शिक्षा का मूल उद्देश्य एक सामर्थ्यवान तथा चरित्रवान मनुष्य का निर्माण करना है, जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो सके और समाज में तथा स्वयं के जीवन में शान्ति स्थापित हो सके। क्या कारण है कि आज चारों तरफ शिक्षा के केन्द्र होते हुए भी चारों तरफ अशान्ति, अन्याय, अनाचार, अत्याचार और बलात्कार जैसी घटनाएं समाज में फैलती जा रही हैं? लगातार हमारा नैतिक पतन हो रहा है। संस्कृति, संस्कार और सभ्यता धुमिल होती जा रही हैं। इससे ज्ञात होता है कि शिक्षा दिशाहीन एवं लक्ष्यविहीन दी जा रही है। कहना चाहिए कि शिक्षा दी ही नहीं जा रही है, बल्कि बेची जा रही है। शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। क्योंकि शिक्षा के मूल में धन का लोभ आ गया है, जिसके कारण चारों ओर अशान्ति व्याप्त है। जहाँ लोभ है वहाँ पाप है। धन कमाना गलत बात नहीं है, लेकिन धन ही सब कुछ नहीं है। धन के साथ-साथ धर्म की भी साधना हो। जिसकी नींव ही धन हो, वहाँ पढाने वाला भी धन का लोभी हो, पढने वाला भी धन का लोभी हो, जहाँ केवल अर्थकरी विद्या अर्थात् धन ही कमाने की शिक्षा दी जाती है वहाँ सुख और शान्ति की परिकल्पना कैसे की जा सकती है? शिक्षा का सार सत्य की उपलब्धि कराना है, इसलिये कहा जाता है- सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति को दिला दे।
मानव जीवन का चर्मोत्कर्ष लक्ष्य खान-पीना और मौज उड़ाना नहीं, बल्कि समस्त दु:खों से छूटकर सत्य अर्थात् मोक्ष प्राप्ति करना है। दु:ख क्या है? अविद्या! दु:खों का जड़ अविद्या है। प्रश्न यह है कि अविद्या को कैसे दूर किया जा सकता है? सत्य प्राप्ति की तीन सीढियाँ हैं- विद्या, शिक्षा और दीक्षा।
सत्य प्राप्ति की प्रथम सीढी है विद्या। विद्या क्या हैं? विद्या किसे कहते हैं? विद्या शब्द संस्कृत के विद् ज्ञाने (ज्ञानार्थक) धातु से बना है। जिसका अर्थ है विद्यते अवगम्यते यया सा विद्या अर्थात् जिसके द्वारा किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को ठीक-ठीक जाना जाए वह विद्या है। यथार्थ ज्ञान को ही विद्या कहा जाता है और इसके विपरीत अविद्या है अर्थात् अज्ञानता है। अविद्या अर्थात् अनित्य वस्तु में नित्यता की प्रतिति करना, अशुचि में शुचिता, विषय वासना रूपी दु:ख में सुखानुभूति करना, अनात्मतत्व में आत्मबुद्धि रखना ये सब अविद्या है। इन दोनों के स्वरूप को यथार्थता से जानना और दु:खों से छूटने का प्रयास करना चाहिये। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय में कहा है-
विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदो सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥
जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप (परिणाम) को यथावत जानता है वह अविद्या रूपी कर्मोपासना से छूटकर विद्या के द्वारा मोक्ष अर्थात् अमृत सत्य को प्राप्त हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि विद्या कैसे प्राप्त की जाये? तरीका क्या है? विद्या कैसी आएगी, कहाँ से आएगी? इसके लिये हमें अपनी प्राचीन परम्परा को अवलोकन करना चाहिए।
प्राचीन काल में यह परम्परा थी कि समाज को सुन्दर और व्यवस्थित बनाने के लिये मानव जीवन को 100 वर्ष मानकर उसको चार भागों में विभक्त किया जाता था। जन्म से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्याश्रम, 25 से 50 तक गृहस्थाश्रम, 50 से 75 तक वानप्रस्थाश्रम तथा 75 से 100 वर्ष पर्यन्त संन्यास आश्रम का विधान किया गया था। चारों आश्रमों में मनुष्य तप करता था, यम-नियमों का पालन करता था।
प्राचीन समय में दो तरह से विद्या दी जाती थी। एक माँ के गर्भ से, दूसरा आचार्य के मुख रूपी गर्भ से। विद्यार्थी का प्रथम गुरु माँ होती है। माता का गर्भ ही सन्तान की प्रथम पाठशाला होती है। इसीलिये माता को माता निर्माता भवति कहा जाता है। अर्थात् माता निर्माण करने वाली होती है। जब सन्तान माता के गर्भ में होती है, तभी से माँ अपनी सन्तान को सुन्दर भावों से, सुन्दर संस्कारों से ओत-प्रोत कर देती है। क्योंकि माता के द्वारा जो संस्कार बच्चे को मिल जाते हैं वह अमिट हो जाते हैं। इसलिये कहा जाता है कि-
माता के सिखाए पूत होत कपूत हैं।
माता के सिखाए पूत होत सपूत हैं॥
माता जैसा चाहे वैसा सन्तान का निर्माण कर सकती है, इसलिये सन्तान की प्रथम गुरु माँ होती है। (क्रमश:) - आचार्य चन्द्रमणि याज्ञिक (दिव्ययुग-दिसंबर 2014)
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