विशेष :

नदी के पार

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Nadi ke par

ओ3म् अश्मन्वती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखाय:।
अत्रा जहीमो अशिवा ये असन् शिवान् वयमुत्तरेमाभिवाजान्॥ अथर्ववेद 12.2.26॥
ऋषि: भृगु: ॥ देवता अग्नि: ॥ छन्द: त्रिष्टुप्॥
विनय- भाइयो ! सांसारिकता की नदी बड़े वेग से बह रही है। अपने अभीष्ट सुखों को, सच्चे भोगों को और बलों को हम इस नदी के पार पहुँचकर ही पा सकते हैं। पर हमें बहाये लिये जानेवाले विषयों के इस भारी प्रवाह को तर जाना भी आसान कार्य नहीं है। यह नदी बड़ी विकट है। इसमें पड़े हुए भोग्य-पदार्थों के बड़े-बड़े और फिसलाने वाले चिकने पत्थर हमारे पैरों को जमने नहीं देते। इधर शिलाओं की ठोकर खाकर कदम-कदम पर गिर पड़ने का डर है, उधर नदी का वेग हमें बहाये लिये जाता है। परन्तु पार पहुँचे बिना हमें सुख-शान्ति भी नहीं मिल सकती। अत: भाइयो! उठो, मिलकर एक-दूसरे को सहारा देते हुए आगे बढो। हिम्मत करके उठ खड़े होओ और दृढता के साथ प्रबल यत्न करते हुए इस नदी के पार उतर जाओ। पर सबसे बड़ी विपत्ति तो यह है कि पहले ही पत्थरोंवाली और वेगवती इस नदी के पार उतरना इतना मुश्किल हो रहा है, ऊपर से हमने अपने बहुत-से ‘अशिव‘ संग्रहों का बोझ भी सिर पर लाद रखा है। भोगेच्छा, कुसंस्कार, अधर्म की वासना तथा पापों के भारी बोझ से हमने अपने को बोझिल बना रखा है। इसके कारण हमारा पार उतरना असम्भव हो रहा है। आओ साथियो ! भाइयो ! पहले हम इन सब ‘अशिव‘ वस्तुओं को यहीं फेंक दें। इन्हें छोड़कर हल्के हो जाएँ जिससे कि हम नदी पार उतरने के लिए आसानी से अपनी पूरी शक्ति लगा सकें। जितने शुभ, कल्याणकारी ‘वाज‘ हैं, सच्चे भोग हैं, बल हैं, ज्ञान हैं, वे तो हमारे लिए बहुतायत में नदी के पार विद्यमान हैं, हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। तो हम मूर्ख लोग इन ‘अशिव‘ वस्तुओं को किसलिए उठाये हुए हैं? यह बोझ तो हमें डुबा देने में ही सहायक होगा। यदि इस बोझ के साथ हम स्वयं डूब मरना या नदी-प्रवाह हो जाना नहीं चाते तो हमें इन सब बुराइयों का तो यहीं नदी-प्रवाह कर देना चाहिए। इन ‘अशिव‘ संग्रहों के बोझ से छुटकारा पाकर हमें एक-दूसरे को सहारा देते हुए आगे बढना चाहिए। विषयों के प्रबल प्रवाह से बचने के लिए हम सबको परस्पर एक-दूसरे के ‘संरम्भ‘ (आश्रय) की जरूरत है। हे कल्याण चाहनेवालो! यह नदी चाहे कितनी विकट हो, पर इसे पार किये बिना कोई चारा नहीं है

शब्दार्थ- अश्मन्वती=पत्थरों, शिलाओं वाली नदी रीयते=वेग से बह रही है। सखाय:=हे साथियो, मित्रो ! उत्तिष्ठत= उठो, संरभध्वम्=मिलकर एक-दूसरे को सहारा दो और प्र तरत= इस नदी को प्रबलता से तर जाओ। आओ, ये अशिवा: असन्=जो हमारे अकल्याणकर संग्रह हैं उन्हें हम अत्र जहीम:=यहीं छोड़ दें और शिवान् वाजान् अभि=कल्याणकारी सुखों, बलों और ज्ञानों को पाने के लिए वयम्=हम उत्तरेम=इस नदी के पार हो जाएँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- जुलाई 2015)

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