वेद सृष्टि विद्या का दूसरा नाम है। इन विद्याओं का अपरिमित विस्तार है। वेद विद्याओं का अपरिमित विस्तार मनुष्य जीवन के विभिन्न आयामों का स्पर्श करने वाला है। मानवीय जीवन से सम्बन्धित धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सिद्धान्तों और विश्वासों का अविर्भाव वेदों में देखने को मिलता है। इस दृष्टि से वेद भारतीय जीवन के मूल उत्स हैं।
सृष्टि के प्रारम्भ में जब कभी मनुष्य हुआ, वह समय उसकी प्रथम अवस्था का रहा। कालचक्र की गति ने उसे मनुष्य-समूह में परिवर्तित कर दिया। मनुष्य परिवार समूह से ग्राम, प्रान्त और राष्ट्र तक पहुंच गया। इसके बाद का क्रम है- अनेक राष्ट्रों का संघ या विश्व संघटन। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ यह वैदिक चिन्तन है। यह प्रक्रिया क्षण में हुई, यह मानना कठिन है। आवश्यक समय जरूर लगा। समय के चक्र में ऋषियों के चिन्तन का क्रम भी विकसित हुआ।
अथर्ववेद की ऋचा कहती है-
भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विद तपो दीक्षामुप निषेदुरग्रे।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसन्नमन्तु॥ अथर्ववेद 18.41.1
वैदिक आत्मज्ञानी ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जीवन के कल्याण के लिये अपने सम्मुख ध्येय को रखा, तप किया, दीक्षित हुए जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र संकल्पना साकार हुई, जिसमें ओज, बल और प्राण हैं। ‘राट्‘ इस शब्द से राष्ट्र शब्द बना। ब्राह्मण, संहिताओं में ‘राष्ट्र संकल्पना‘ अधिक स्पष्ट हुई है। सार्वभौम राजा के अधीन जितनी भूमि है, वह राष्ट्र कहलाता है (तैत्तिरीय संहिता 7.5.18.1)। उत्तम राष्ट्र की संकल्पना और अधिक स्पष्ट होती है, इस सम्बन्ध में अथर्ववेद कहता है- पृथिवी, जन, संस्कृति मिलकर राष्ट्र बनता है। तेज और बल राष्ट्र भावना को पुष्ट करते हैं। (अथर्ववेद 12.3.10)
अपना शरीर एक राष्ट्र है, ऐसा यजुर्वेद मानता है। रुधिर, मांस, हड्डियाँ, कई कोश, अवयव, इन्द्रियाँ आदि का समुच्चय ही शरीर कहलाता है और एक तत्त्व है प्राण, जो शरीर को जीवन प्रदान करता है। इस शरीर की राष्ट्रदेह से तुलना की गई है। (यजुर्वेद 25.8) शरीर की इन्द्रियों को भोग चाहिएं तभी वे कार्य करती हैं कार्य करती हैं तभी वे थक भी जाती हैं। ऐसा प्राण (आत्मा) का नहीं है। प्राण शरीर के रक्षण के लिए सदा विचरण करता है। विचरण में वह कभी थकता नहीं, वैसे उसे विश्राम की आवश्यकता भी नहीं है। वैसा ही राष्ट्र का है। राष्ट्र के कई अंग हैं- मनुष्य, परिवार, ग्राम, प्रान्त और राष्ट्र। इसके साथ जुड़े हुए गृहप्रमुख, समूहप्रमुख, ग्रामप्रमुख, प्रान्तप्रमुख, राष्ट्रप्रमुख भी आये। उनका अपने-अपने स्तर का शासन प्रचलित हुआ। विभिन्न स्तरों पर कर्मचारी, अधिकारी, मन्त्री, मन्त्री मण्डल, सभापति, राजप्रमुख, राष्ट्रप्रमुख भी जुड़ गये। यह राष्ट्र का पूर्ण स्वरूप है।
यजुर्वेद ‘राष्ट्र एक देह है‘ इस संकल्पना को और अधिक स्पष्ट करता है। ‘यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे‘ जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है। मनुष्य देह और राष्ट्र देह को एक मानकर यह निर्देश दिया गया कि हम अपनी मातृभूमि को अपना देह मानें। देह के समान ही राष्ट्र की सुरक्षा करें। (यजुर्वेद 25.9)। इस देह में सिर, बाहु, पेट और पांव-ये चार अवयव हैं। उसी तरह राष्ट्र में ज्ञानी, वीर, व्यापारी और सेवा करने वाले कर्मचारी भी हैं। ये चार वर्ण कहलाए गए। ये चार वर्ण गुण-कर्म-स्वभाव-योग्यता के अनुसार हैं। वेद का यह मौलिक चिन्तन कालान्तर में जन्मगत बन गया है और अनेक जातियों का उदय हुआ। (यह एक अलग ही विषय है, इस लेख का प्रमुख अंग नहीं है)।
वेद उत्तम राष्ट्र की संकल्पना में पृथ्वी को प्रथम स्थान देते हैं। इस पृथ्वी का आधार क्या है? पृथ्वी किसने धारण की है? पौराणिकों के अनुसार पृथ्वी ‘शेष‘ और ‘उक्ष‘ पर आधारित है। उनकी दृष्टि में शेष सांप है और उक्ष बैल है। यह गलत धारणा है। ‘शेष‘ का वैदिक अर्थ है- परमात्मा। सृष्टि के प्रलय के बाद भी वह ‘शेष‘ रह जाता है। इस अर्थ में पृथ्वी ‘शेष‘ है। ‘उक्ष‘ का अर्थ है- सूर्य का पृथ्वी द्वारा सेचन। राष्ट्र की धारणा में पृथ्वी महत्त्व रखती है। पृथ्वी को सेचन समृद्ध करने की भावना भी उतनी ही महत्त्व की है। ‘भूमे मातः‘ (अथर्ववेद 12.1.63), ‘माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः‘ (अथर्ववेद 12.1.12)। वेद की ऋचाएं कहती हैं- भूमि मेरी माता, हम उसके पुत्र हैं। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि सर्वत्र मातृभूमि के यश की रक्षा करें। ‘पृश्निमातरः मर्त्तासः ... स्तोता वो अमृतः स्यात्‘ (ऋ. 1.38.4) मातृभूमि को अपनी माता मानने वाला स्तोता अमर हो जाता है। ‘इळा सरस्वती मही तिस्रो देवी मयोभुवः‘ मातृभूमि, मातृसंस्कृति, मातृभाव ये तीन देवियां हैं, जिनके अस्तित्व से ही राष्ट्र का निर्माण होता है, उत्कृष्ट और उन्नत होता है (ऋ. 1.13.9)।
वेद की दृष्टि में राष्ट्र और उसके स्वराज्य एवं सुराज्य के लिए ‘संगठन‘ यह महत्त्वपूर्ण प्रथम कसौटी है। यदजः प्रथमं सम्बभूव स ह तत्स्वराज्यमियाय। यस्मान्नान्यत्परमस्ति भूतम्। (अथर्व. 10.7.31) देशवासियों के संगठित हुए बिना राष्ट्रीय भावना पनप ही नहीं सकती और न राष्ट्र सुदृढ-बलशाली ही बन सकता है। ऋग्वेद संगठन को अधिक स्पष्ट करते हुए कहता है-
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
प्रेम से मिलकर चलो, बोलो सभी ज्ञानी बनो।
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
हों विचार समान सबके, चित्त मन एक हों।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा।
ऋग्वेद आगे कहता है- हाथ की उंगलियाँ एक समान न होते हुए भी एक होकर कार्य करती हैं, उसी तरह राष्ट्र की प्रजा छोटी-बड़ी होने पर भी एक होकर राष्ट्र के हितकारी कार्यों के लिए एक मन वाली हो (ऋ. 1.62.10)।
संगठन वह शक्ति है जिससे सबका, राष्ट्र का भला हो जाता है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्॥
बलशाली राष्ट्र की भावनाएं देशवासियों में जगाने के लिए वैदिक ऋषियों ने राष्ट्रीय प्रार्थना का सूत्रपात भी किया था। यह राष्ट्रीय प्रार्थना उनकी महान् राष्ट्रीय भावना की द्योतक है। राष्ट्र भक्ति, स्वराज्य की भावना, स्वाधीनता की आकांक्षा यजुर्वेद में अभिव्यक्त हुई है। राष्ट्र में द्विज ब्रह्मतेजधारी ब्राह्मण हों, अरिदल का विनाश करने वाले क्षत्रिय हों, दुधारु गौवें हों, पशु हों, पृथ्वी फल-फूल से लदी हो, अमोघ औषधियां हों, इच्छानुसार वर्षा हो, वह ताप धोने वाली हो, सुभगा नारी हों, पुत्र यजमान हों, इन सभी से युक्त हमारे राष्ट्र का सुराज्य हो (यजु. 22.22)।
राष्ट्र का नेता कैसा हो? राष्ट्र के नेता उस राष्ट्र के प्राण स्वरूप होते हैं। उत्तम नेता के कारण ही राष्ट्र जागृत रहता है। उत्तम नेता के अभाव में राष्ट्र दिशाहीन हो जाता है। ऋग्वेद कहता है- ध्युमिः जायसे (ते)। नेता तेजों से उत्पन्न हो, ‘अदाभ्य‘ न दबने वाला, कोई शत्रु उसे भयभीत कर नहीं पाता, ‘पोत्रं तव‘ राष्ट्र में पवित्रता रखने वाला हो। ‘सतां वृषभः इन्द्र‘ वह सज्जनों की कामनाओं का पूरक हो तथा स्वयं भी ऐश्वर्यवान् हो, ‘पुरन्ध्या सचते‘ उत्तम बुद्धि वाला हो, ‘धृतव्रतः वरुण‘ व्रतों, नियमों को धारण करने वाला हो, ‘बाहुभिः वाजी अरुषा रोचते‘ अपनी भुजाओं से बलवान् हो, तेजस्वी हो, राष्ट्र का संचालक हो।
प्राचीन काल में अपना देश आर्यावर्त्त के नाम से जाना जाता था। तत्पश्चात् भारत हुआ। ग्रीकों ने इण्डस कहा। अरबों ने इसे हिन्दुस्तान बना दिया। ब्रिटिशों ने इण्डिया नाम रखा। स्वतन्त्रता के पश्चात् इस राष्ट्र ने भारत नाम धारण किया। भारत के संविधान की दृष्टि से हमारा राष्ट्र भारत है, हमारी संस्कृति भारतीय है और भाषा भी भारतीय है और हम सब भारतवासी भारतीय हैं। वैदिक ऋषियों की दृष्टि से भारत राष्ट्र की संकल्पना कुछ और ही है। वेद कहते हैं- ‘आ नो यज्ञं भारती‘ (ऋ. 10.110.8)। महर्षि यास्क अपने ‘निरुक्त‘ में कहते हैं- ‘भरत आदित्यस्तस्य भाः‘ इन सूत्रों में भरत, भारती शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वे आलोक के अर्थ में हैं। भरत का अर्थ सूर्य या आदित्य है। ‘भरत‘, ‘भारती‘ में जो ‘भा‘ है- वह रोशनी के अर्थ में है। इस दृष्टि से भारत का अर्थ हुआ- सूर्य का आलोक, ज्ञान का आलोक यह भारत है। यही हमारी भारतीय संस्कृति है। अपने राष्ट्र के लिए इसी शब्द का प्रयोग हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों, आचार्यों ने किया है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भरत राजा के नाम से अपने राष्ट्र का नाम भारत पड़ा- यह गलत धारणा है।
भारत जैसी कोई भौगोलिक सत्ता नहीं है और न कोई जनसमष्टि है, जो अचानक पृथ्वी के किसी अंश में आकर पड़ी हो या पृथ्वी के किसी प्रान्त में पड़ी रह सकती हो। भारत यह ज्ञान का प्रतीक है। ऐसे राष्ट्र के सम्बन्ध में मनु महाराज ने कहा-
एतेद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥
इस राष्ट्र में जन्म लेने वाले हमारे पूर्वजों ने ही सारे संसार को बसाया और उसे शिक्षित कर, सभ्य बनाकर, रहन-सहन तथा आचार-विचार की शिक्षा-दीक्षा दी। राष्ट्र संकल्पना का यह प्राचीन दृष्टिकोण रहा है। इस प्रकार न केवल राष्ट्र की संकल्पना अपितु संकल्पानुसार अपना ‘आर्यावर्त्त‘ भी रहा है। वेद का यह अनोखा चिन्तन रहा है। संसार का कोई ग्रन्थ या कोई संस्कृति राष्ट्र, स्वाधीनता का इतना चिन्तन नहीं कर सकी, जितना वेद और वैदिक संस्कृति ने किया है।
अपना यह राष्ट्र किसी समय जिसे विश्वगुरु के नाम से अभिहित किया जाता रहा, दूध की नदियाँ बहती थीं, हर डाल पर सोने की चिड़ियां चहकती थीं, धरती हीरे-मोतियों से भरी थी, ज्ञान की गंगा सदा बहती थी। ब्रह्मशक्ति, क्षात्रशक्ति, अर्थशक्ति, श्रमशक्ति-ये राष्ट्र के साथ थे। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी‘- यह स्वरूप था इस राष्ट्र का। काल के कुटिल चक्र ने ‘राष्ट्र संकल्पना‘ को ही परिवर्त्तित कर दिया। राष्ट्र संकल्पना में जो वैदिक सिद्धान्त और विधान थे, वे राष्ट्र से विलग होते गए। राष्ट्र संकल्प का एक विधान राष्ट्रदेह से निकल गया, दूसरा निकला, तीसरा निकला- राष्ट्र प्राणहीन हुआ। इस सिलसिले का प्रारम्भ महाभारत के युद्ध के पूर्व से ही हुआ। महाभारत के युद्ध ने राष्ट्र की संकल्पना को तहस-नहस कर दिया। सर्वत्र विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। एक राष्ट्र अनेक हिस्सों में बंट गया। हर हिस्से का एक प्रत्याशी, शासक हुआ। सीमित दायरा राष्ट्र बना। हर हिस्सा-दूसरे हिस्से से ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, विरोध-प्रतिरोध करने में लगा रहा। अभ्युदय, निःश्रेयस के स्थान पर विनाश, राष्ट्र का सर्वनाश चहुंमुखी पतन का प्रारम्भ हुआ। राष्ट्र में अनेक धर्म, मत, सम्प्रदाय प्रचलित हुए। इनका अपना-अपना पुरोधा भी बना। राष्ट्र के आधार-स्तम्भ वर्ण जातियों में बदल गए। सर्वत्र विभिन्नता राष्ट्र का अंग बन गयी। राष्ट्र की आदर्श आत्मा का नाश होकर वह मात्र कंकाल रह गया।
ऐसे कंकाल राष्ट्र को आचार्य चाणक्य जैसा राष्ट्रपुरुष भी मिला, जिसने राष्ट्र में प्राण फूंकने का भरसक प्रयास किया। यह प्रयत्न अल्पकालीन सिद्ध हुआ। ‘भूमि मेरी माता है, मैं मातृभूमि का पुत्र हूँ, ‘उपसर्प मातरं भूमिम्‘, मातृभूमि की सेवा कर, ‘यतेमहि स्वराज्ये‘ हम स्वराज्य के लिए सदा प्रयत्न करते रहें, वेद की यह राष्ट्र संकल्पना अर्थहीन सिद्ध हुई। परिणामतः इस राष्ट्र में ग्रीक, शक, कुषाण, हूण, यवन और अन्य विदेशी आये। वेद के सन्देश को अपना राष्ट्र भूल गया। शत्रुभाव रखने वालों का प्रवेश राष्ट्र में सजगतापूर्वक वर्जित करना चाहिए। राष्ट्रद्रोही ही राक्षस हैं। ऐसे राक्षसों का सिर काटना चाहिए (यजु. 5.22)। राष्ट्र में बिखरे हुए शासकों की असंख्य त्रुटियाँ, आपस का मतभेद, ईर्ष्या-द्वेष, राष्ट्रीय भावना का अभाव आदि कुप्रवृत्तियाँ मुगलों के दीर्घ शासन का कारण बनीं। राष्ट्र वेद के स्वधा शब्द को भूल गया। स्व+धा का अर्थ है- स्वकीय धारक शक्ति, जिसके द्वारा अपने शरीर, समाज, राष्ट्र तथा अखिल विश्व को धारण किया जा सकता है (यजु. 1.22)। ‘राष्ट्र स्वधा‘ के लिए युद्ध करने पड़ते हैं।
पराधीनता जब राष्ट्रीय मानस को असह्य होती है, तो मानस के गर्भ में पुनः राष्ट्र स्वाधीनता की चिनगारियाँ सुलगने लगती हैं। अपने राष्ट्र मानस का कुछ ऐसा ही हुआ। वह सदियों की दास्य शृंखला से मुक्त हुआ। स्वाधीनता का सूर्य अन्धकार के गर्भ को चीरकर पुनः उदित हुआ। यह सिद्ध हुआ कि राष्ट्र की भौतिक स्वाधीनता अक्षुण्ण नहीं है, परन्तु आत्मिक स्वाधीनता अक्षुण्ण रहती है। आत्मिक स्वाधीनता के कारण ही राष्ट्रीय भौमिक स्वाधीनता पुनः प्राप्त की जा सकती है। उसकी मूल जड़ें त्याग में हैं। हमारे राष्ट्र ने बहुत कुछ त्याग किया तब कहीं स्वाधीनता प्राप्त हुई।
इधर ऐसा कुछ ऐसा दिखने लगा है कि राष्ट्र के इर्द-गिर्द काली घटाएं छा रही हैं। राष्ट्र के अभिन्न अंगों से छेड़छाड़ कर राष्ट्र से विलग करने में विदेशी शक्तियाँ लगी हैं। ऐसी स्थिति में वेद का सन्देश भूलना नहीं चाहिए। राष्ट्र के लिए स्वाधीनता सर्वोपरि है, उसे बचाए रखना चाहिए- आरोहणाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम्। (अथर्व. 5.30.7)। यह सच है कि राष्ट्र के सैनिक युद्धभूमि में जीत जाते हैं, दूसरी ओर राष्ट्र के नेता चर्चा में पराजित होते हैं। वेद ऐसे नेता को कभी क्षमा नहीं करते। वेद कहते हैं- वज्रधारी बनकर हर क्षेत्र में शत्रु को परास्त करो। संसद पर हमला करने वाले शत्रु, मन्दिरों पर हमला करने वाले शत्रु, बाजारों में विस्फोट करने वाले शत्रु, विमान-अपहरण करने वाले शत्रु का नाश करना चाहिए। यह राष्ट्र का परम कर्त्तव्य है। ‘लोकल‘ से ‘ग्लोबल‘ तब पहुंचे हुए आतंकवाद को समाप्त करना राष्ट्र धर्म है। ‘वोट बैंक‘ के लिए तुष्टीकरण की भावना का त्याग राष्ट्र के लिए सर्वोपरि है। वर्त्तमान राष्ट्र की घोषणा है- इस सदी का राष्ट्र विश्व में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करेगा। इसके लिए एक ही रास्ता है- शक्तिशाली संगठन। भारत के सच्चे पुत्र शत्रु को क्षीण करना भी जानते हैं, राष्ट्र समृद्धि यह राष्ट्र की धारणा है। - डॉ. चन्द्रकान्त गर्जे (दिव्ययुग- अगस्त 2015)
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