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महर्षि दयानन्द बलिदान दिवस एवं प्रकाश पर्व

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Maharishi Dayananda Sacrificing Day and Light Festival

भारतीय मनीषियों ने मानव समाज के सामाजिकपन को सामने रखकर समय-समय पर विविध पर्वों का प्रचलन किया । क्योंकि पर्वों के आयोजन से मानव समाज में परस्पर सामाजिकता चरितार्थ होती है और इस सामाजिकता से जहाँ आपस में मेल-मिलाप, संगठन होता है, वहाँ प्रसन्नता, उत्साह, आशा का भी संचार होता है ।

भारत में समय-समय पर अनेक पर्व आयोजित किए जाते हैं । इनमें दीपमाला का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह धन-त्रयोदश से लेकर भय्यादूज तक के रूप में भारतीयता के विविध पहलुओं को उजागर करता है । अत: जीवन के विकास के लिए अपेक्षित व्यापार, हस्तकला, शरीर विज्ञान, गोपालन, पवित्रता, प्रकाश, मान्यों का मान, धन और पारस्परिक सम्बन्धों की शुचिता जैसे अनेक तत्त्व इस पर्व में समाए हुए हैं । जो कि इस पर्वमाला द्वारा सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं । मानव समाज किन्हीं एक-दो भावनाओं से चरितार्थ नहीं होता, अपितु मानव समाज को संरक्षित, समृद्ध करने के लिए अनेक अंगों की अपेक्षा होती है ।

दीपमाला का पर्व भारतीय संस्कृति के सर्वांग रूप का प्रतिनिधि बनकर भव्यता के साथ अपने रूप को चरितार्थ करता है । तभी तो दीपमाला से पर्याप्त दिन पूर्व ही वर्षाजन्य सीलन, गन्दगी को दूर करने के लिए सफाई का अभियान चलता है । तब लिपे-पुते भवनों पर कार्तिक अमावस्या की रात को दीपों की पंक्ति सजाई जाती है और लक्ष्मी का पूजन किया जाता है। प्राय: ऐसी मान्यता है कि स्वच्छ और प्रकाशयुक्त गृह में ही लक्ष्मी का निवास होता है । अत: पवित्रता और प्रकाश पूजन का प्रेरक पर्व होने से प्रत्येक प्रकार की गन्दगी को दूर कर सर्वविध पवित्रता का यह पर्व जहाँ प्रतीक है, वहाँ जहाँ कहीं जैसा-कैसा जब भी अन्धेरा हो उसको हटाने वाले प्रकाश का भी यह पर्व परिचायक है ।

सामान्य रूप से दीपावली पर सर्वत्र ऐसा ही जहाँ प्रचलित है, वहाँ कुछ विशेष आयोजन भी इसी पर्व पर आयोजित होते हैं । क्योंकि इसी दिन कुछ ऐसी घटनायें घटित हुई कि उन्होंने इस पर्व को और भी विशेष स्मरणीय बना दिया ।

इतिहास से परिचित पाठक जानते हैं कि दीपमाला वाले दिन ही 1883 में अजमेर में वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जोधपुर में हुए षड्यंत्र के कारण अपने प्राणों का स्वेच्छा से त्याग किया था । इस प्रसंग में एकदम अनेक प्रश्‍न उभरते हैं कि बलिदान शब्द का क्या अर्थ है ? महर्षि दयानन्द के देहान्त के लिए यह शब्द ही क्यों प्रयुक्त किया जाता है ? संसार में हजारों लोग जब मृत्यु का ग्रास बनते हैं, तब महर्षि के प्राण त्याग को षड्यंत्र क्यों कहा जा रहा है ? ऐसी कौन सी उन दिनों परिस्थितियां थीं, जिनके कारण यह मृत्यु सामान्य न होकर षड्यंत्र सिद्ध होती है ? महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में ऐसे कौन से कार्य किए, जिनके कारण उनकी मृत्यु को बलिदान नाम दिया जा रहा है ? महर्षि के जीवन में उनको तिरोहित करने के लिए ऐसी कौन-कौन सी घटनायें घटीं, जिससे यह देहत्याग न होकर बलिदान हो गया ?

जिन महापुरुषों का निधन सामान्य ढंग से न होकर विशेष घटना के कारण किसी षड्यंत्र से होता है, उसके लिए बलिदान शब्द का प्रयोग किया जाता है । बलि का देना बलिदान का प्राथमिक अर्थ है। इसका भाव है- भेंट चढाना, समर्पित करना । बलि शब्द अपने इष्ट (देव) के लिए भेंट चढाये जाने वाले किसी पशु- पक्षी- प्राणी या अन्य वस्तु के लिए जहाँ प्रयुक्त होता है (जैसे कि बलि का बकरा), वहाँ विशेष या सामान्य के लिए आहुति रूप में दिए जाने वाले अन्न के लिए भी प्र्रयुक्त होता है, जैसे कि बलि वैश्‍वदेवयज्ञ में। हाँ, राजा को दिए जाने वाले कर के लिए भी बलि शब्द साहित्य में आया है, जैसे कि प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्। रघुवंश1,18।

बलिदान शब्द का एक और तात्पर्य भी है कि किसी विशेष उच्च लक्ष्य के लिए, दूसरों की भलाई के लिए शारीरिक-मानसिक आदि कष्ट को सहन करना और जीवन तक का दान कर देना या लगाना। अत: अपनी भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, कीर्ति-अपकीर्ति की भी चिन्ता न करते हुए हर स्थिति में अपने उद्देश्य की सिद्धि में जुटे रहना भी बलिदान है । वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम। (अथर्ववेद 12,1,62)

बलिदान शब्द के एक अर्थ (किसी उच्च लक्ष्य के लिए जी जान से जुटना) की दृष्टि से जब हम विचार करते हैं, तो महर्षि दयानन्द के जीवन चरित को पढने, तात्कालिक पत्रिकाओं और परिस्थितियों से स्पष्ट होता है कि जनता को छल, धोखे, बहकावे, भुलावे से बचाने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने धोखे तथा पाखण्ड का पर्दाफाश किया और सच्चाई बताई । इससे जिन लोगों ने इन धन्धों को अपनी कमाई बना रखा था, वे अपने स्वार्थ के द्वार बन्द होते देखकर विरोध करने लगे और महर्षि को नास्तिक बताकर धर्मभीरु जनता को महर्षि से दूर रहने का सन्देश देने लगे ।

महर्षि दयानन्द को अपमानित करने का उन दिनों कौन सा ढंग नहीं बर्ता गया । गाली देना, पत्थर बरसाना, आक्रमण करना, पान आदि द्वारा विष देकर न जाने कितनी बार मारने का यत्न किया गया । और अन्त में महर्षि की मृत्यु भी एक षड्यंत्र से ही हुई, क्योंकि 29 सितम्बर 1883 से 31 अक्टूबर 1883 तक महर्षि की जो शारीरिक स्थिति रही, उससे भी स्पष्ट हो जाता है कि यह सब एक षड्यंत्र का ही परिणाम था । जैसे कि 29 सितम्बर को सोने से पहले दूध पीने के कुछ घंटे पश्‍चात ही महर्षि के पेट में असह्य दर्द आरम्भ हुआ, उल्टी तथा दस्त लग गए और ये कई दिन तक लगातार चले । दवा देने पर यह सब घटा नहीं, अपितु बढा ही । ऐसी स्थिति के लिए ही तो कहा जाता है कि ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज बढता गया । महर्षि के सारे शरीर पर फफोले निकल आए । यह सारी शारीरिक स्थिति किसी विशेष प्रकार के विष के प्रभाव को ही प्रमाणित करती है । अत: यह सब एक योजनाबद्ध रूप से षड्यंत्र किया गया।

महर्षि के मृत्युकाल का यह घटनाचक्र अपने आप में एक अनूठा प्रसंग है। क्योंकि उसको देखने वाले साधारण जन ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े डाक्टर भी दंग थे। इतना अधिक शारीरिक कष्ट, रोग की इतनी गम्भीर स्थिति होने पर भी महर्षि ने बड़ी शान्ति और धैर्य के साथ इसे सहा तथा सहर्ष स्वयं मरण को स्वीकार किया । जिसको देख मनीषी गुरुदत्त नास्तिक से आस्तिक बनकर महर्षि के लक्ष्य को पूर्ण करने में अनवरत तत्पर हो गए।

महर्षि की हत्या का षड्यंत्र दो ओर से किया गया । एक तो रूढिवादियों की ओर से हुआ, क्योंकि महर्षि द्वारा उभारे गए जन जागरण से इनकी कमाई को ठेस पहुंची । अत: अपने स्वार्थ, लोभ के कारण इन रूढिवादियों ने महर्षि का अनेक प्रकार से विरोध किया । केवल गालियां ही नहीं दी गई, अपितु सभाओं में महर्षि पर पत्थर बरसाए गए, कई बार आक्रमण किए और पान-मिठाई आदि द्वारा विष भी दिया ।

इससे भी अधिक गहरा षड्यंत्र विदेशी सरकार की ओर से किया गया, क्योंकि महर्षि ने जिस प्रकार से अपने अतीत के गौरव से जहाँ भारतीय जनता में आत्मविश्‍वास उभारा, वहाँ एकेश्‍वरवाद, वेद प्रचार, महिला शिक्षा प्रसार तथा जात-पात की भावना और छुआछूत के घृणायुक्त व्यवहार का निवारण आदि द्वारा जन जागरण तथा संगठन किया । इससे देश को स्वाधीन कराने की हलचल शुरु हो गई । तभी तो क्रान्तिकारियों और सत्याग्रहियों में अधिक संख्या महर्षि दयानन्द के अनुयायियों की थी ।

उन दिनों के सत्ताधीशों के लिए चिन्ता की बात यह हुई कि महर्षि ने रियासतों के राजाओं को सदाचारी बनाने और संगठित करने का प्रयास प्रारम्भ कर रखा था। जुलाई 82 से महर्षि का अन्तिम स्थिति तक का समय उदयपुर, जोधपुर आदि रियासतों में ही व्यतीत हुआ ।

वहाँ महर्षि ने कई-कई मास रहकर उन-उन राजाओं को नियमित रूप से जहाँ पढाया, वहाँ उनको सदाचारी, संयमी जीवन जीने की विशेष प्रेरणा दी । हाँ, इससे पूर्व भी उन्होंने दो बार 1878, 1881 राजस्थान की अनेक रियासतों में अपनी प्रचार यात्रा की थी । दिल्ली दरबार 1877 के समय भी महर्षि ने रियासतों के राजाओं से मिलकर विचार-विमर्श किया था ।

क्योंकि स्वाधीनता के सम्बन्ध में महर्षि की यह दृढ धारणा थी कि “कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है । अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।’’

महर्षि ने पराधीनता के कारणों और परिणाम का निर्देश करते हुए लिखा है- “अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की कथा ही क्या कहना किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतंत्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है । जो कुछ भी है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है । कुछ थोड़े राजा स्वंतत्र हैं । दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार से दु:ख भोगना पड़ता है ।’’

इन दोनों उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि महर्षि के हृदय में भारत की स्वाधीनता के लिए कितनी तीव्र तड़प थी । भारत की स्वाधीनता को महर्षि सभी आशाओं-समृद्धियों का आधार मानते थे । एतदर्थ भारतीयों को तैयार करने का महर्षि ने हरसम्भव प्रयास किया । इसके लिए अतीत के गौरव के आधार पर जहाँ भारतीयों में आत्मविश्‍वास उभारा, वहाँ भारतीयों को संगठित करने का यथाशक्ति प्रयास किया ।

संगठन के लिए जो-जो सहायक बातें हैं, उनकी ओर सबका ध्यान आकर्षित किया । जैसे कि “चारों वर्णों को परस्पर प्रीति, उपकार, सज्जनता, सुख, दु:ख, हानि, लाभ में एकमत्य रहकर राज्य और प्रजा की उन्नति में तन, मन, धन का व्यय करते रहना।’’ संगठन को फूट में बदलने वाली जो भी कोई बात जहाँ भी दिखाई दी, उसकी तीखी आलोचना की और उसको शीघ्र छोड़ने पर बल दिया । इसीलिए जात-पात के आधार पर होने वाले ईर्ष्या, घृणायुक्त भेदभाव, छुआछूत और विदेशगमन के कारण होने वाले जाति बहिष्कार की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया । इस प्रकार जीवन और समाज को अन्धकार, विनाश में ले जाने वाले अन्धेरे से निकालकर प्रकाश के पथ पर चलने की प्रेरणा दी ।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अनेक प्रकार की निरर्थक उलझनों से समाज को निकालकर सार्थक कर्मकाण्ड को अपनाने की प्रेरणा दी। - प्रा.भद्रसेन वेदाचार्य •(दिव्ययुग - नवंबर 2007)

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