भारत ने स्वतन्त्रता के बासठ वर्ष पूरे कर लिए हैं। यह प्रत्येक नागरिक के लिये गौरव और प्रसन्नता का विषय है। इन वर्षों में हमने उन सभी स्वतन्त्रता सेनानियों का सम्मान किया, जिन्होंने स्वतन्त्रता के संग्राम में अपना सर्वस्व खोया, प्राण दिये, कारागार की यातनायें सहीं, एक होकर लड़ने और रहने की प्रेरणा दी। प्रश्न यह है कि क्या हमने उन प्राणियों को भी जीने की स्वतन्त्रता दी या उन्हें सम्मानित किया या फिर आजादी के हर्ष में शामिल किया, जिन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में पूर्ण सहयोग दिया था। पर वो बोल नहीं सकते या फिर हम उनकी भाषा समझ नहीं सकते। यहाँ गाय की बात की जा रही है, जिसके प्रति भारत के करोड़ों जनों की अनन्य श्रद्धा है। इसके बारे में वेदों में कहा गया है कि गौएं सदा पवित्र और सबका कल्याण करने वाली होती हैं। कामना की गई है कि गाय रूप सुरभियाँ सभी की हितकारी, पवित्र और पुण्यराशि हैं। तीनों लोकों की माताएं वे गौएं मेरा दिया ग्रास ग्रहण करें। यह गायों के लिए है। अब यह मेरा नहीं रहा।
क्या हम गाय के स्वतन्त्रता संग्राम में दिये योगदान को नकार सकते हैं? क्या भारतीय स्वतन्त्रता का इतिहास 1857 की क्रांति को भुला सकता है, जिसका मुख्य आधार गाय थी और इस विद्रोह ने अंग्रेजों की जड़े हिला ती थी? क्या महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता के युद्ध में गाय की भूमिका को स्वीकारते हुए 28 दिसम्बर 1924 की भूमिका को बेलगांव में गोरक्षा परिषद के अपने अध्यक्षीय भाषण में नहीं कहा था- ’‘कई बातों में मैं गोरक्षा के प्रश्न को स्वराज्य के प्रश्न से भी बड़ा मानता हूँ, ......जब तक हम यह न जान लें कि गोरक्षा किस तरह करनी चाहिए, तब तक स्वराज्य की कोई स्थिति नहीं है।’’ गान्धी जी ने तो यहाँ तक कहा कि ’‘मेरी दृष्टि में गोवध और मनुष्य वध एक ही बात है, ......मैं मुसलमानों के लिए यथाशक्ति दुःख सहने को जो तैयार हुआ, इसका कारण स्वराज्य-प्राप्ति की छोटी बात तो थी ही, लेकिन गाय को बचाने की बड़ी बात भी उसमें थी।’’
पर आज स्वतन्त्रता के बासठ वर्ष बाद गुलामी के दिनों से ज्यादा गोवध हो रहा है। हम स्वतन्त्रता संग्राम में गाय के कारण हुई एकात्मकता के सहयोग को भूल गये हैं। हम अपनी संस्कृति के सहयोग को भूल गये हैं। हम स्वदेशी और विदेशी के बीच फंस गये हैं। हमने दिशा ज्ञान खो दिया है। इसलिए आज भारतीय संस्कृति की दुहाई देना हास्यापद हो गया है। आज दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान, यह पुरानी बात हो गई है। आज दया, विवेक, नैतिकता, आदर्श अपने मापदण्ड बदल रहे हैं। आज की पीढ़ी के अधिकांश युवक-युवतियाँ अपने माता-पिता की भी उपयोगिता, लाभ या नुकसान को ध्यान में रखकर ही उनकी सेवा शुश्रुसा करते हैं। अतः आजकल गोहत्या का विरोध करने वालों से पूछा जाता है कि गौहत्या न करने से उन्हें या फिर देश को क्या लाभ होगा।
बैल की तरह गाय भी घास-फूस ही खाती है एवं मातृ दूध के समकक्ष गुणवत्ता पूर्ण दूध हमें पीने को देती है। आज के इस प्रदूषण युग में विषहरणी गाय मानव को विष से बचाने का एक साधन है। पंजाब विश्वविद्यालय के एक अनुसन्धान के अनुसार गाय का दूध भैंस के दूध से अधिक सुरक्षित है। वहाँ वैज्ञानिकों ने गायों और भैसों को एक जैसे चारे के साथ समान मात्रा में डीडीटी खिलाई तथा पाया कि गाय के दूध में5 प्रतिशत डीडीटी के अंश हैं तथा भैंस को दूध में 12 प्रतिशत। यह देखा गया कि गाय डीडीटी जैसे भयानक विष को अपने शरीर में सोंख लेती है, जिससे उसके दूध पीने वाले को विष कम प्रभावित करे । गाय के दूध में प्रचुर मात्रा में केरोटीन विटामिन होता है, जो भैंस के दूध में नहीं होता और यह कैरोटीन शरीर की परम आवश्यकता है। विदेशी नस्ल की गाय में कैरोटीन की मात्रा कम होती है। गौदूध सिर्फ दूध नहीं अमृत है।
यह निर्विवादित सत्य है कि रासायनिक खाद के बढ़ते उपयोग के कारण धरती का मरुस्थलीकरण हो रहा है। धरती, हवा और जल प्रदूषित हो रहे हैं। इसकी भरपाई कठिन है। रासायनिक खाद का अधिकांश नाइट्रेट का भाग जमीन पर ही रह जाता है। इससे धरती की उपजाऊ क्षमता का क्षय होता है। रासायनिक खाद के कारण उपज को ज्यादा पानी की आवश्यकता पड़ती हैऔर सिंचाई की व्यवस्था के अभाव में तथा सिंचाई पर होने वाले खर्च के कारण उपज पर अधिक लागत आती है, साथ ही उपज भी क्रमशः कम होती जाती है। सारी दुनियाँ अब मानने लगी है कि रासायनिक खाद के कारण अधिक कीटनाशकों की आवश्यकता पड़ती है। इसके परिणामस्वरूप कीटनाशकों पर खर्च तो आता ही है, कीटों के कारण फसल का भी नुकसान होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो यहाँ तक कहा है कि आज का किसान जब दो एकड़ जमीन पर खेती करता है, तो उसकी एक एकड़ की खेती तो कीट खा जाते हैं। इन कीटों का उत्पादक भी ये रसायन ही हैं ।
गाय के गोबर से बनी सेंद्रिय खाद प्राकृतिक होने के कारण पर्यावरण के कीटों से सुरक्षित रखती है। इससे पौष्टिक अन्न उपजता है, इसलिए कीट इसे क्षति नहीं पहुंचा सकते या कम पहुंचाते हैं। गोबर से बनी सेन्द्रीय खाद स्वयं धरती की उपज होने के कारण धरती के साथ समरस हो मरूभूमि को भी उर्वरा शस्य श्यामला बनाने में सक्षम है। नाडेप पद्धति के साथ बैल या एक गाय के 40-50 किलो गोबर से एक टन सेन्द्रिय खाद बन सकती है। इस प्रकार एक गाय या बैल के गोबर से एक वर्ष में 70-80 टन बनी सेन्द्रिय खाद पांच टन प्रति एकड़ के अनुपात में 14-15 एकड़ खेत के लिए पर्याप्त है।
अब यदि एक गाय या बैल के गोबर से बनने वाली 70-80 टन सेन्द्रिय खाद की कीमत उसमें उपलब्ध एन.पी.के. की कीमत रासायनिक खाद में उपलब्ध एन.पी.के. के आधार पर करें तो यह कीमत करीब 50,000 रुपये प्रतिवर्ष प्रति गाय होगी। जहाँ गाय या बैल के गोबर को मनीषियों ने ‘गौमये वसते लक्ष्मी’ कहकर उसकी महत्ता का वर्णन किया है, वहीं उन्होंने गौमूत्र के विषय में कहा है-
मूत्रेषु गौमूत्रं गुणतो अधिकः।
अतो अविशेषात् कथने मूत्रं गोमूत्रमुच्यते॥
आयुर्वेदिक ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में गौमूत्र के औषधीय गुणों का एवं चरक संहिता, राजनिघण्टु, वृद्धवाग्भट्, अमृतसागर आदि ग्रन्थोें में भी इसकी सेवन विधि एवं उपचारिक क्षमता की व्याख्या उपलब्ध है। गौमूत्र की कीटनाशक क्षमता तो आज सभी कृषि शास्त्री मानने लगे हैं। इसलिए आज एक गाय या बैल से पाये जाने वाले वार्षिक गौमूत्र की कीमत कम से कम 10,000 रुपये प्रतिवर्ष तो है ही। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक गाय या बैल एक वर्ष में हमें हजारों रुपयों का मुनाफा दे सकता है एवं इनकी उम्र करीब 20-25 वर्ष की होती है। इसलिए वह अपने जीवन काल में लाखों रुपयों का योगदान करने में सक्षम है।
सेन्द्रिय खाद से पर्यावरण स्वच्छ तथा धरती उर्वरा रहती है, सिंचाई के लिए पानी कम लगता है, धरती के भीतर का जल स्वच्छ रहता है, कीटों के कारण किसान को नुकसान नहीं होता, उसे अलग से खेत में खनिज भी नहीं देने पड़ते, बाढ़ एवं सूखे का प्रकोप किसान पर कम होता है, कृषि उत्पादन ऊंची कीमत पर बिकता है। इन लाभों का हिसाब मैंने नहीं लगाया है, पर ये लाभ कम से कम 30,000 रुपये प्रतिवर्ष प्रति गाय या प्रति बैल से होते ही हैं। उपरोक्त आर्थिक पक्ष देखने के बाद तो यही कहा जा सकता हैकि गौहत्या उपलब्धि नहीं अभिशाप है। गौहत्या भारतीय अर्थतन्त्र की हत्या है। गौहत्या भारतवासियों में विभेद या विभाजन का कुचक्र है। गौहत्या भारत को गरीब बनाये रखने का षड्यन्त्र है। स्वतन्त्र भारत की स्वाधीनता का तरेसठवां वर्ष तभी सार्थक होगा, जब गौवंश हत्या का पूर्ण निषेध होगा और गौहत्या के कारण करोड़ों भारतवासियों की मनोव्यथा का अन्त होगा। - पन्नालाल मूंदडा
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