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सुखी रहने का मार्ग (8)

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Way to be Happy

सुख की कुञ्जी- यदि हम अपनी दिनचर्या निश्‍चित एवं व्यवस्थित बना लें, तो हम सरलता से सुखी हो सकते हैं। हमारे दु:खों का एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारी दिनचर्या व्यवस्थित नहीं होती। दिनचर्या के अनियन्त्रित होने से हमारी आवश्यक इच्छायें पूर्ण नहीं होती और तब हम दुखी होते हैं। यदि हम अपनी एक निश्‍चित दिनचर्या बना लें, तो हमारा जीवन बहुत सुखी हो सकता है। इच्छाओं की विविध श्रेणियों के अनुसार हम इनको पाँच भागों में बांट सकते हैं। यदि हम इन पांचों को प्रतिदिन पूर्ण कर लें तो इच्छाओं की अपूर्ति से पश्‍चातापजन्य दु:ख नहीं होंगे कि मैने अमुक कार्य तो अभी या आज तक किया ही नहीं?

इच्छाओं की पाँच श्रेणियाँ हैं- 1. शारीरिक विकास। 2. भौतिक समृद्धि। 3. आत्मिक उन्नति। 4. सामाजिक कर्त्तव्य और 5. आस्तिक बुद्धि। हाँ, रुचि के भेद से इनके क्रम में मतभेद हो सकता है, पर इनकी उपयोगिता में सन्देह नहीं। आइए ! अब क्रमश: इन पर विचार करते हैं।

पहला सुख निरोगी काया- जीवन का पहला और सबसे बड़ा सहज आनन्द है- स्वस्थता। जितने भी सांसारिक सुख एवं कार्य हैं, उनकी प्राप्ति का आरोग्यता प्रथम साधन है। क्योंकि इसके होने पर ही सब प्रकार के सुख प्राप्त किए जा सकते हैं। स्वस्थ ही आत्मिक साधना तथा हर प्रकार के भोगों को भोगने में समर्थ होता है। मानव अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए अनेक वस्तुओं का संग्रह करता है। वह संग्रह किसी को तभी सुख दे सकता है, जब वह निरोग होता है। रोगी किसी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं कर सकता। रोगी और कुछ क्या करेगा, वह तो अपने आपको भी सम्भाल नहीं सकता। तभी तो कहा है-
गर दौलतों से भरा है तेरा तमाम घर।
बीमार है तो खाक से बदतर है यह मगर॥

रोगी के बस का और तो क्या, वह तो आराम से गद्दों पर भी लेटा नहीं रह सकता अर्थात नींद का आनन्द भी स्वस्थ ही उठा सकता हैं। अतएव चरककार (निदान 6,7) ने कहा है- अन्य सब कुछ छोड़कर प्रथम शरीर की देखभाल करे, क्योंकि उसके बीमार होने पर सब कुछ होते हुए भी बेकार हो जाता है।
सर्वमन्यत् परित्यज्य शरीरमनुपालयेत्।
तदभावे हि भावानां सर्वाभाव: शरीरिणाम्॥

स्वस्थ की परिभाषा- भारतीय शास्त्रकारों का विचार है कि मानव जीवन के चार उद्देश्य हैं, जिन को पुरुषार्थचतुष्टय भी कहते हैं और वे हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अन्य योनियों की अपेक्षा मानव जीवन की सार्थकता तभी है, जब वह इस अनमेाल चोले को प्राप्त करके इन चारों पुरुषार्थों को साधने का यत्न करता है। हाँ, पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि का मुख्य साधन होने से यह विचारना अत्यावश्यक हो जाता है कि स्वस्थ किसको कहते हैं? इसका सुन्दर उत्तर देते हुए सुश्रुतकार (सूत्र 15.47-48) ने कहा है- भूख लगना, खाए-पिए का सरलता से पचना, मल-मूत्र और अपानवायु का स्वाभाविक रूप से विसर्जित होना। शरीर का हलकापन, वात-पित्त-कफ का शरीर के अनुपात से होना, जठराग्नि का पाचन क्रिया को उचित प्रकार से करना, शरीर के धारक रस-रक्त-मांस-मज्जा-मेद-अस्थि और वीर्य नामक सातों धातुओं का अपने-अपने अनुपात से होना। उपर्युक्त क्रियाओं के स्वाभाविक रूप से होने के कारण जिसके आत्मा, मन और इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, वही स्वस्थ है।

स्वस्थ= स्व +स्थ, जो अपने आप में स्थित है अर्थात जो व्यक्तिगत कार्यों को करने के लिए दूसरों का मुँह नहीं ताकता। स्वस्थ अपने आप पर निर्भर होता है और रोगी दूसरों पर। जैसे कि अत्यधिक शराब पी लेने पर शराबी अपने आपे में नहीं रहता। उसके हाथ पैर और वाणी आदि अंग लड़खड़ाते हैं तथा उसको कुछ भी सुध-बुध नहीं रहती कि मैं किसको क्या कह रहा हूँ? सु+अस्+थ- जो अच्छी स्थिति में है अर्थात जिसकी शारीरिक मशीन अपना कार्य ठीक प्रकार से करती है, वही स्वस्थ है। जैसे एक अच्छा यन्त्र अपना कार्य ठीक प्रकार से करता है।• (क्रमश:) - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग - दिसंबर 2014)

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