विशेष :

वीरांगना वीरमती

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veermatiचौदहवीं सदी में भारत का सम्राट अलाउद्दीन था। इतिहास साक्षी है कि वह हिन्दुओं को नष्ट करने, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटने व उनका राज्य हड़प लेने के लिए किस तरह तुला बैठा था। लेकिन एक छोटे से राज्य देवगिरि ने उसकी नाक में दम कर रखा था। देवगिरि के राजा रामदेव ने अलाउद्दीन की आधीनता स्वीकार करने से साफ मना कर दिया था।

देवगिरि का राजा अपने मराठा सरदार के बल पर कूदता था। यवनों की मजाल नहीं थी कि वे उस मराठा सरदार के जीते जी देवगिरि पर हमला बोल दें। इस सरदार की ही रूपवती कन्या वीरमती थी। एक युद्ध में वीरमती के पिता (मराठा सरदार) मारे गए। माँ बचपन में ही चल बसी थी। अनाथ वीरमती को राजा रामदेव राजमहल में ले आये। राजकुमारी गोरी के साथ उसकी शीघ्र ही मित्रता हो गई और वे दोनों सगी बहनों की तरह रहने लगीं। कुछ दिनों बाद राजा ने वीरमती की सगाई एक युवक कृष्णराव से कर दी जो बड़ा वीर था। वीरमती भी उसकी वीरता से प्रभावित थी, पर वह स्वभाव से कपटी था।

देवगिरि पर अलाउद्दीन ने हमला कर दिया। देवगिरि से राजा के सेनापतित्व में मतवाले वीर सैनिकों की टोली जिसमें कृष्णराव भी था, यवनों को सीमा से बाहर खदेड़ने के लिए चल पड़ी। वीरमती ने चलते समय कृष्णराव से कहा था, “रणभूमि ही वीरों के आराम करने का स्थान है। यदि मुझे चाहते हो तो पहले रणभूमि को प्यार करो। स्वाधीनता के लिए मर मिटना ही क्षत्रिय का धर्म है।’’

दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अलाउद्दीन मैदान छोड़कर भाग गया लेकिन यह उसकी चाल थी। हिन्दुओं को धोखे में डालकर उसने पुनः पूरी तैयारी से आक्रमण किया। हिन्दू वीर लड़ने के लिए तैयार हो गये। लेकिन कृष्णराव ने कहा, “हमें कूटनीति से काम लेना चाहिए। हमें पहले यह पता लगा लेना चाहिए कि शत्रु की सेना कितनी है और उनके पास रसद कितनी है।’’

राजा कृष्णराव की बात मान गये। उनके कहने पर कृष्णराव सेना की थाह लेने के लिए स्वयं जाने को तैयार हो गया। लोग कृष्णराव की प्रशंसा कर रहे थे पर वास्तव में वह अलाउद्दीन के साथ मिला हुआ था, उसी के कहने पर अलाउद्दीन ने रणक्षेत्र छोड़ा था। वह सेना का अता-पता निकालने के बहाने अलाउद्दीन को घर का भेद बताने जा रहा था।

वीरमती ने कृष्णराव से कहा, “दुश्मन की सेना असंख्य है। मैं नहीं चाहती कि आप जीते जी शत्रु के हाथों बन्दी हों। मैं भी आपके साथ चलकर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना चाहती हूँ।’’

वीरमती की बात को अनसुना करके कृष्णराव अकेला ही गया। वीरमती को कुछ शक हुआ और वह पुरुष वेश में छिपते हुए उसके पीछे चल दी। कुछ दूर जाने पर वीरमती का घोड़ा रुक गया। वीरमती ने देखा कृष्णराव एक झाड़ी के पीछे छिपकर अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति को अपनी सेना के भेद दे रहा था।

वीरमती क्रोध से पागल हो उठी। उसने झपटकर कृष्णराव की छाती में तलवार घोंप दी। यवन सेनापति भाग गया। कृष्णराव ने आँखें खोलकर वीरमती की ओर देखा। फिर स्वतः ही उसकी आँखें शर्म से झुक गईं। उसका हृदय पश्‍चाताप से भर उठा। उसने कहा, “वीरमती! मुझे माफ कर दो, मैं सचमुच पापी हूँ।’’

वीरमती ने कहा, “जो वीरमती धर्म को जानती है वह अपना कर्त्तव्य भी समझती है। आपके बिना मेरा संसार सूना है’’, यह कहते हुए उसने अपनी छाती में भी तलवार घोंप ली और अनन्त में विलीन हो गई।

Veerangna Veermati | Emperor of India | Devagiri | In the Nose | Maratha Sardar | Influenced by Heroism | Deceptive by Nature | Religion of Kshatriya | Diplomacy | Subsistence Duty | Allauddin Khilji | Merge into Eternal | Vedic Motivational Speech & Vedas Explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Kandi - Udupi - Paithan | Newspaper, Vedic Articles & Hindi Magazine Divya Yug in Kandra - Ujhani - Ramtek | दिव्ययुग | दिव्य युग