ओ3म् आस्थापयन्त युवतिं युवानः शुभे निमिश्लां विदथेषु पज्राम्।
अर्को यद्वो मरुतो हविष्मान् गायद् गाथं सुतसोमो दुवस्यन्॥ (ऋग्वेद 1.167.6)
शब्दार्थ- (मरुतः) हे सैनिको ! (विदथेषु) यज्ञोत्सवों में (सुतसोमः) आपके सत्कारार्थ उत्तम पदार्थों को लिये हुए (दुवस्यन्) आपकी परिचर्या करता हुआ (हविष्मान्) नाना प्रकार की सम्पदाओं से युक्त (अर्कः) आपकी पूजा के लिए उत्सुक गृहपति (यद्वो गाथम्) जो आपकी गाथा (गायत्) गाता है वह यह है कि तुम (युवानः) उच्छृंखल चेष्टाओं से युक्त युवक होते हुए भी (शुभे) शुभ कर्मों में (निमिश्लाम्) प्रेमपूर्वक रत (पज्राम्) बलवती, सुन्दरी (युवतिम्) युवती को (आस्थापयन्त) उत्साहित करते हो।
भावार्थ- वेद के अनुसार सैनिकों का चरित्र इतना उच्च और महान् होना चाहिए कि जब वे शत्रुओं को जीतकर लौटें तो उनके स्वागत के लिए नाना प्रकार के पदार्थों को धारण किये हुए गृहपति गर्व के साथ यह कह सकें कि विजित देश की कोई भी युवती हमारे यौवन से भरपूर किसी भी सैनिक के विषय में यह नहीं कह सकती कि हमारे किसी भी सैनिक की किसी भी चेष्टा से भयभीत होकर उन्हें अपना अमुक कार्य छोड़ना पड़ा।
यह है वैदिक योद्धा का आदर्श ! छत्रपति शिवाजी और वीर दुर्गादास राठौर इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। यह तो युद्ध का आदर्श है। परन्तु आज तो बिना युद्ध के ही शान्ति के वातावरण में भी युवतियों का मार्ग में चलना कठिन है। उन पर आवाजें कसी जाती हैं, उन्हें कुदृष्टि से देखा जाता है। आओे! संसार को सन्मार्ग पर लाने के लिए हम अपने चरित्रों को आदर्श बनाते हुए वेदों का नाद बजाएँ। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- जनवरी 2016)
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