हे मानव !
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ,
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ ?
तुम स्वत्व सुधा-रस पान करो,
उठ के अमरत्व विधान करो।
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त इन पंक्तियों के माध्यम से मनुष्य को जागृत करते हुए कह रहे हैं कि समस्त प्राणी जगत् में सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन दिशाहीन न हो, लक्ष्य से विचलित न हो। जीवन में सफलता पाने के लिये एक सार्थक लक्ष्य होना चाहिए। लक्ष्य के अभाव में जीवन बिना पतवार की नाव के समान होता है। लक्ष्य अपनी इच्छा और प्रतिभा के अनुरूप होना चाहिए। इसे पाने के लिए आपका तन-मन जुट जाए। इसके लिये कठोर से कठोर श्रम भी थकाए नहीं। बेचैन न करे। लक्ष्य को पाने पाने के लिये जो हर कठिनाई हंसते-खेलते झेल लेता है, उदासीनता, निराशा उसके पास नहीं फटकती। ऐसे पुरुषार्थी अपना लक्ष्य पा लेते हैं।
लक्ष्य को लांघने वाला व्यक्ति भूत और भविष्यकाल के बारे में चिन्ता नहीं करता। क्योंकि वर्तमान से ही भविष्य को खरीदा जा सकता है, वह उसे कल पर टालता नहीं है। जीवन के प्रति सदैव आशावान रहना चाहिये। कठिनाइयाँ और संघर्ष हमें निराश करने नहीं आते, बल्कि हममें साहस और शक्ति का संचार करने आते हैं। इसलिये उनसे निराश होकर जीवन की खुशी खोना नहीं है। जीवन जीने की कला हम जान लें तथा सकारात्मक सोच रखें, तो जीवन एक मुस्कुराहट भरा गीत बन जाएगा।
नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति हर स्थिति में अपने को हारा हुआ मानता है। अच्छी से अच्छी परिस्थिति में भी पहले उसकी नजर, उसकी दृष्टि नकारात्मक पहलू पर ही पड़ती है। वह सकारात्मक पहलू पर ध्यान जाने से पूर्व ही निस्तेज हो जाता है। मनोवैज्ञानिक भी इसे मानने लगे हैं। वस्तुतः सभी के अन्दर कोई न कोई शक्ति छिपी है। बस उसे जागृत करने की आवश्यकता होती है और इसके लिये आवश्यकता है प्रेरणा की। प्रेरणा से प्रतिभा का उदय होता है और प्रतिभा परिश्रम के लिये व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करती है।
कई बार हम सफल इसलिये नहीं होते, क्योंकि हम अवसर को गम्भीरता से नहीं लेते। जैसे ही हम अवसर पर ध्यान देना शुरू करते हैं, जीवन में परिवर्तन घटित होने लगते हैं। तब हम अमूल्य समय को गंवाते नहीं हैं, नष्ट नहीं होने देते। क्योंकि हम यह समझ जाते हैं कि यदि वह समय गंवा दिया, तो पुनः लौटकर नहीं आएगा। फलस्वरूप लक्ष्य पा लेते हैं।
सार्थक लक्ष्य पाने के लिये जीवन में अनुशासन का भी बहुत महत्व है। एक बार आचार्य सुमेध अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के किनारे टहल रहे थे। शिष्य वरतन्तु ने पूछा “आचार्य! विद्याध्ययन अथवा किसी लक्ष्य की प्राप्ति का आधार बौद्धिक प्रखरता है तो फिर कठोर अनुशासन की क्या आवश्यकता है?’’
आचार्य ने मुस्कुराकर पूछा- “अच्छा बताओ, यह गंगा नदी कहाँ से आ रही है और कहाँ तक जाएगी।’
वरतन्तु ने कहा- “गंगा गोमुख से चलकर गंगासागर में मिल जाती है।’’
आचार्य ने पूछा- ‘यदि इसके दोनों किनारे न हों तो?’’
शिष्य ने कहा- “तब तो इसका जल दोनों तरफ बिखर जाएगा, बह जाएगा तथा कहीं बाढ़ और कहीं सूखा पड़ जाएगा और यह अपने लक्ष्य गंगासागर तक तो पहुंच ही नहीं पाएगी, बीच में ही खत्म हो जाएगी।’’ आचार्य ने कहा- “हाँ, इसी तरह अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी या लक्ष्यार्थी की जीवन-ऊर्जा बंट जाएगी, बिखर जाएगी, क्योंकि एक लक्ष्य नहीं होगा, अनेक सोच होंगे। लक्ष्य प्राप्ति में रुकावट आने पर शरीर और मन निस्तेज हो जाएंगे। फलस्वरूप जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव हो जाएगी। अनुशासन, विद्याध्ययन या किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने व उसे आत्मसात् करने का सूत्र है।
सफलता पाने के बाद उसके सुख और यश को स्थायी रखने के लिये आवश्यक है विनय और अहंकार शून्यता। ज्ञानी जन कहते हैं कि ज्ञान, धन, पद, यश, प्रभुता आदि पाकर मनुष्य में अहंकार पैदा हो जाता है। महर्षि आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु अत्यन्त वेद ज्ञानी ऋषि थे। वे जब गुरुकुल से वेदाध्ययन करके लौटे, तब उन्हें अपने पाण्डित्य पर इतना अभिमान हो गया था कि घर आकर उन्होंने अपने पिता महर्षि आरुणि को प्रणाम भी नहीं किया। अपने पुत्र का अभिमान देखकर पिता अत्यन्त दुखी हुए। उन्होंने अपने पुत्र से कहा- “वत्स! तुमने ऐसी कौन सी ज्ञान की पुस्तक पढ़ ली है, जो बड़ों का सम्मान करना भी नहीं सिखाती? यह ठीक है कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो, वेद-ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। किन्तु क्या तुम यह भी नहीं जानते कि विद्या का सच्चा स्वरूप विनय है? वत्स! जिस विद्या के साथ विनय नहीं रहती, वह न तो फलीभूत होती है और न ही विकसित होती है।’’
पिता की इस मर्मयुक्त वाणी को सुनकर श्वेतकेतु को अपनी भूल ज्ञात हुई। उन्हें स्मरण हो आया जब उनके गुरु जी ने भी एक दिन कहा था- “वत्स श्वेतकेतु! जिस प्रकार फल आने पर वृक्ष की डालियाँ झुक जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् हमें भी अधिक विनम्र और शालीन हो जाना चाहिये। ‘विद्या ददाति विनयम्’ के इस सिद्धान्त से प्रकाश पाकर ही तुम जीवन में सफल हो सकते हो।’’ अपनी अहंकारजनित भूल से लज्जित श्वेतकेतु पिता के चरणों में सर झुकाकर क्षमा मांगने लगे। महर्षि ने उन्हें गले लगा लिया और बोले- “अभिमान तो पुत्र की विद्वत्ता पर मुझे होना चाहिये, वत्स!’’
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥
विद्या विनय सिखाती है। बड़ों का सम्मान करने वाले तथा सदा सत्य का आचरण करने वाले विनयी और शीलवान व्यक्ति के आयु, विद्या, यश और बल- पराक्रम बढ़ते हैं। वह स्वयं शक्तिशाली बनकर समाज और देश को भी उन्नत करता है, क्योंकि वह जानता है कि-
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तथा स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्॥
इस संसार में अनेकों प्राणी जीवन धारण करते हैं और अपनी जीवन लीलाओं को समाप्त कर इस संसार से विदा हो जाते हैं। परन्तु जीवन वही जीवन है जो अपने कुल, वंश, समाज और राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करता है।
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ कितने सुन्दर शब्दों में स्वाभिमान को जागृत करती हैं-
निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाये अभी पर मान रहे,
मरणोत्तर गुंजित गान रहे॥
कुछ हो, न तजो निज साधन को,
नर हो, न निराश करो मन को॥
तात्पर्य यह है कि अन्तःप्रेरणा से प्राप्त सार्थक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अवसर की गम्भीरता को समझना अर्थात् वर्तमान क्षण का सदुपयोग करना, सकारात्मक सोच, अनुशासन और लक्ष्य के प्रति सचेत रहते हुए आशावान रहना जितना आवश्यक है, उतना ही उस सफलता की आत्मतुष्टि को चिरस्थायी रखने के लिये आवश्यक हैं आत्मविश्वास, निरभिमानिता और सज्जनता। - रोचना भारती
Meaningful Goal | National Mantilisaran Gupta | Human Life Without Direction | Deviated from Goal | Always Hopeful | The Art of Living | Keep Positive Thinking | The Rise of Talent From Inspiration | Discipline in Life | Ved Gnyani Sage | Modesty of Truth | Courteous and Gracious | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Lamjaotongba - Kheralu - Badhra Charkhi Dadri | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Lamjaotongba - Zirakpur - Barara Ambala | दिव्ययुग | दिव्य युग