कुछ समय पूर्व एक रिश्तेदार घर आए। साथ में उनकी पत्नी भी थीं। दो-तीन दिन रूके। कई सालों बाद आए थे। खूब आत्मीयतापूर्ण बातें हुईं। अच्छा लगा। पहले आर्थिक स्थिति पतली थी, क्योंकि न तो कभी खुद ही कोई काम किया और न ही कभी उनके पिताश्री ने कोई काम किया था। जब से उनके बच्चों ने सत्ता सम्भाली, आर्थिक स्थिति में बदलाव आया। बातों से झलकता था कि अब आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी है। लेकिन जब-तक रुके पति-पत्नी दोनों की एक ही शिकायत बार-बार प्रतिध्वनित होती रही, ‘‘हमें तो माँ-बाप और दादा-दादी से कुछ नहीं मिला। हमारी जो सम्पत्ति है वह सब हमने स्वयं अर्जित की है। हमारी समृद्धि हमारी अपनी मेहनत का ही फल है।‘‘ इसी प्रकार की शिकायत करने वाले अनेक लोगों से मुलाकात होती ही रहती है।
कुछ लोगों का कहना होता है कि दे आर कम्प्लीटली सैल्फमेड। यह मात्र अहंकार है। यह आंशिक सत्य हो सकता है, पूर्ण सत्य कदापि नहीं हो सकता। जहाँ तक माँ-बाप और दादा-दादी से विरासत में सम्पत्ति के मिलने की बात है, उसके कई पहलू हो सकते हैं। यदि माँ-बाप और दादा-दादी के पास सम्पत्ति होती तो वह अवश्य ही तुम्हें मिलती। लेकिन यदि उनके पास कुछ था ही नहीं तो वे कहाँ से तुम्हें कुछ देते। एक और प्रश्न उठता है कि क्या मात्र धन-दौलत अथवा पैसा ही वास्तविक विरासत है। धन-दौलत अथवा पैसा न मिलने पर भी माँ-बाप से बहुत कुछ मिलता है। हम ये भूल जाते हैं कि हमारे अस्तित्व में आने के मूल में हमारे माता-पिता ही तो होते हैं। हम जो भाषा बोलते हैं वह हमने किसी स्कूल या मदरसे में नहीं, अपितु माता-पिता के सान्निध्य में ही सीखी होगी। उन्होंने ही उंगली पकड़कर चलना भी सिखाया होगा। उन्होंने अपनी हैसियत के अनुसार न केवल अच्छी पालना की होगी, अपितु शिक्षा-दीक्षा दिलाने का प्रयास भी अवश्य किया होगा। घोर गरीबी की हालत में भी माँ खुद भूखी रहकर अपने बच्चों का पेट भरने की जी-तोड़ कोशिश करती है इसमें सन्देह नहीं। ऐसे माँ-बाप से सम्पत्ति नहीं मिली तो क्या, विशेष परिस्थितियों में जीने का साहस और प्रेरणा तो अवश्य मिली होगी। फिर कैसे कहा जा सकता है कि हमें माँ-बाप से कुछ नहीं मिला?
कुछ लोगों को माँ-बाप से ही नहीं पूरे समाज से शिकायत होती है। उनका पूछना है कि दुनियां ने उनके लिए आखिर किया ही क्या है? ऐसे लोग प्राय: स्वयं में, स्वयं के द्वारा और स्वयं के लिए निर्मित होते हैं। उनके लिए सबकी जिम्मेदारी होती है, लेकिन वे खुद किसी के लिए जिम्मेदार नहीं होते। वो कभी ये सोचने की जहमत नहीं उठाते कि उन्होंने समाज के लिए क्या किया है अथवा करना चाहिए। यह सही है कि आपने स्वयं अपना विकास किया। आपने अपने समय का सदुपयोग किया, खूब मेहनत करके पढाई की और एक अच्छी-सी नौकरी अथवा व्यवसाय में आ गए। यह ठीक है कि आपने पुरुषार्थ किया। वैसे भी आप पुरुषार्थ नहीं करते तो आपका ही अहित होता।
पुरुषार्थ करके आपने अपने लिए अच्छा किया, लेकिन क्या इसके पीछे किसी उत्प्रेरक तत्त्व ने काम नहीं किया? क्या आपको इसके लिए कहीं से प्रेरणा और प्रोत्साहन नहीं मिला? क्या अनेक व्यक्तियों और समाज ने आपको आगे बढने के अवसर उपलब्ध नहीं कराए? जहाँ पर आपने शिक्षा प्राप्त की वे स्कूल, कॉलेज, संस्थान और विश्वविद्यालय क्या आपने स्वयं निर्मित किये थे? जिस कार्यालय अथवा प्रतिष्ठान में आप कार्यरत हैं क्या वह आपके ही परिश्रम का फल है? जिस कार्यालय अथवा प्रतिष्ठान में आप कार्यरत हैं क्या वह आपके ही परिश्रम का फल है? आप जो व्यवसाय कर रहे हैं क्या वह अन्य लोगों के सहयोग के बिना सम्भव है? आप जो उद्योग चलाते हैं, क्या उसके उत्पाद स्वयं उपभोग में लाकर पैसा कमा रहे हैं? माना आपके पास अथाह सम्पत्ति है, पर क्या मात्र पैसे के बल पर बिना एक डॉक्टर की मदद के रोगी होने पर स्वस्थ हो पाए हैं? आप एक डॉक्टर हैं तो क्या बिना मजदूरों की मदद के ये आलीशान घर और क्लीनिक खुद बना सकते हैं? एक मजदूर ही क्या बिना किसान की मेहनत के अन्न का एक दाना भी मुँह में डाल सकेगा? एक किसान को भी अच्छी खेती के लिए न जाने कितने लोगों पर निर्भर होना पड़ता है। एक विद्यार्थी को भी पढने-लिखने और आगे बढने के लिए कॉपी-किताब और कलम-दवात आदि न जाने कितनी चीजों की जरूरत पड़ती है, जिसके लिए वह दूसरों पर निर्भर होता है।
बड़ी-बड़ी चीजों की बात छोड़िये, छोटी-छोटी चीजों और जरूरतों के लिए भी हम दूसरों पर निर्भर होते हैं। एक मामूली-सी लगने वाली कमीज जो हमने पहन रखी है, उसे हमारे तन पर सुशोभित करने में सैंकड़ों लोगों का योगदान है। खेत में बीज बोने से लेकर पौधे उगने और उनसे कपास मिलने तथा कपास से कपड़ा और कमीज बनने के बीच असंख्य हाथों का परिश्रम है। कपड़े से कमीज बनाने के लिए सिलाई मशीन की जरूरत पड़ती है। वह लोहे तथा अन्य कई पदार्थों से बनती है। खनिकों द्वारा लोहा और अन्य खनिज पदार्थ खानों से निकाले जाते हैं। बड़े-बड़े कारखानों में मजदूरों द्वारा लोहा साफ किया जाता है। फिर दूसरे बड़े-बड़े कारखानों में लोहे से बड़ी-बड़ी मशीनों द्वारा छोटी मशीनें बनती हैं।
उन्हीं में से एक मशीन पर कारीगर कपड़े से एक अच्छी-सी कमीज सिलकर आपको पहनाता है। अब जरा सोचिये कि यदि कमीज में बटन न लगे हों तो कैसा लगे? एक बटन जैसी अल्प मूल्य की वस्तु भी ऐसे ही नहीं बन जाती। उसके लिए भी न जाने कितने हाथों के सहारे की जरूरत पड़ती है। एक बटन टाँकने के लिए जो सबसे जरूरी यन्त्र है वह है सुई। कहते हैं सुई से लेकर जहाज तक यानी सुई को सबसे तुच्छ वस्तु समझा जाता है, लेकिन उसी सुई के बिना हमारा काम नहीं चल सकता। हाँ, इस छोटी-सी तुच्छ चीज को तो आप अवश्य ही स्वयं बना लेते होंगे? इसके लिए तो आपको न कच्चे माल की जरूरत है और न कल-कारखानों की और न कुशल कारीगरों की। नहीं मित्र ऐसा नहीं है।
चलिए मान लेते हैं कि समाज ने आपको कुछ नहीं दिया। यहाँ सब स्वार्थी हैं। बिना कारण कोई किसी को कुछ नहीं देता। लेकिन एक जगह है जहाँ से आपको बहुत कुछ मिलता है और वो भी उपयोगी और बिल्कुल मुफ्त। प्रकृति तो हमें बहुत कुछ देती है, पर हम उसे क्या देते हैं सिवाय उसे प्रदूषित और नष्ट करने के। फिर समाज को भी प्रदूषित और नष्ट करें, उसकी उपेक्षा करें तो कौन सी बड़ी बात है? लेकिन वास्तविकता यह है कि हम सब एक-दूसरे के सहयोग के बिना अपूर्ण हैं। हमारे विकास में हमारा पुरुषार्थ ही नहीं अन्य सभी का सहयोग अपेक्षित है। क्या माता-पिता, क्या भाई-बन्धु, क्या समाज और क्या प्रकृति इन सबके सम्मिलित प्रयासों से ही हमारा जीवन गति पाता है। इन सबके सहयोग के बिना एक सांस लेना भी मुमकिन नहीं। आओ इस भ्रम को तोंड़े कि हम सैल्फमेड हैं। हम सबको महत्त्व देंगे और सबकी रक्षा करेंगे तभी हमारी सुरक्षा सम्भव है और नित्यप्रति सोचें कि समाज की हमें बहुत कुछ देन है। अत: हमें भी उस समाज को कुछ न कुछ, जो हमसे बन सकता है अवश्य दें। इसी में शान्ति तथा आत्मकल्याण निहित है। - सीताराम गुप्ता (दिव्ययुग- मार्च 2015)
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