विशेष :

वेदालोक

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Vedalokओ3म् ऋचं वाचं प्र पद्ये मनो यजुः प्र पद्ये साम प्राणं प्र पद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्र पद्ये।
वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ। 
(यजुर्वेद 36.1)

(ऋचम् वाचम् प्र पद्ये) मैं ऋचा (रूप) वाणी को प्राप्त करता हूँ, (यजुः मनः प्र पद्ये) यजुः (रूप) मन को प्राप्त करता हूँ, (साम प्राणम् प्र पद्ये) साम (रूप) प्राण को प्राप्त करता हूं, (चक्षुः श्रोत्रम् प्र पद्ये) अथर्वरूप नेत्र (और) श्रोत्र को प्राप्त करता हूँ। (मयि) मुझमें (वाक् ओजः, प्राण-अपानौ) वाणी (का) ओज, ओजस्विता, प्राणन (और) अपानन (सह) एक साथ हैं।

मैं वाणी की साधना द्वारा ऋग्वेद का फल प्राप्त करता हूँ। मैं वाणी की साधना करके ऋग्वेदी बनता हूँ। ऋक् ऋग्वेद के मन्त्रों को कहते हैं। ऋक् का अर्थ है दीप्ति, प्रकाश। ऋग्वेद में समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है। अतः ऋग्वेद ज्ञानवेद है, प्रकाशवेद है। वाणी भी प्रकाशिका है। मनुष्य अपने प्राप्त ज्ञान को वाणी द्वारा ही प्रकाशित-प्रकट करता है। अतः ज्ञान प्रकाशन के लिए वाणी की साधना कीजिए। सत्य बोलना, सत्य को भी हितभावना से, मधुरता, प्रियता और शालीनता के साथ बोलना वाणी की साधना है। जो इस प्रकार वाणी की साधना करता है, उसे ऋग्वेद का फल प्राप्त होता है। वह ऋग्वेदी है। जो ऋग्वेद का अध्ययन तो करता है पर वाणी की साधना नहीं करता, वह ऋग्वेद का विद्वान होता हुआ भी ऋग्वेदी नहीं है।

मैं मन की साधना द्वारा यजुर्वेद का फल प्राप्त करता हूँ। मैं मन की साधना करके यजुर्वेदी बनता हूँ। यजुर्वेद यज्ञवेद है। श्रेष्ठतम कर्म का नाम है यज्ञ। मन की शुद्धता सम्पादन होने पर सदा शुभ कर्म ही होते हैं। मन ही कर्म का प्रेरक है। संकल्प-विकल्प मन का धर्म है। मन संकल्प-विकल्प से रहित नहीं हो सकता। मन को शिवसंकल्पी बना लीजिए। फिर इन्द्रियों से शिव कर्म ही होंगे। जो मन की साधना करके उसे शुद्ध और संकल्पी बना लेता है उसे यजुर्वेद का फल प्राप्त होता है। वह यजुर्वेदी है। जो यजुर्वेद का अध्ययन तो करता है पर मन को शुद्ध और शिव नहीं बनाता, वह यजुर्वेद का विद्वान होता हुआ भी यजुर्वेदी नहीं है।

मैं प्राण की साधना द्वारा सामवेद का फल प्राप्त करता हूँ। मैं प्राण की साधना करके सामवेदी बनता हूँ। सामवेद गीतिवेद है। सामवेद समतावेद है। प्राण की समता से गीति गान होता है। प्राण की प्रियता सम्पादन करने से समता की सिद्धि होती है। जो प्राणवत् निर्विश्राम, निर्विषय, निर्विकार और निरासक्त होकर सतत साधना करता है, उसे समता और प्रियता की साधना से सामवेद का फल प्राप्त होता है। वह सामवेदी है। जो सामवेद का अध्ययन तो करता है पर समता और प्राणप्रियता का सम्पादन नहीं करता है, वह सामवेद का विद्वान् होता हुआ भी सामवेदी नहीं है।

मैं नेत्र-श्रोत्र की साधना द्वारा अथर्ववेद का फल प्राप्त करता हूँ। मैं नेत्र-श्रोत्र की साधना करके अथर्ववेदी बनता हूँ। थर्व का अर्थ है कम्प (कांपना)। अथर्व का अर्थ है अ-कम्प। जो नेत्र से देखकर और श्रोत्र से सुनकर विवेक धारण करता है वह अ-थर्व (अ-कम्प) बन जाता है। जो इस प्रकार नेत्र-श्रोत्र की साधना करके अथर्वता की साधना करता है, वह अथर्ववेद के फल को प्राप्त होता है। वह अथर्ववेदी है। जो अथर्ववेद का अध्ययन तो करता है, पर अथर्वता का सम्पादन नहीं करता, वह अथर्ववेद का विद्वान होता हुआ भी अथर्ववेदी नहीं है।

वाणी की साधना द्वारा ऋग्वेदी बनने से (मयि) मुझमें (वाक् ओजः) वाणी का ओज आ गया है। मन की साधना द्वारा यजुर्वेदी बनने से मेरे मन में ओजस्विता आ गई है। प्राण की साधना द्वारा सामवेदी, तथा नेत्र-श्रोत्र की साधना द्वारा अथर्ववेदी बनने से मुझमें प्राण और अपान, शुद्धता के सम्पादन और अशुद्धता के निराकरण की क्षमता आ गई है। जो इस प्रकार चतुर्वेदी बनता है, उसकी वाणी में प्रभाव होता है। उसमें ओजोमयता होती है। वह गुणों का संग्राहक और दुर्गुणों का निवारक होता है। - स्वामी विद्यानन्द विदेह

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