विशेष :

कल्याण पथ

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ओ3म् स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्य्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताघ्नता जानता संगमेमहि॥ ऋग्वेद 5.51.15॥
अन्वय- वयम् स्वस्ति पन्थाम् (पन्थानम्) अनुचरेम। सूर्य्या-चन्द्रमसौ इव। पुनः ददता, अघ्नता, जानता सह संगमेमहि।

अर्थ- हम लोग (स्वस्ति पन्थाम्) कल्याणकारी मार्ग पर (अनुचरेम) चलें, (सूर्य्याचन्द्रमसौ इव) जैसे सूर्य और चन्द्रमा चलते हैं। (पुनः) और (ददता) आदान-प्रदान करनेवाले के साथ, (अघ्नता) हिंसा न करनेवाले के साथ, (जानता) एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने वाले के साथ (संगमेमहि) संगति करें।

व्याख्या- इस वेदमन्त्र में उपदेश दिया गया है कि संसार के भिन्न-भिन्न प्राणी अनेक प्रकार की असमानताएँ अथवा विशेषताएँ रखते हुए भी किस प्रकार एक-दूसरे का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं।

यह तो स्पष्ट ही है कि संसार की कोई दो वस्तुएँ एक-सी नहीं हैं। उनमें कुछ समता और कुछ विषमता अवश्य है। यदि कुछ भी विषमता न होती तो दो क्यों होतीं, एक ही होती। और यदि एक वस्तु होती तो गिनती भी न होती। एक किसको कहते? एक शब्द का भाव ही दो, तीन, चार की अपेक्षा से है। यदि एक ही वस्तु होती तो यह जगत् जिसमें हम रहते हैं कैसा होता? हम नहीं जानते। हमारी आँखें उस प्रकार के जगत् को देखती नहीं। हमारी बुद्धि उसकी कल्पना नहीं कर सकती। हम जिस जगत् के अंश हैं उसको हमने नहीं बनाया, परन्तु उसमें रहना अवश्य है और उसके गुप्त नियमों का निरीक्षण करके अपने आचरणों को ठीक करना है।
हम सबकी यह प्रबल इच्छा रहती है कि हम कल्याणप्रद मार्ग पर चलें। कोई भी जान-बूझकर गलत रास्ते पर नहीं चलता और यदि उसे सन्देह हो जाए कि जिस मार्ग पर वह चल रहा है वह ठीक नहीं तो झट रूक जाता है और यदि निश्‍चय हो जाए कि वह मार्ग वस्तुतः गलत है तो उसका परित्याग कर देता है। यह हम सबकी नैसर्गिक इच्छा है। ठीक मार्ग को ही ‘स्वस्ति पथ‘ कहते हैं, वही सीधा मार्ग है।

सीधे मार्ग के तीन लक्षण हैं। प्रथम, उस पर चलकर उद्दिष्ट स्थान पर पहुँच सकें। दूसरा, वह सरलतम हो अर्थात् सबसे छोटा हो। गधा भी समझता है कि यदि सीधे मार्ग पर जा सकते हो तो घूमकर दूर का मार्ग न पकड़ो। तीसरे, उस मार्ग पर चलना सुगम हो, कम-से-कम कठिनाई हो। सुगम और लघुतम मार्ग को भी छोड़ देते हैं यदि उससे उद्दिष्ट लक्ष्य पर न पहुँच सकें। यदि मार्ग छोटा परन्तु दुर्गम या कण्टाकाकीर्ण हो तो ऐसे मार्ग को छोड़कर लम्बा मार्ग लेना पड़ता है। इस तथ्य को मनुष्य के हृदय-पटल पर अंकित करने के लिए बहुत से दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। इस वेदमन्त्र में जो दृष्टान्त दिया गया है वह लौकिक भी है और वैज्ञानिक भी। वह है सूर्य्य और चन्द्र के परस्पर सहयोग का।

चाँद और सूरज को हम नित्य देखते हैं। रात में चाँद चमकता है, दिन में सूर्य्य। सूर्य्य बहुत बड़ा है, चाँद बहुत छोटा है। हैं दोनों सितारे जो आकाश में चमकते हैं। आपको ज्ञात है कि सूर्य्य कितना बड़ा है? किसी खगोल-विद्या विशारद से पूछिए। पृथिवी को तो आप जानते ही हैं यह पृथिवी है अर्थात् प्रथित या फैली हुई। आप तो इसके एक छोटे से अंश को ही देखते हैं। हममें करोड़ों में एक होगा जो पृथिवी की चारों ओर परिक्रमा कर आया है। पृथिवी बहुत बड़ी है। किसी ऊँचे पहाड़ की चोटी पर खड़े हो जाइए और इधर-उधर दृष्टि दौड़ाइए, पृथिवी की विशालता का कुछ परिचय हो जाएगा। परन्तु क्या आपको पता है कि सूर्य्य और पृथिवी के परिमाणों में क्या अनुपात है? यदि पृथिवी को चूरा करके एक गोला बनाएँ और ऐसे तेरह लाख गोले इकट्ठे करके फिर उन सबके चूरे को मिलाकर एक बड़ा गोला बनाएँ तो वह गोला सूर्य के बराबर होगा। और चान्द! यह तो पृथ्वी के गोले से बहुत छोटा है, जैसे ऊँट के गले में छोटी बिल्ली। इतना बड़ा सूर्य और इतना छोटा चाँद ! इन दोनों के सहयोग से दिन-रात होते हैं ! दिन और रात का होना हमारे जीवन के लिए कितना हितकर है, इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। करने का यत्न भी नहीं करते, क्योंकि यह एक चिर-परिचित घटना है। बड़ी-से-बड़ी घटनाएँ यदि सदा होती रहें तो हमारा ध्यान उनकी ओर नहीं जाता। जब ध्यान नहीं जाता तो हम उनसे उपदेश भी नहीं लेते। बड़े-से-बड़े उपदेष्टा के साथ रहनेवाले उनके नौकर उनके व्याख्यानों पर कभी ध्यान नहीं देते। महात्मा गाँधी के जिन उपदेशों को सुनने के लिए लाखों आदमी इकट्ठे हुआ करते थे, उनके जीवन का कोई प्रभाव उनके पुत्र हरिलाल गाँधी पर नहीं था। इसी प्रकार चाँद और सूर्य के सहयोग का दृष्टान्त जन-साधारण पर कोई प्रभाव नहीं डालता। इसीलिए वेदमन्त्र द्वारा इस दृष्टान्त को देने की आवश्यकता हुई। बात बहुत छोटी है, समक्ष है1, समीप है, फिर भी इतनी बड़ी है कि करोड़ों मनुष्यों ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया। इसकी आप परीक्षा कर लीजिए। जिन्होंने इस वेदमन्त्र को नहीं पढा उनसे पूछिए कि सहयोग का सबसे अच्छा दृष्टान्त कौन-सा है? जो उत्तर मिलें उनको इकट्ठा कर लीजिए। देखिए कि कितने उत्तरों में सूर्य और चाँद का दृष्टान्त दिया गया है। वेद के उपदेशों की यह विशेषता है कि बात छोटी हो परन्तु उसमें भाव बड़ा हो- लाघव में गौरव।

सूर्य और चन्द्रमा की आकाश की यात्राओं पर विचार कीजिए, आपको ये साथ चलते दिखाई नहीं पड़ते। जब सूर्य निकलता है तो चाँद छिप जाता है, परन्तु जब चन्द्रदर्शन होते हैं तो सूर्यदर्शन होना कठिन हो जाता है।

आप दिल्ली के जन्तरमन्तर में जाइए और किसी विशेषज्ञ से प्रार्थना कीजिए कि वह यन्त्रों द्वारा आपको यह समझा दे कि सूर्य, पृथिवी और चाँद की चालें किस प्रकार होती हैं। दिन कैसे होता है, रात कैसे होती है, दिन-रात कैसे घटते-बढते रहते हैं, ऋतु-परिवर्तन कैसे होता है। पृथिवी के कुछ भाग अत्यन्त गरम और कुछ अत्यन्त ठण्डे क्यों हैं? उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के निकट वर्ष के आधे भाग में निरन्तर दिन और दूसरे आधे भाग में निरन्तर रात क्यों होती है, तो आपको ‘सूर्याचन्द्रमसाविव‘ का ठीक-ठीक अर्थ समझ में आ सकेगा; और यदि आप इस खगोल-सम्बन्धी दृश्य का मानव-समाज की चाल-ढाल से मुकाबला करें तो आपको आश्‍चर्य होगा कि इन दोनों दृश्यों में कितना सादृश्य है। यदि मनुष्य इस सादृश्य को समझ ले तो सामाजिक-विकास और सामाजिक-उन्नति में कितनी सहायता मिल सकती है!

अब वेदमन्त्र यह दिखलाता है कि मनुष्य में क्या-क्या गुण होने चाहिएँ, जिनसे दूसरे लोग उससे आकर्षित होकर उसके साथ मिल सकें। मन्त्र में तीन गुणों का वर्णन है- ददता, अघ्नता, जानता। ये तीनों पद तृतीयान्त एकवचन हैं अर्थात् इस गुणवाले के साथ सहयोग मिल सकता है।

(1) ददता अर्थात् दानशीलता वाले के साथ। वेद में दानशीलता की महिमा स्थान-स्थान पर दिखाई गई है। ऋग्वेद में ‘दाशुष्‘2 शब्द का कई स्थानों में इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। प्रेम परमात्मा का सबसे प्रिय गुण है। भिन्न-भिन्न कोटियाँ तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की भक्तियाँ इसी प्रेम का रूप हैं। वही मनुष्य ईश्‍वर का प्रियतम है जो प्रेम करता है और प्रेम का प्रमाण है दानशीलता। दया भी दानशीलता का ही एक रूप है। जिससे आप प्रेम करते हैं उसका कुछ उपकार करना चाहते हैं, कुछ देना चाहते हैं और जिसको आप कुछ देते हैं वह समझता है कि आप उससे प्यार करते हैं और वह आपकी ओर आकर्षित होता है। आकर्षण ही संगठन का हेतु है। लोहा चुम्बक की ओर खिंच आता है, क्योंकि चुम्बक अपनी शक्ति लोहे को प्रदान करके उसे चुम्बक जैसा बना देती है। दानी की ओर आकर्षित होना प्रत्येक प्राणी के जीवन से प्रकट होता है। कुत्ते को कभी-कभी रोटी का एक टुकड़ा डाल दिया करो, वह हरदम आपके साथ रहने लगेगा। बच्चे को मिठाई दे दिया करो, वह अपनी माता की गोद छोड़कर आपके पास आ जाएगा और यदि यह दानशीलता दोनों ओर से हो तो दोनों एक-दूसरे की ओर आकर्षित होंगे। जिसमें दानशीलता नहीं उससे सब घृणा करने लगते हैं। यदि आप धनाढ्य हैं तो धन का दान करें, यदि आप शक्ति-सम्पन्न हैं तो शक्ति का दान करें। यदि विद्या का धन आपके पास है तो दूसरों को विद्या का दान दीजिए। इससे आपमें दैवी शक्तियों का संचार होगा और आसुरी प्रवृत्तियाँ कम होंगी।

(2) दूसरा गुण है ‘अघ्नता‘ अर्थात् जो हिंसा न करता हो उसके साथ हम जल्दी मिल सकते हैं। हिंसा क्या है? दूसरे के हित या कार्य में बाधक होना। आप नहीं चाहते कि आपके मार्ग में कोई रुकावट हो। रुकावट से आपको दुःख होता है। प्रेम का परिणाम ही अहिंसा है। जिससे आप प्यार करते हैं उसे आप कोई कष्ट नहीं देना चाहते। विश्‍वबन्धुत्व के लिए अहिंसा परम आवश्यक गुण है। हिंसक प्राणियों से सभी दूर भागते हैं और अहिंसक हिंसकों को भी अपना साथी बना लेता है। महात्मा गाँधी के लेखों में अहिंसा का बड़े विस्तार के साथ महत्त्व दर्शाया गया है।

(3) तीसरा गुण है ‘जानता‘। एक-दूसरे को समझने का यत्न करें। समाज-निर्माण में सबसे बड़ा विघ्न न समझने के दोष से पड़ता है। 90 प्रतिशत झगड़े एक-दूसरे को न समझने के कारण होते हैं। पति-पत्नी प्रेम करने की इच्छा करते हुए भी शत्रु बन जाते हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का यत्न नहीं करते। भाई-भाई इसलिए लड़ पड़ते हैं क्योंकि वे एक-दूसरे को समझ नहीं पाते। परस्पर पत्र-व्यवहार करते हुए यदि समझने में कुछ भूल हो जाती है तो दो पुरुष यावज्जीवन शत्रु बन जाते हैं। दो देशों के निवासी एक-दूसरे के दृष्टिकोण को न समझने के कारण घोर युद्ध कर बैठते हैं जिसमें लाखों मनुष्यों का संहार हो जाता है, अतः वेद का यह उपदेश है कि समाज का सुदृढ निर्माण करना चाहते हो तो एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का यत्न करो और यदि भ्रान्ति हो जाए तो मिलकर दूर कर लो। यह सम्भव है कि आप दोनों के भावों में कोई भेद न हो। संसार के मनुष्य इतने बुरे नहीं होते जितने प्रतीत होते हैं, हाँ, लोगों का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है। बालकों की पाठ्य-पुस्तकों में इसी दोष को स्पष्ट करने के लिए छह अन्धों और हाथी की कहानी गढी गई है। कहते हैं कि छह अन्धे थे, उन्होंने हाथी से सम्पर्क किया और उसका वर्णन करने लगे। एक ने कहा ‘‘हाथी पंखे के समान होता है‘‘, क्योंकि उसने हाथी के केवल कान टटोले थे। दूसरे ने कहा ‘‘खम्भे के समान‘‘, क्योंकि उसने केवल हाथी के चार पैर छुए थे। तीसरे ने सूँड टटोली थी इसलिए वह बोला कि ‘‘हाथी लटकने वाली रस्सी के समान होता है।‘‘ जिसने हाथी की पीठ देखी वह कहता था ‘‘भाई ! तुम सम झूठे हो। मैंने स्वयं अनुभव किया कि हाथी एक सपाट चौकी के समान होता है। सोचो तो सही कि पंखे के समान हाथी होता तो उस पर सवारी कैसे की जाती?‘‘ एक बोला ‘‘क्यों गप्पें मार रहे हो? हाथी कोई बड़ी भारी चीज नहीं है। एक हाथ-भर की पतली रस्सी है‘‘, क्योंकि उसने केवल पूँछ टटोली थी। छठे ने हाथी के दाँतों को टटोलकर कहा, ‘‘यह कड़ी-कड़ी नुकीली क्या चीज है? क्या इसी को हाथी कहते हैं जिसके लिए ऐसा आश्‍चर्य किया जा रहा है?‘‘

हाथी की यह कहानी ऐसी प्रसिद्ध है कि कई भाषाओं के कवियों ने इस पर कविताएँ रची हैं। वस्तुतः छहों ठीक थे। आप किसी विशाल भवन का भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर फोटो लीजिए। एक ही भवन के भिन्न-भिन्न फोटो दिखाई पड़ेंगे। एक मनुष्य का फोटो भिन्न-भिन्न स्थानों से लिया जाए तो उसमें भी भिन्नता होगी। ये सब दृष्टिकोणों की भिन्नताओं के खेल हैं। हम सब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होते हैं, अतः हमारा दृष्टिकोण भिन्न होता है और हम छहों अन्धों के समान लड़ बैठते हैं। यदि कोई आँखों वाला (विवेकी या समझदार व्यक्ति) हमको समझा दे कि बात एक ही है तो हमारी भ्रान्ति दूर हो जाती है। अतः समाज-संगठन के लिए एक-दूसरे को समझना आवश्यक है।

छोटी बात पर बड़ी लड़ाइयाँ कैसे होती हैं, उसका एक निज उदाहरण देता हूँ। एक मित्र थे कृषि-विभाग के अध्यक्ष। उनके कृषि-परीक्षणालय में गन्ने बहुत अच्छे होते थे। एक दिन उनके एक देहाती सम्बन्धी आये। उन्होंने उनके लिए अच्छे गन्ने मँगाये और खाने के लिए कहा। वे उस समय एक अतिथि-गृह (Guest House) में बैठे थै। वहाँ बहुमूल्य दरियाँ बिछी हुई थीं। गन्ने की छोई फर्श को खराब न करे, इसलिए उन्होंने अतिथि महोदय के समझ एक टोकरी रख दी कि खाते समय छोइयाँ इसमें डाल दीजिए। अतिथि थे गाँव के रहनेवाले। उन्होंने इस प्रकार गन्ने चूसते कभी किसी को नहीं देखा था। वे बिगड़ गये और कहने लगे, ‘‘तुमने क्या मुझे बैल समझा है कि मेरे सामने टोकरी लाकर रख दी?‘‘ अध्यक्ष महोदय को लेने के देने पड़ गये। बहुत कुछ क्षमा-याचना की परन्तु भ्रान्ति दूर न हुई। ऐसे उदाहरण बहुत-से मिलेंगे। सभाओं के संगठन तो इसी प्रकार टूटते हैं। अतः समाज-निर्माण के लिए दानशीलता, अहिंसा तथा एक-दूसरे को समझने का यत्न करना आवश्यक है।

भारतीय इतिहास पर दृष्टि डालिए। यह उदारता का अभाव ही था कि पृथ्वीराज और जयचन्द में मनमुटाव होता गया और वह मनमुटाव यहाँ तक बढा कि एक सहस्र वर्ष से उसके दुष्परिणाम मिटने पर नहीं आते। महात्मा गाँधी के वध का भी यही कारण था। नाथूराम गा़ेड़से महात्मा जी के दृष्टिकोण को नहीं समझ पाया।

भारतवर्ष में दान और अहिंसा दोनों गुणों का प्राचुर्य समझा जाता है। भारतीयों की दानशीलता के कारण ही भारत के सशक्त हजारों और लाखों नर-नारी भिखमंगे बन रहे हैं। पवित्र तीर्थों और भिखमंगों का अटूट सम्बन्ध है। हजारों माता-पिता अपने बच्चों को सिखाते हैं कि किस प्रकार भीख माँगी जाती है। जब रेल गंगा या यमुना के किसी पुल से गुजरती है तो सैकड़ों यात्री जेबों से पैसे निकालकर नदी में फेंकते हैं, इसको वे गुप्तदान समझते हैं। जब ग्रहण पड़ता है तो मेहतरों को दान दिया जाता है, क्योंकि यह समझा जाता है कि ये मेहतर लोग राहु और केतु की सन्तान है और इसलिए उनके पार्थिव उत्तराधिकारी हैं। इनको दान देने से चाँद या सूरज कैद से छूट सकेंगे। नागपंचमी के दिन नागों को दूध पिलाया जाता हैं और जो इतना नहीं कर सकते वे दीवारों पर साँप बनाकर उन पर दूध चढाते हैं। सोचना यह है कि ऐसी दानशील और अहिंसक जाति का यथोचित संगठन क्यों नहीं हो पाता? इसका भी वही एक कारण है, हम वास्तविकता पर विचार नहीं करते? रोटी का चित्र देखने से भूख की निवृत्ति नहीं हो सकती। उस जाति को दानशील कैसे कहा जा सकता है जिसके ब्राह्मण सैकड़ों नर-वर्गों को नीच और अछूत कहकर उनको विद्यादान नहीं दे सकते या जिसके लखपति या करोड़पति अपना दान इस रूप में देते हैं कि दान लेने वाले कभी अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य न बन पाएँ और प्रतिदिन अपनी भूख दूर करने के लिए उनके दरवाजों पर हाथ फैलाते रहें। हमारी जातियाँ और उपजातियाँ दूसरों के मार्ग में नित्य रोड़े अटकाती रहती हैं। धर्म का ढोंग धर्म समझा जाता है। बड़े और छोटे का भाव हर बात में पाया जाता है। यदि हम सूर्य और चाँद के समान अपना आचरण करें तो ये सब बुराईयाँ घट सकती हैं। वेदमन्त्रों के अध्ययन का तो यही लाभ है कि हम उनके उपदेशों को अपने दैनिक जीवन में परिणत करने का यत्न करें।

सन्दर्भ- 1. Plato argues (in 'Gorgias') that moral selfishness contradicts the physical fellowship and friendship which holds to gether earth and heaven and contravenes the principle of geometrical equality. He seems to be contending that as e.g. the planets are kept together in fellowship by the fact that each keeps its appointed place, and does not violate equality by trespassing on that of its neighbour, so men should abide in a fellowship secured by the fact that each keeps his appointed place and does not violate equality by trespassing to "get more"- Vide "Greek Political Theory- Plato and His predecessors" by Ernest Barker, p. 53, Infra. 53, खपषीर.

भावानुवाद- जैसे नक्षत्र अपने-अपने मार्ग में रहते हैं और एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करते, इसी प्रकार मनुष्यों को करना चाहिए। मनुष्यों का जो आचार लोक-लोकान्तर के आचार से भिन्न है वह अधर्म है।

2. दाशृ दाने । क्वसु प्रत्ययः- यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। (ऋग्वेद 1.1.6) - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग- अगस्त 2015)

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