पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के आगरा में हिन्दू संगठनों के घर वापसी कार्यक्रम के बाद धर्मान्तरण का मुद्दा पूरे देश में गरमाया हुआ है। हालांकि धर्मान्तरण से जुड़ी यह घटना देश में पहली बार हुई हो ऐसा भी नहीं है। इससे पहले भी इस तरह की सैकड़ों घटनाएं हुई हैं। इतना ही नहीं हिन्दू संगठनों के इस घर वापसी कार्यक्रम के बाद ही देश के कई हिस्सों में धर्मान्तरण के मामले सामने आए हैं। आगरा जिले में ही हिन्दू परिवारों को ईसाई बनाने की घटना हुई, साथ ही बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम माझी के क्षेत्र में कई दलित ईसाई बनाए गए। राजस्थान में भी इसी तरह का मामला प्रकाश में आया। लेकिन इन मामलों की न तो मीडिया में ज्यादा चर्चा हुई, न ही राजनीतिक दलों ने इन पर कोई हल्ला मचाया। प्रश्न उठता है कि सिर्फ हिन्दू संगठनों के घर वापसी कार्यक्रम पर ही बवाल क्यों? जब परिवार के परिवार हिन्दू से ईसाई बन जाते हैं या फिर कोई व्यक्ति मुसलमान बन जाता है तो विरोध के स्वर सुनाई क्यों नहीं पड़ते? दरअसल, इस विरोध के पीछे वोट बैंक की राजनीति ही ज्यादा दिखाई देती है। अन्यथा क्या कारण है कि जब धर्मान्तरण के खिलाफ कानून बनाने की बात आती है तो इस तरह के लोग अपने पांव पीछे खींच लेते हैं।
विवाद के बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन मोहन भागवत ने भी कहा है कि धर्मान्तरण से एतराज है, उन्हें इसके खिलाफ संसद में कानून लाना चाहिए। जो लोग अन्य धर्मों से हिन्दू धर्म में वापसी का विरोध कर रहे हैं, उन्हें पहले हिन्दू धर्म को छोड़ अऩ्य धर्मों को अपनाने वालों पर रोक लगानी चाहिए। लेकिन क्या घर वापसी कार्यक्रम का आयोजन करने वाले हिन्दू संगठन सन्देह के घेरे में नहीं आते? क्या उनकी नीयत पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए? क्योंकि इनके आयोजनों को देखकर ऐसा लगता है कि इन्हें घर वापसी कार्यक्रम से ज्यादा प्रचार-प्रसार की चिन्ता रहती है। इनके छोटे-छोटे आयोजनों में मीडिया की मौजूदगी तो कम से कम इसी ओर इशारा करती है।
जबकि दूसरी ओर हम देखें कि सैकड़ों लोग धर्मान्तरण कर ईसाई बनते हैं या फिर किसी अन्य मत को अपनाते हैं तो किसी को कानों कान खबर नहीं लगती। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ईसाई मिशनरियाँ देश के अति पिछड़े इलाकों में काम कर रही हैं, वे वहाँ के लोगों को शिक्षा व स्वास्थ्य से लेकर सभी तरह की सुविधाएं उपलब्ध करवा रही हैं। जिन लोगों के लिए रोटी सबसे बड़ा धर्म है, उन्हें क्या फर्क पड़ता है कि वे हिन्दू हैं या ईसाई। उनके लिए तो आवश्यक है दो वक्त की रोटी और अपने बच्चों के लिए शिक्षा। इस तरह के धर्मान्तरण का प्रतिकार शोर मचाकर तो कम से कम नहीं किया जा सकता। इसके लिए खुद को हिन्दू धर्म का अगुवा कहने वाले संगठनों को वंचित तबके के बीच जाकर काम करना होगा। उनकी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करना होगा, तभी जाकर धर्मान्तरण की घटनाओं पर रोक लग पाएगी। जहाँ तक कानून बनाने का प्रश्न है तो तस्करी, हत्या, वेश्यावृत्ति, बलात्कार, गोहत्या रोकने के लिए कई कानून बनाए गए, मगर क्या इस तरह घटनाएं रुक पा रही हैं? बिलकुल नहीं। इसके लिए जरूरी है सरकार और संगठनों की इच्छा शक्ति। सरकारी सुविधाएं वंचित लोगों तक पहुंचें, साथ ही संगठन उन्हें जागरूक करें, ताकि वे न तो किसी मिशनरी के बहकावे में आएं न किसी मु्ल्ला मौलवी के। अन्यथा इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और हो-हल्ला भी मचता रहेगा तथा राजनीति भी चलती रहेगी।
एक प्रश्न यह भी है धर्मान्तरण किया ही क्यों जाए? क्या किसी वंचित की बिना धर्म बदले सेवा नहीं की जा सकती? यदि सेवा का लक्ष्य धर्मान्तरण है, तो ऐसी सेवा के पीछे उद्देश्य भी पवित्र नहीं हो सकता। यह सेवा न तो समाज की है न ही देश की। यह सेवा तो सीधे-सीधे एक धर्म विशेष को आगे बढ़ाने की है। इससे भी कहीं अधिक सम्बन्धित धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या बढ़ाने की है। किसी भी धर्म के मूल को समझे बिना अपने धर्म को छोड़ने वाले एक झटके में अपनी निष्ठाएं बदल लेते हैं, अपने पूर्वज बदल लेते हैं। महात्मा गान्धी ने भी कहा था कि भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है। उन्होंने यह भी कहा था कि ईसाई पादरी अभी जिस तरह से काम कर रहे हैं, उस तरह से तो उनके लिए स्वतन्त्र भारत में कोई भी स्थान नहीं होगा। वे तो अपना भी नुकसान कर रहे हैं। वे जिनके बीच काम करते हैं उन्हें हानि पहुंचाते हैं और जिनके बीच काम नहीं करते उन्हें भी हानि पहुंचाते हैं। सारे देश को वे नुकसान पहुंचाते हैं। गान्धी जी धर्मान्तरण को मानवता के लिए भयंकर विष मानते थे। क्या हमारे राजनेता महात्मा गान्धी के विचारों से कुछ सीखेंगे या फिर वोट बैंक की राजनीति में ही उलझे रहेंगे। हालांकि वोटों के लिए तो इन्हें गान्धी जी के विचारों में भी खोट नजर आ सकती है। - वृजेन्द्रसिंह झाला (दिव्ययुग- फरवरी 2015)
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