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लोकमान्य बालगंगाधर तिलक

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lokmanya balgangadhar tilak

भारतवर्ष सदा वीरों और देशभक्तों की कर्मस्थली रहा है। इस पावन भूमि पर एक से बढ़कर एक संत-महात्माओं और महापुरुषों तथा रणबांकुरों ने जन्म लेकर भारत माँ का मान बढ़ाया है। उन्हीं महापुरुषों में से एक लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का नाम भारत के इतिहास में शीर्ष पर आता है। तिलक जी देशभक्तों के शिरोमणि थे। वस्तुतः तिलक जी ने ही सर्वप्रथम हम भारतवासियों को स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया था, जिसका मर्म सत्यार्थप्रकाश में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने समझाया था। तिलक जी के कहे गये अमर शब्द थे कि “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’’ जब हम इस वाक्य की महत्ता पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि यह अमर वाक्य कितना जन-चेतना की लहर दौड़ने वाला साबित हुआ। साथ ही आज के वातावरण में भी हर पहलू पर परखने पर कितना सही उतरा है। उनके द्वारा की गई भारत-माता की बेमिसाल व निःस्वार्थ सेवा सदियों तक याद की जाती रहेगी।

भारतभूमि में जन्मे ऐसे महापुरुष लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र में रत्नागिरी जिले के चिखल नामक गांव में सन् 1856 में 23 जुलाई को हुआ था। उनके पिता जी का नाम गंगाधर तथा माता जी का नाम पार्वतीबाई था। उनके पिता अध्यापक होने के साथ-साथ समाजसेवी और लेखक भी थे। इसी प्रकार उनकी माता भी परम ईश्‍वरभक्त थीं। तिलक को अपने माता-पिता से बहुत से गुण तो विरासत में मिले। तिलक जी को बचपन में ही पिता ने स्वयं संस्कृत, मराठी और गणित का अध्ययन कराया था। इस कारण बाल्य अवस्था में ही तिलक इन तीनों विषयों में अपनी श्रेष्ठता की छाप हमेशा पाठशाला में छोड़ते थे। आपको गणित विषय में कुशल पांडित्य प्राप्त था। तिलक जी कैसे भी कठिन से कठिन सवालों का मुंहजबानी जवाब दे देते थे। तिलक जी के मौखिक प्रश्‍नों के उत्तर देख-सुन शिक्षकगण आश्‍चर्यचकित हो जाते थे। आप प्रश्‍नपत्र में सर्वप्रथम कठिनतम सवालों के जवाब लिखा करते थे।

जब तिलक जी छोटे ही थे, तभी उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। दस वर्ष की आयु में माता जी का देहान्त और जब वह सोलह वर्ष की आयु के थे, तब उनके पिता जी ने अपना शरीर त्याग दिया। माता-पिता के अभाव में भी तिलक ने अपने साहस को बनाये रखा और अध्ययन भी जारी रखा। आपने बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। उसके बाद संस्कृत का गूढ़ज्ञान प्राप्त कर संस्कृत में अपनी विद्वता की एक अलग छाप छोड़ी। आप लग्नशील व्यक्तित्व के धनी थे। आप कार्य करने में विश्‍वास रखते थे। वे जो कहते थे वह कर दिखाते थे। उन्होंने देशप्रेम और परिश्रम की शिक्षा अपने पिता जी से तथा दीन-दुखियों व समाज की सेवा के धर्म-संस्कार अपनी माता जी से ग्रहण किये थे। इस कारण तिलक जी बड़े परिश्रमी और प्रखर राष्ट्रभक्त थे। आपकी नस-नस में देश-प्रेम कूट-कूटकर भरा था। भारत माँ के पैरों में पड़ी गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए ही अंग्रेजी सरकार को ललकारते हुए उन्होंने घोषणा की थी- “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’’
इस नारे ने समस्त भारतवर्ष के जन-जन में स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रति ललक को जगाया। जब स्वतन्त्रता के अधिकार की लहर चारों तरफ फैली, उसी समय लोकमान्य तिलक जी ने अपने आपको पूरी तरह से राष्ट्रसेवा में लगा दिया था। उन्होंने पत्रकारिता को भी स्वातन्त्र्य आंदोलन को गति प्रदान करने का माध्यम बनाया।

भारत माँ को आजाद कराने के लिए अंग्रेजी सरकार के जुल्मों के खिलाफ वे हमेशा अपनी आवाज उठाते रहे, जिस कारण उनको अनेक बार जेल जाना पड़ा और भयंकर यातनाएँ भी सहनी पड़ी। सन् 1893 में बम्बई में हिन्दू-मुसलमानों का दंगा हुआ तो आपने महाराष्ट्र में हिन्दुत्व की चेतना जागृत की, जिसके परिणामस्वरूप गणपति उत्सव और शिवाजी जयन्ती उत्सवों ने राष्ट्रीय रूप धारण कर लिया। इससे समूचे महाराष्ट्र में जन चेतना की जागृति और चैतन्य का सृजन हुआ। इससे प्रभावित होकर पुणे के चाफेकर बन्धुओं ने विशेष उत्साह प्रदर्शित किया। इन्होंने 22 जून 1897 में विक्टोरिया के राज्यारोहण समारोह के अवसर पर पुणे के अंग्रेज प्लेग अफसर को मार डाला। बाद में इसी हत्याकाण्ड में चाफेकर बन्धुओं को फांसी दी गई। तिलक जी ने फांसी का खुलकर विरोध किया। नवयुवकों को देशसेवा में आगे लाने तथा स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रचार हेतु अपने ही समाचार पत्रों का सम्पादन भी किया। आपके लेखनी इतनी सशक्त थी कि अंग्रेज सरकार आपके पत्र ‘केसरी’ में छपे लेखों से सदा परेशान रहती थी। सरकार की उनके पत्र केसरी पर कटुदृष्टि पड़ी।

उन दिनों तीन नाम प्रमुख थे बाल-पाल-लाल। महाराष्ट के बाल लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और पाल बंगाल के शेर विपिनचन्द्र पाल तथा लाल पंजाब केसरी लाला लाजपतराय। ये तीनों नेता स्वतन्त्रता यज्ञ में आहुति देने पर तुले थे। इनके नाम सुनकर अंगे्रजी सरकार कांपती थी। एक घटना स्मरणीय है। इससे समझ में आ जाता है कि अंगे्रजी सरकार तिलक से कितना डरती थी! मजफ्फरपुर में 30 अप्रैल 1908 की रात्रि में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने बम विस्फोट किए। इस विषय पर दैनिक ‘केसरी’ के मई व जून के चार अंकों में प्रकाशित लेखों को ‘राजद्रोहात्मक’ ठहराकर एक अंग्रेज न्यायाधीश ने लोकमान्य तिलक को छह साल की सजा सुनाई। इससे स्पष्ट होता था कि सन् 1908 का यह मुकदमा केसरी में प्रकाशित लेखों के विरुद्ध था।

स्वराज्य स्थापना हेतु साधक को साधना यानी साधन की आवश्यकता होती है। तिलक जी का राजनीतिक सूत्र था कि समय पर परखकर सही साधन का उपयोग किया जाये। आप अवसर के अनुरूप हिंसा मार्ग अपनाने से भी नहीं हिचकते थे। उन्होंने समय-समय पर सशस्त्र क्रांति की ‘शक्य शक्यता’ आजमाई। पर वे कानून की हद का पालन करते हुए राजनीति के लाभदायी मार्ग को अपनाते थे। वे कहा करते थे कि राज करना कोई साधुओं का खेल नहीं है। अतः वह शस्त्राचार को अनैतिक नहीं मानते थे। दूसरी तरफ वह उतावलेपन में या अविचार से शस्त्र का प्रयोग करने वालों को अवश्य ही रोकते थे। अंग्रेज सरकार के गुप्तचर विभाग के अधिकारियों द्वारा तिलक जी पर बराबर नजर रखी जाती थी। 1907-08 में तिलक जी की कुछ गतिविधियों के सबूत अंग्रेजी सरकार के हाथ लगे, जिनमें बम-विस्फोट तथा बम निर्माण में कार्यरत लोगों से उनका सम्पर्क होने का सूत्र मिला। न्यायालय ने यह आरोप सिद्ध करने हेतु यही आवश्यक सबूत मानकर 24 जून 1908 को तिलक जी को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। उस दिन सरकार के पास यह आरोप सिद्ध करने हेतु पर्याप्त और निश्‍चित सबूत नहीं थे। लेकिन पुणे तथा अन्य शहरों में घटी घटनाओं को देखते हुए सरकार ने लोकमान्य को बन्दी बनाना ही बेहतर समझा था।

2 जून 1908 को पुणे में तीन स्थानों पर बम विस्फोट हुए। इससे पूर्व 16 मई 1908 के दिन हुए बम विस्फोट के पश्‍चात् 19 मई के केसरी में छपे अग्रलेख का शीर्षक था- ‘दुहेरी इसारण’। इसी प्रकार तिलक जी अपने और लेखों में भी हिम्मत के साथ कहने से न चूकते थे। अंग्रेजी सरकार ने उनको अनेकों बार कारावास का दण्ड तो दिया, परन्तु तिलक जी को वह देश सेवा के कार्यों से विचलित नहीं कर सकी। आपने कारावास के दौरान गीता का उत्तम भाष्य लिखा, जो आगे चलकर प्रकाशित हुआ।

आप स्वतन्त्रता के अमर पुजारी थे। एक चट्टान की तरह अडिग होकर जनता के सामने स्वतन्त्रता के अधिकार की बात उठाते हुए जगह-जगह भ्रमण करते रहे। आप 1917-18 में मथुरा भी पधारे थे। तिलक जी ने हिन्दुस्तान की जनता में देशप्रेम की चेतना की लहर दौड़ाई और भारत माँ को स्वतन्त्र कराने में अपना पूर्ण योगदान दिया। आप पूर्ण स्वराज्य का अखण्ड शंखनाद करके 1 अगस्त 1920 को महाप्रयाण कर गए। वास्तव में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी का जीवन सदैव हर राष्ट्रभक्त को प्रेरणा देता रहेगा। (सन्दर्भ-जनज्ञान) - डॉ. हरिसिंह पाल
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