एक साधारण व्यक्ति ईश्वर को इसलिये नहीं जान पाता या विश्वास नहीं कर पाता, कारण कि वह ईश्वर को भौतिक आँखों से देखना चाहता है। जबकि ईश्वर आँखों से देखने का विषय नहीं है। यह विषय आत्मा द्वारा परमात्मा की अनुभूति करने का है। ईश्वर निराकार है। उसका कोई रूप (आकृति) नहीं होता। इसलिये आँखों से देखने का तो कोई प्रश्न ही नहीं। वह सर्वव्यापक है तथा सबके हृदय में विराजमान है।
ईश्वर ने मनुष्य को सब प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति के लिये पाँच ज्ञानेन्द्रियां दी हैं, जो पाँच विषयों का ज्ञान व अनुभव करवाती हैं। वे पाँच इन्द्रियां हैं आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा। इनके पाँच ही विषय हैं क्रमशः रूप, शब्द, गन्ध, स्वाद तथा स्पर्श और इनके पांच ही देवता हैं, जिनसे ये इन्दियाँ शक्ति ग्रहण करती हैं। वे हैं क्रमशः अग्नि, आकाश, पृथ्वी, पानी और हवा। आँख रूप देखने का काम करती है, उसका देवता अग्नि है। जहाँ अग्नि (प्रकाश) होगी, वहीं आप आंखों से रूप देख सकते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, दीपक, बिजली आदि अग्नि के ही रूप हैं। इसी प्रकार कान का विषय है शब्द और देवता है आकाश यानी शून्य स्थान। आकाश की सहायता से ही शब्द सुनाई देता है। शब्द को हम कान से ही सुन सकते हैं। यदि शब्द को आँखों से देखना चाहें तो चाहते हुए भी नहीं देख सकते। इसी प्रकार नाक का विषय है गन्ध और उसका देवता है पृथ्वी। हमें जहाँ भी फल-फूल-पत्तों में गन्ध मिलती है, वह पृथ्वी से ही ली हुई होती है। गन्ध को हम नाक से ही जान सकते हैं, आँखों से देखना चाहें तो देख नहीं सकते। इसी भाँति जिह्वा का विषय है स्वाद और उसका देवता है पानी। जहाँ आपको स्वाद मालूम होता है या जिस वस्तु को खाने या पीने में हमको स्वाद आता है तो वह समझना चाहिये कि पानी से ही प्राप्त हुआ है। फलों में स्वाद, गन्ने में मिठास, नीम में कड़वास, नीम्बू में खटास का जो स्वाद अनुभव होता है, वह पानी से ही प्राप्त हुआ होता है। यानी वह पानी का ही अलग-अलग स्वाद है। हम स्वाद को आँखों से देखना चाहें तो देख नहीं सकते। जहाँ हमें स्पर्श से सुख मिलता है, वह त्वचा का विषय है और हवा से प्राप्त होता है। हमें सर्दी-गर्मी का अनुभव या किसी प्रकार का दुःख-सुख जो त्वचा के स्पर्श से मिलता है, वह त्वचा का विषय ही कहलाता है और हवा से प्राप्त होता है। इस सुख-दुःख को हम आँखों से देखना चाहें तो देख नहीं सकते। परन्तु यह सुख-दुःख, सुगन्ध-दुर्गन्ध, स्वाद, शब्द आदि होते जरूर हैं। इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता, जबकि ये आंखों से नहीं दिखाई देते। तो ईश्वर के लिये ही देखने की शर्त क्यों लगाई जाती है, कुछ समझ में नहीं आता।
ईश्वर ने मनुष्य को ये पाँच बाहर की ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं। उसी प्रकार अन्तःकरण की भी चार इन्द्रियाँ दी हैं जिनके नाम हैं मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन से व्यक्ति विचार (मनन) करता है, बड़ी-बड़ी आशाएं बांधता है तथा भूख-प्यास-भय व शोक का अनुभव करता है। बुद्धि से अच्छे-बुरे का निर्णय करता है तथा मन का स्वभाव चंचल होने से उसके ऊपर नियन्त्रण रखता है। ज्ञान का उपार्जन भी मनुष्य बुद्धि से ही करता है। चित्त पर देखी हुई वस्तु अंकित हो जाती है और फिर कभी उसको याद करने से वह चीज उभरकर बुद्धि में आ जाती है। चित्त का काम किसी भी देखी हुई या सोची हुई को वस्तु को संग्रह कर लेना यानी चित्त पटल पर अंकित कर लेना है। अहंकार से अहम् भाव का उत्पन्न होता यानी व्यक्ति को अपने अस्तित्व का तथा मैं हूँ, यह मेरा है, का बोध होता है। इन सब ज्ञानेन्द्रियों तथा पाँच कर्म इन्द्रियों (हाथ, पांव, मुख, मल-मूत्र द्वार) तथा पूरे शरीर का स्वामी आत्मा है, जो हृदय स्थान में सूक्ष्म रूप में विराजमान है। इसी के साथ परमपिता परमात्मा भी अति सूक्ष्म रूप में उपस्थित रहता है। ईश्वर की अनुभूति करना आत्मा का ही विषय है। वैसे तो ईश्वर और आत्मा एक स्थान पर ही रहते हैं,परन्तु आत्मा द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, लोभ, मोह आदि विकारों (मैलों) से ढकी रहती है, जिससे वह ईश्वर को नहीं देख पाती। जैसे मैले शीशे में मुख नहीं दिखाई देता, उसी प्रकार आत्मा भी विकार रूपी मैलों से ढकी रहने के कारण ज्योतिस्वरूप ईश्वर को नहीं देख पाती। मनुष्य इन विकारों को दूर करके ईश्वर के न्याय, दया, परोपकार, निष्पक्षता आदि गुणों को अपने व्यवहार में प्रयोग करके और अपने मन को ज्ञान-तप व संयम द्वारा स्थिर करके यम-नियमों से समाधि अवस्था तक पहुँचकर ज्ञानरूपी नेत्रों से ईश्वर के दर्शन कर सकता है। दर्शन का मतलब अनुभव अथवा साक्षात्कार है। ईश्वर अथाह आनन्द का सागर है। उसमें प्रवेश होकर (ईश्वर के समीप बैठकर) अपार आनन्द की अनुभूति होती है। जैसे अग्नि गर्मी का भण्डार है, हम अग्नि के जितना नजदीक जाएंगे, हमें उतनी ही अधिक गर्मी लगेगी। उसी प्रकार ईश्वर तो अनन्त आनन्द का भण्डार है। हम अपने अच्छे कर्मों तथा शुद्ध आचरण व व्यवहार के द्वारा जितना ईश्वर के पास जाएंगे, उतनी ही ज्यादा आनन्द की अनुभूति हमें होती जायेगी और साधना से समाधि अवस्था में पहुँचकर हम पूर्णआनन्दमय हो जायेंगे। यही ईश्वर की प्राप्ति है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद मुक्ति अवस्था में ईश्वर के समीप रहकर इसी आनन्दमयी स्थिति को बनाए रख सकता है, जो मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य है।
कुछ व्यक्ति कह देते हैं कि ईश्वर जब सब जगह विराजमान हैं, तो मूर्ति में भी तो है। जब हम मूर्ति की पूजा करते हैं, तो वह भी ईश्वर की ही पूजा हुई। लेकिन ये नासमझ यह नहीं समझते कि मूर्ति में ईश्वर तो है, परन्तु पूजा करने वाले की आत्मा तो मूर्ति में नहीं है। ईश्वर के दर्शन या अनुभूति तो आत्मा को करना है। इसलिये जहाँ ईश्वर और आत्मा दोनों एक साथ हैं, वहीं पर ईश्वर के आनन्द की अनुभूति करने में सक्षम हुआ जा सकता है, अन्य कोई मार्ग नहीं।
संसार में तीन तत्व ही अनादि व अनन्त हैं, जिनका न कभी आरम्भ हुआ और न कभी अन्त होगा। वे तीन तत्व हैं ईश्वर, जीव और प्रकृति। प्रकृति सत् है यानी उसका अस्तित्व या स्थिति है। जीव सत्-चित् है यानी जीव का अस्तित्व है और वह चेतन भी है तथा ईश्वर सत्-चित्त-आनन्द है यानी उसका अस्तित्व है, चेतन है, साथ ही आनन्द का भंडार भी है। जीव बीच में है, प्रकृति नीचे और ईश्वर ऊपर है। यदि मनुष्य (जीव) नीचे प्रकृति की तरफ जायेगा तो वह भोग में फंसेगा। कारण यह है कि प्रकृति में रूप, शब्द, गंध, स्वाद व स्पर्श विषयों का आकर्षण है। इसलिए मनुष्य अपनी इन्द्रियों को सुन्तुष्ट करने के लिये इन विषयों में फंसेगा और क्षणिक सुख के लिये वह ईश्वर के विशाल आनन्द को छोड़ देगा। यदि मनुष्य अच्छे काम करता हुआ अध्यात्म (ऊपर) की तरफ जायेगा तो वह ईश्वर के समीप होता जायेगा। ईश्वर आनन्द का सागर है। इसलिये वह जितना ईश्वरीय कार्यों को करेगा, उतना ही आनन्द को प्राप्त करता जायेगा। अन्त में यम-नियमों का पालन करता हुआ योग साधना से समाधि अवस्था में पहुँच जायेगा और ईश्वर की आनन्दमयी गोद में बैठकर अनन्त आनन्द की प्राप्ति कर सकेगा, जिसके लिये वह प्रयत्नशील था।
ओ3म् यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानु पश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति॥ (यजु.40.6)
जो मनुष्य सब प्राणियों के हानि-लाभ और सुख-दुःख को अपने आत्मा के तुल्य देखता है तथा समस्त प्रकृति आदि पदार्थों में परमेश्वर को व्यापक जानता है, वह कभी भी संशय को प्राप्त नहीं होता।
ओ3म् मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।
प्रियं सर्वस्व पश्यत उत शूद्र उतार्ये॥ (अथर्व. 19.62.1)
हे प्रभो! मुझे विद्वानों का प्रिय बना दो। राजाओं के मध्य में भी मुझे प्रिय बना दो। मुझे सब देखने वालों का प्रिय बना दो, चाहे वे शूद्र हों अथवा आर्य। भाव यह है कि जो भी मुझे देखे मैं उसका प्रिय होऊँ। - खुशहालचन्द्र आर्य
The Way to Get God | Feeling of God | Ubiquitous | Acquisition of Knowledge | Body Owner | Feeling of God | Visions of God | Experience or Interview | Feeling of joy | Eternal | Body Soul Lord | Vedic Motivational Speech & Vedas Explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Khuda Jassu - Adityana - Hassanpur | Newspaper, Vedic Articles & Hindi Magazine Divya Yug in Khujner - Adoor - Ladwa | दिव्ययुग | दिव्य युग