महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने महान् ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय समुल्लास में शिक्षा के अन्तर्गत लिखते हैं कि जन्म से 5 वर्ष तक सन्तान को माता तथा 6 वर्ष से 8 वर्ष तक पिता शिक्षा करे और 9 वर्ष के आरम्भ में अपने सन्तान का यज्ञोपवीत करके आचार्य कुल में अर्थात् पाठशाला में द्विज बनाने हेतु भेज देवें।
माता पाँच वर्ष तक अपने बच्चे को अपने पास रखकर विशेष निगरानी रखकर वर्णोच्चारण शिक्षा देती है। अर्थात् भाषा का ज्ञान कराती है। इसलिये व्यवहार में समाज के अन्दर बच्चे से उसकी भाषा के बारे में पूछा जाता है कि तुम्हारी मातृभाषा क्या है? यह नहीं पूछा जाता कि तुम्हारी पितृभाषा क्या है? क्योंकि बालक भाषा माँ से ही सीखता है। 6 वर्ष से 8 वर्ष तक बच्चा पिता से व्यावहारिक ज्ञान सीखता है। जब 8 वर्ष का होता था तब उसे आचार्य (गुरुकुल) के समीप लेकर माता-पिता जाते थे। वहाँ वह द्विज बनता था अर्थात् उसका दूसरा जन्म होता था।
विद्यार्थी का दूसरा जन्म आचार्य के गर्भ (गुरुकुल) में होता था। पहले यह राज्य व्यवस्था थी कि आठ साल का बालक और 60 साल का बूढा व्यक्ति (वानप्रस्थी) घर में नहीं रहते थे, बल्कि गुरूकुल में रहते थे। 8 साल का ब्रह्मचारी पढने के लिये जाता था और 60 साल का बूढा व्यक्ति वानप्रस्थी पढाने के लिये जाता था। आज दुर्भाग्य है कि चारों ओर गुरुकुल-गुरुकुल नहीं रहे, बल्कि चारों तरफ स्कूल अर्थात् ईसा का कुल खुल गए, जहाँ आज भी मैकाले की शिक्षा पद्धति के अनुसार हाय-हाय बाय-बाय की शिक्षा दी जा रही है, जिसका फल आज सबके सामने है। राज्य व्यवस्था के अनुसार महाराज मनु लिखते हैं कि-
कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्।
अर्थात् राजा अपने राज्य में कानून व्यवस्था के अनुसार उन माता-पिता को आर्थिक दण्ड दे जो अपने बच्चों को नहीं पढाते, उनसे उन बच्चों को छीन ले। क्यों? राज्य के आर्थिक सहयोग से पढाने के लिये, न कि उनके प्रेम व वात्सल्य को कम करने के लिए, बल्कि उनके जीवन रक्षा के लिये।
माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठित:।
न शोभते सभामध्ये हंस मध्ये बको यथा॥
वे माता-पिता अपने बच्चों के शत्रु हैं जिन्होंने अपने बच्चों को ठीक से नहीं पढाया, क्योंकि वह विद्वानों की सभा में वैसे ही तिरस्कृत और अपमानित होते हैं जैसे हंसों के बीच में कोई बगुला होता है।
महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि-
विद्या विलास मनसो धृतशील शिक्षा:।
सत्यव्रता रहित मान मलापहारा:।
संसार दु:ख दलनेन सुभूषिता ये॥
धन्या नरा विहित कर्म परोपकारा:॥
धन्य हैं वे नर व नारी जिनका मन हमेशा विद्या के विलास में ही तत्पर रहता है और सुन्दर- सुशील स्वभाव से युक्त होकर सत्य भाषण आदि नियमों को पालन करने में तत्पर रहते हैं। अभिमान रूपी अपवित्रता से रहित होकर वे अन्य लोगों के मन की मलिनता को दूर कर सत्योपदेश विद्या का दान देकर सुन्दर गुणों को धारण कराकर संसार के दु:खों को दूर करते हैं।
माता पिता की अपनी सन्तान कन्या है तो कन्या गुरुकुल में और बालक है तो उसे बालकों के गुरुकुल में लेकर जाते थे। उस समय ब्रह्मचारी विद्या प्राप्ति के लिये श्रद्धा से अपने हाथों में तीन समिधा लेकर अर्थात् समित् पाणि होकर गुरु चरणों में नतमस्तक होकर उपस्थित होता था-
तद्विज्ञानार्थं गुरूमेवभिगच्छेत्।
समित्पाणि श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥
अर्थात् उस परम् तत्व को जानने के लिए आचार्य के पास पहुँचा जाता था जो श्रोत्रिय (वेदज्ञ) हो, ब्रह्म में जिसकी निष्ठा हो ऐसे गुरु के समीप समित्पाणि होकर उपस्थित होना होता था। समिधा ज्ञान का प्रतीक है। ब्रह्मचारी अपने आपको ज्ञानरूपी अग्नि में व तपस्यारूपी भट्टी में तपाने के लिये तैयार हो गया है, वह अपने आपको मिटाने के लिये तैयार हो गया है। उस ब्रह्मचारी को लेकर उसके माता-पिता आचार्य के समीप जाकर निवेदन करते हैं कि हे आचार्य! भले ही हम इसके जन्मदाता माता-पिता हैं, परन्तु इसके जीवन के रंग भर नहीं पाएँगे, इसके जीवन में रंग तो आप ही भर पाएँगे। आज से आप ही इसके माता-पिता हैं, इसे स्वीकार करो। (क्रमश:) - आचार्य चन्द्रमणि याज्ञिक (दिव्ययुग- जनवरी 2015)
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