आरोग्यता का मार्ग- सुखदायक स्वास्थ्य विशेषत: चार बातों पर निर्भर है। पवित्रता और प्रसन्नता के साथ आहार, व्यायाम, ब्रह्मचर्य और निद्रा।
पवित्रता- शुद्धि, सफाई, शुचिता, पवित्रता, स्नान, संस्कार, तप शब्द भारतीय साहित्य में बहुत अधिक प्रयुक्त हुए हैं। इनका अभिप्राय सफाई ही है। शुद्धि केवल शिव-सुन्दर और सत्य का मूल ही नहीं, अपितु सुख प्राप्ति और दु:ख निवृत्ति का भी कारण है। मल, प्रदूषण रोगों की जड़ है और संक्रामक रोग तो गन्दगी से ही होते हैं, तभी तो रोग का एक नाम विकार भी है। सभी प्रकार के रोगों का मूल कारण दूषित मल है, जो कि अनेकविध गलत व्यवहारों और अनुपयुक्त खान-पान, रहन-सहन से होते हैं। रोगों के मुख्य रूप से दो कारण हैं- अस्वच्छता और कुपोषण। अस्वच्छता बहुत कुछ हमारे रहन-सहन की गन्दगी के कारण है। हमारे नगरों की नालियों में बहते हुए मल तथा हर तरह का कूड़ा, गलियों-सड़कों पर पड़ा थूक-बलगम और हर प्रकार का गन्द इसके गवाह हैं कि हम जहाँ-कहीं, जब-कभी गन्दगी बिखेरते रहते हैं जैसे कि हमें सफाई और स्वास्थ्य से प्यार ही न हो। आज के प्रदूषण का मूल अस्वच्छता भी है।
अत: शारीरिक रोगों और उनसे होने वाले दु:खों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए शरीर, भोज्य पदार्थ, वस्त्र, बर्तन, भवन आदि व्यवहार की वैयक्तिक वस्तुओं और सामूहिक गलियों, सड़कों, यानों, नगरों की सफाई की ओर भी ध्यान देना चाहिए।
प्रसन्नता- स्वास्थ्य और सुख प्राप्ति के लिए प्रसन्नता एक बहुत बड़ा वरदान है। तभी तो कहते हैं कि प्रसन्नता में जीवनी शक्ति है, जो कि हर एक के लिए तथा विशेषत: बीमार के लिए बहुत मूल्यवान है। अत: ‘हंसो और स्वस्थ रहो‘ का सन्देश बहुत ही लाभदायक है।
जिसे जिन्दगी में हंसना न आया।
उसे जीना भी न आया।
मानव जीवन के उत्तरदायित्वों और संघर्षों से बोझिल, निराश, उदास के लिए हलके होने का सरल साधन-मुस्कान ही है। तभी तो कहते हैं-
जिन्दगी है गम में हंसना-ऐ बहार।
मुस्करा कर गुञ्चा यह समझा गया॥
जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है।
मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं॥
प्रसन्नता का मन एवं विचारों से विशेष सम्बन्ध है, तभी तो सुमन शब्द फूल और प्रसन्नता के लिए प्रयुक्त होता है। सुमन जब खिला हुआ होता है, तो वह सबको अच्छा लगता है, उसको देखकर सब प्रसन्न होते हैं। इसीलिए ‘फूलों से तुम हंसना सीखो‘ वाक्य अपनी सार्थकता दर्शाता है। सुमन की तरह जब मन सु= अच्छा, खिला हुआ होता है, अन्दर-बाहर से एक सा होता है, तो सभी प्रसन्न होते हैं। अत: ‘हंसो और हंसने से जी हल्का होने दो‘ की सीख सुखी जीवन के लिए एक आवश्यक पाठ है, क्योंकि हंसी ही में खुशी छिपी है।
प्रसन्न रहने के लिए चिन्ता से बचना सबसे जरूरी है, क्योंकि चिन्ता प्रसन्नता को खा जाती है। तब सुखी जीवन का खिला फूल मुरझा जाता है। कार्य की अधिकता मनुष्य को नहीं मारती, बल्कि चिन्ता मारती है। चिन्ता ने आज तक कभी किसी कमी को पूरा नहीं किया। आज की परिधि में जीना ही चिन्ता की अचूक औषधी है।
आरोग्यता का पहला साधन आहार- हम अपने व्यवहार की सिद्धि के लिए हर समय शरीर का उपयोग करते हैं। इससे उसकी शक्ति का ह्रास होता है। शक्ति की पूर्ति, शरीर विकास, सुरक्षा एवं शक्ति संचय के लिए आहार की आवश्यकता होती है। खाया हुआ भोजन रस-रक्त आदि में परिणत होकर शरीर का भाग बनता है। पौधे के विकास के लिए जैसे खाद, भूमि के पौष्टिक तत्त्व, धूप और जल की आवश्यकता होती है तथा जिस प्रकार के वे होते हैं, वैसा ही पौधे का रूप होता है। ऐसे ही हमारा शरीर तथा स्वास्थ्य प्राप्य भोजन और सुविधाओं पर आश्रित है। अत: आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख, प्रीति बढ्ाने वाला रुचिकर, स्निग्ध, पौष्टिक आहार ही उत्तम है।
शारीरिक विकास की दृष्टि से घृत, दुग्ध, फल, अन्न आदि खाद्य-पेय पदार्थों को अपनी पाचन शक्ति और वात-पित्त एवं कफ प्रवृत्ति के अनुरूप ग्रहण करना चाहिए। अच्छे पोषक तत्त्व विविध गुणों के भेद से प्रोटीन और ए.बी.सी. विटामिन जीवन सत्त्व पुकारे जाते हैं। प्रोटीन, विटामिन, क्षार, चिकनाई, लोह, मिष्ट युक्त आहार ही सन्तुलित भोजन कहलाता है। शास्त्रों में भोजन (=अन्न) को प्राण, ब्रह्म, ज्येष्ठ, वाज, यश, औषध, मधु, विराट कहा है, जो कि आहार के महत्त्व को दर्शाते हैं। शक्तिवर्धक, रोगनिवारक और सुपाच्य होना भोजन की तीन विशेषतायें हैं।
हमारा भोजन कैसा हो के उत्तर रूप में एक आख्यान प्रचलित है। यहाँ कोऽरुक्, कोऽरुक कोऽरुक? अर्थात् कौन स्वस्थ है का रहस्यपूर्ण उत्तर देते हुए कहा है- हित भुक् मित भुक् ऋत भुक् न रोगी स्यात्। अर्थात् अपने शरीर की प्रकृति के अनुरूप हितकर, परिमित और शुद्ध या अपने परिश्रम की सच्ची कमाई से खाने वाला रोगी नही होता है। अर्थात भोजन के सम्बन्ध में तीन बातें आवश्यक हैं। पहली बात है कि हमारा आहार शरीर के लिए हितकर हो तथा लाभ, बल, पुष्टि देने वाला हो। दूसरी बात है कि वह अपनी पाचन शक्ति के अनुरूप जितना और जैसा हम पचा सकें वैसा हो, न कि खाते समय स्वादवश या लोभ से हम खा जायें और बाद में बिना पचे उलटी तथा दस्तों के रूप में बाहर निकल जाए। तीसरी आवश्यक बात है कि हितकर, परिमित भोजन भी हम नियमित रूप से लें। यह नहीं कि किसी दिन दस बजे खाया और किसी दिन दो बजे। विशेष कारण या अपवाद तो कभी कभार ही हो। (क्रमश:) - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग- जनवरी 2015)
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