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स्वामी दयानन्द के अमृत वचन-18

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Swami Dayanands Amrit Vachan 18

समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत्।
न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयन्तदन्त: करणेन गृह्यते 

यह उपनिषद् का वचन है। जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त जिसने लगाया हैं, उसको जो परमात्मा के योग का सुख होता है वह वाणी से कहा नहीं जा सकता। क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्त:करण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उसको सर्वव्यापी, सवान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिए जो-जो काम करना होता है वह-वह सब करना चाहिए। अर्थात्-तत्राऽहिंसासत्याऽस्तेय ब्रह्मचर्याऽपरिग्रहा यमा:॥ इत्यादि सूत्र पातंजल योगशास्त्र के हैं। जो उपासना का आरंभ करना चाहे उसके लिये यही आरम्भ है कि वह किसी से बैर न रक्खे, सर्वदा सबसे प्रीति करे । सत्य बोले । मिथ्या कभी न बोले। चोरी न करे। सत्य व्यवहार करे। जितेन्द्रिय हो। लम्पट न हो और निरभिमानी हो। अभिमान कभी न करे । ये पांच प्रकार के यम मिल के उपासनायोग का प्रथम अंग है।

शौचसन्तोषतप: स्वघ्यायेश्‍वरप्रणिधानानि नियमा:॥ (योगसूत्र)

राग द्वेष छोड़ भीतर और जलादि से बाहर पवित्र रहे। धर्म से पुरुषार्थ करने से लाभ में न प्रसन्नता और हानि में न अप्रसन्न रहे। प्रसन्न होकर आलस्य छोड़ सदा पुरुषार्थ किया करे। सदा दु:ख-सुखों का सहन और धर्म ही का पालन करे, अधर्म का नहीं। सर्वदा सत्य शास्त्रों को पढे पढावे। सत्पुरुषों का संग करे और ‘ओ3म्’ इस एक परमात्मा के नाम का अर्थ विचारकर नित्यप्रति जप किया करे। ओ3म् का अर्थ- जो अकार, उकार और मकार इन तीन अक्षरों से मिलकर ओ3म् शब्द बना है। यह परमेश्‍वर का सब नामों में उत्तम नाम है। अकार से (विराट) जो विविध जगत का प्रकाश करने वाला (अग्नि:) जो ज्ञान स्वरूप और सर्वव्यापक है (विश्‍व:) जिसमें सब जगत समाया हुआ है। उकार से (हिरण्यगर्भ:) जिसके गर्भ में प्रकाश करने वाले सूर्यादि लोक हैं और जो प्रकाश करने वाले सूर्यादि लोकों का अधिष्ठान (स्थान) है (वायु:) जो अनंत बलवाला और सब जगत को धारण करने वाला है (तेजस:) जो स्वप्रकाशस्वरूप और सब जगत का प्रकाशक है । मकार से (ईश्‍वर:) जो सब जगत का उत्पादक सर्वशक्तिमान स्वामी और न्यायकारी (आदित्य:) जो नाशरहित है (प्राज्ञ:) जो आनंद स्वरूप और सर्वज्ञ है। अपने आत्मा को परमेश्‍वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे । उपरोक्त पांच प्रकार के नियमों को मिला के उपासनायोग का दूसरा अंग कहाता है। इसके आगे छ: अंग योगशास्त्र वा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में देख लेवें।

जब उपासना करना चाहै तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्म विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कंठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न होकर स्थिर होवे।

जब इन साधनों को करता है, तब उसका आत्मा और अन्तकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान बढाकर मुक्ति तक पहुँच जाता है। जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है, वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है। सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्‍वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्‍वर में दृढ स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहाती है।

उपासना का फल- जैसे ठंड से कांपता हुआ पुरुष का अग्नि के पास जाने से ठंड दूर हो जाती है, वैसे परमेश्‍वर की समीपता प्राप्त होने से सब दोष दु:ख छूटकर परमेश्‍वर के गुण, कर्म, स्वभाव के समान जीवात्मा के गुण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्‍वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। आत्मा का बल इतना बढेगा, वह पर्वत के समान दु:ख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सबको सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्‍वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और मूर्ख है, उसका गुण भूल जाना, ईश्‍वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है।• - प्रस्तुति : स्वामी वैदिकानन्द (दिव्ययुग - दिसम्बर 2007)

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