली ने टकराना ठीक नहीं समझा और ब्रज की ओर निकल गया। सारा ब्रज सड़ती लाशों से सड़ाँध मार रहा था। ब्रज में लड़ने को कोई हिन्दू नहीं था। या तो मारे गये थे या बुन्देलखण्ड, भरतपुर की ओर जान बचाने भाग गये थे। सड़ती लाशों से अब्दाली की सेना में हैजा फैल गया। 200 लोग प्रतिदिन मरने लगे। यमुना में पानी की कमी थी और सड़ती लाशों ने भी पानी को पीने योग्य नहीं रहने दिया था। शहरों-कस्बों में पीने को पानी नहीं था। कुंए भी महिलाओं की सड़ती लाशों से भरे थे जो इज्जत बचाने के लिए उनमें कूद गई थीं। छोटे-छोटे गाँवों के कुंए भी हिन्दू महिलाओं की सड़ती लाशों से भरे थे। गायों को मार उनका माँस भूनकर खाने से हत्यारों को भोजन तो मिल जाता था किन्तु पानी नहीं। बारह दिनों में 2500 हत्यारे महामारी से मर गये, तब उन्होंने ब्रजभूमि छोड़ी और भोजन-पानी के लिये आगरे की ओर बढ़ गये। आगरा में भी सुरक्षा की नगर दीवार नहीं थी। वहाँ भी हत्यारे सरलता से घुस गये और हत्याकाण्ड प्रारम्भ हो गया।
अब्दाली को समाचार मिल रहे थे कि कृष्ण भूमि पर हुए हत्याकाण्ड से क्रोधित जाट, राजपूत, बुन्देला नौजवान डीग में एकत्र हो रहे हैं। तो उसने 24 मार्च को आगरा-ब्रज छोड़ दिया और दिल्ली आ गया। एक सप्ताह दिल्ली में रुक अब्दाली 1 अप्रैल को अपने देश रवाना हो गया। साथ में ले गया12 करोड़ रुपया व सुन्दर महिलाएँ। (मराठों का नवीन इतिहास भाग 2 सर देसाई पृष्ठ 364-365)
पानीपत की हार का कारण- सन् 1757 में घटी ये घटनाएं केवल तीन साल बाद हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में पेशवा के महाविनाश का कारण बनी। पेशवा के मुगलों के सहयोगी, हितैषी बन जाने के कारण और लगातार 11 वर्षों से मराठों द्वारा लूटे जाने के कारण एक भी राजपूत, एक भी जाट, एक भी बुन्देला, एक भी सिख ने पानीपत के युद्ध में पेशवा का साथ नहीं दिया। क्योंकि पानीपत में पेशवा का पुत्र विश्वासराव और पेशवा का भाई सदाशिवराव मगुल तख्त की रक्षा के लिये लड़ रहे थे, हिन्दू पद पादशाही के लिये नहीं। मुगलों के 225 वर्षों के धार्मिक अत्याचारों की भुक्तभोगी ये चारों योद्धा जातियाँ मूकदर्शक बनी देखती रहीं और पानीपत युद्ध में एक लाख पचास हजार मराठे गाजर मूली की तरह काट दिये गये। 5000 पवित्र सुन्दर ब्राह्मण महिलाएं अब्दाली के हाथ लगीं और काबुल, कन्धार और ताशकन्द में ले जाकर बेची गईं।
नाना पेशवा से आग्रह किया गया कि पानीपत का युद्ध हिन्दू पक्ष बनाकर लड़ा जाये। ब्रज के हत्याकाण्ड को अभी तीन ही वर्ष बीते हैं, हिन्दू भूला नहीं है। 50 हजार मराठे, 50 हजार राजपूत, 25 हजार जाट, 25 हजार बुन्देले और 50 हजार सिखों की सम्मिलित दो लाख हिन्दू सेना विदेशी अब्दाली और भारतीय धर्मान्ध रुहेलों को मसलकर रख देगी। फिर पानीपत के प्रदेश का हिन्दू भी सहायता करेगा। किन्तु पेशवा के दिमाग पर तो धर्म निरपेक्षता का जुनून सवार था। उन्होेंने पानीपत का युद्ध भारत भारतीयों के लिये लड़ा। अब्दाली ने पानीपत का युद्ध हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक जिहाद के रूप में लड़ा। परिणाम यह हुआ कि मुगल सेनापति अदीना बेग का पुत्र (दिल्ली का मुगल सेनापति) अपने 1000 मुस्लिम सैनिकों के साथ पेशवा का साथ छोड़ अब्दाली से जा मिला। मुगल सेनापति बंगस अपने तीन हजार मुसलमान साथियों के साथ अब्दाली से जा मिला। लखनऊ का शिया मुसलमान नवाब अपनी 15 हजार शिया मुस्लिम फौजों के साथ पेशवा का साथ छोड़ अब्दाली से जा मिला। हिन्दू पक्ष न बनने का इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि लखनऊ की सेना में नौकरी कर रहे काशीराज के 10,000 बैरागी हिन्दू भी अब्दाली के पक्ष में डेरा लगाये बैठे थे, भले ही उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया।
हिन्दू एकता का न होना यह कमी 250 वर्ष पूर्व भी हिन्दू समाज में थी और आज भी है। इसी कमी के कारण देश का विभाजन हुआ और लाखों हिन्दुओं के प्राण गये। यही हाल रहा तो न जाने और कौन सा पानीपत हिन्दुओं की त्रासदी की राह देख रहा है। - ठा. रामसिंह शेखावत
Maratha | Rajput | Jat | Sikkha | Musalman | Koon ki Holi | Prachin Itihas | Hindusm | India | Divyayug |