मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी॥ 114
अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि-शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी (मोघम् अन्नम्) मुफ्त का भोजन, विना कमाया हुआ भोजन हमारी सब वाणियों ने इस सम्राट् को बढाया है। इसके प्रभाव का विस्तार समुद्र पर भी है। यह रथियों में सबसे बढकर कुशल रथी है तथा बलों या अन्नों का बड़ा श्रेष्ठ पति है अर्थात् इसके राज्य में प्रजाओं को बहुत अन्न और बल प्राप्त होंगे।
विश्वा गिर: अवीवृधन्- सब वाणियों (प्रजाओं) ने मिलकर अपनी सहमति दी है। सब प्रजाओं की सम्मति से ही यह राजसिंहासन पर आरुढ हो सका है तथा अपनी वृद्धि कर सका है। यहाँ प्रजा की भावनाओं के रक्षक को राजा चुनने का उल्लेख मिलता है।
मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारि दिव्यं शासमिन्द्रम्।
विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहादामिह तं हुवेम॥115
अर्थ- उस प्रसिद्ध ऐश्वर्यशाली सम्राट् को जो दिव्य गुणयुक्त शासक है, सेनाओं का संचालन कर सकता है, राष्ट्र में सब सुखों की वर्षा कर सकता है, गुणों में बहुत बढा हुआ है अथवा राष्ट्र को बढा सकता है, अधर्मात्माओं का शत्रु है, सब प्रकार के शत्रुओं या विपत्तियों का पराभव करने वाला है, शत्रुओं के लिए उग्र है तथा अपने आश्रितों को बल देने वाला है- को नवीन-नवीन रक्षा आदि गुणों के लिए बुलाते हैं। इस मन्त्र में भी गुणी और शरण्य राजा की लोकप्रियता का विवेचन है।
महाँ इन्द्रो नृवदा चर्षणिप्रा उत द्विबर्हा अमिन: सहोभि:।
अस्मद्र्यग्वावृधे वीर्यारोरु: पृथु सुकृत: कर्तृभिर्भूत्॥116
अर्थ- यह सम्राट महान् है। नरों की भांति सब ओर से मनुष्यों की पालना करने वाला है। दोनों प्रकार की प्रजाओं की वृद्धि करने वाला है। अपने बलों के कारण अहिंसनीय है, बड़े शरीर वाला है, बड़े गुणों वाला है, बनाने वालों से उत्तम रीति से बनाया गया है, राष्ट्र के बल-ऊर्जा अथवा उन्नति के लिए बढाया गया है तथा इसकी मनोवृत्ति सदा हमारी ओर रहती है। राजा प्रजाओं के सर्वविध अभ्युदय के लिए ही कार्यरत होता है।
त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रं हवे हवे सुहवं शूरमिन्द्रम्।
ह्वयामि शक्रं पुरहूतमिन्द्रं स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्र:॥117
अर्थ- पालना करने वाले, रक्षण, ज्ञान, तृप्ति आदि अनेक कल्याणकारी कार्य करने वाले, आवश्यकता के समय सबसे उत्तम बुलाने योग्य, शूरवीर तथा बहुसंख्या द्वारा बुलाए गए इस शक्तिशाली सम्राट् को राज्य करने के लिए बुला रहा हूँ। ऐश्वर्यशाली यह सम्राट् हमारे लिए कल्याणकारी हो।
अभिप्राय यह है कि रक्षा और कल्याण के लिए राज्य सिंहासन पर सम्राट् को बैठाया जाता है। जब तक जनता का बहुमत यह प्रकट न कर दे कि अमुक व्यक्ति प्रजा के कल्याण के कार्य करने में समर्थ है, तब तक उसे राजा नहीं चुना जा सकता है। इस प्रकार की अपनी सहमति द्वारा प्रजा से बुलाए जाने पर ही उसे राज्य की बागडोर सम्भालने के लिए कहा जा सकता है।118
जनिष्ठा उग्र: सहसे तुराय मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमान:।
अवर्धन्निन्द्रं मरुतश्चिदत्र माता यद्वीरं दधनद्धनिष्ठा॥119
अर्थ- हे सम्राट् ! तू बल से भरा हुआ, बड़े अभिमान वाला, राष्ट्र में सबसे अधिक तेजस्वी, हर्ष देने वाला, प्रजाओं में बल देने के लिए और शत्रुओं व दुष्टों की हिंसा के लिए उत्पन्न हुआ है, सबसे अधिक धन वाली प्रजा रूप माता ने या मातृभूमि रूप माता ने जबकि इस वीर इन्द्र अर्थात् सम्राट् को अपने में धारण किया हुआ था- छिपा रखा था- तब मनुष्यों अथवा सैनिकों ने इस सम्राट् को बढाया।
शतपथ ब्राह्मण में भी प्रजा की अनुमति से राजा (शासक) के बनने का उल्लेख है-
ता अस्मा इष्टा: प्रीता एतं सुवमनुमन्यते। ताभिरनुमत: सूयते।
यस्मै वै राजान: राज्यमनुमन्यन्ते स राजा भवति न स यस्मै न॥120
अर्थ- अर्थात वे सब प्रजाजन इस शासक (राजा) से प्रसन्न हैं, अत: इसे अनुमति देते हैं। उनकी अनुमति से यह बनाया जाता है। जिसे वे अनुमति देते हैं एवं राज्य करने के योग्य मानते हैं, वह राजा होता है। पर वह राजा नहीं होता, जिसे प्रजा की अनुमति नहीं मिलेगी। वेदों में राजा के लिए प्रजा की स्वीकृति आवश्यक होती है। यही प्रमाणित होता है।
शासन का संचालन योग्यतम व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए। उसे लोकप्रिय तथा जन-हितैषी होना चाहिए। जनसाधारण की भावनाओं को समझने वाला व्यक्ति ही नेतृत्व कर सकता है तथा राष्ट्रीय पर्यावरण को ठीक रख सकता है। वही लोगों को अपने अनुकूल बनाकर सन्मार्ग पर ले जाता है। राजा के गुणों के सम्बन्ध में भी यजुर्वेद वाङ्मय में बहुत उल्लेख प्राप्त होते हैं। यथा-
माहिभूर्म्मा पृदाकु:।
उरूं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवाऽउ।
अपदे पादा प्रतिघातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित्।
नमो वरुणायाभितिष्ठितो वरुणस्य पाश:॥121
अर्थ- हे राजन् ! तू उत्तम ऐश्वर्य के लिए बहुत गुणों से युक्त न्याय को कर। प्रजाजनों को उत्तम ज्ञान के प्रकाशयुक्त न्यायमार्ग से चला। कभी असत्य भाषण मत कर तथा सन्ताप देने वाले कटु वचन मत कह। सर्प के समान क्रोधरूपी विष का धारण करने वाला मत हो और जैसे वीर गुणयुक्त तेरा अति प्रकाशित वज्ररूप दण्ड तथा बन्धन करने की सामग्री प्रकाशमान रहे, वैसे प्रयत्न को सदा किया कर।
नि षसाद धृतव्रतो वरुण: पस्त्यास्वा।
साम्राज्याय सुक्रतु:॥122
अर्थ- प्रजापालन के शुभव्रत राज्य व्यवस्था को धारण करने वाला उत्तम क्रियावान् सर्वश्रेष्ठ राजा, न्यायगृहों में उचित व्यवस्था के स्थापन और उसके संचालन के लिए अधिष्ठता रूप से विराजमान हो।
नि षसाद धृतव्रतो वरुण: पस्त्यास्वा।
साम्राज्याय सुक्रतु:। मृत्यो पाहि विद्योत्पाहि॥123
अर्थ- नियमों का उत्तम पालन करने वाला, स्वयं उत्तम कर्म करने वाला श्रेष्ठ पुरुष प्रजाजनों के मुख्य स्थान में बैठता है और उन प्रजाजनों के पालन करने का विचार करता है। वह राजा मृत्यु आदि दु:खों (मरने के कारण रोगादि) से प्रजा का रक्षण करे तथा उत्पातों से प्रजा की रक्षा करे।
शासक (राजा) को ‘धृतव्रत‘ होना चाहिए। ‘धृतव्रत‘ का अर्थ है- जिसने व्रत धारण किया हुआ है। आचार्य यास्क ने ‘व्रत‘ के तीन अर्थ किए हैं- कर्म, अन्न और लोकप्रसिद्ध व्रत।124 सम्राट् या राजा के विशेषण ‘धृतव्रत‘ का भाव यह है कि उसने राष्ट्र के कर्मों और अन्नों को धारण किया हुआ है। उसके सुप्रबन्ध से राष्ट्र के विभिन्न प्रकार के लोग अपने-अपने विभिन्न प्रकार के कर्मों को करते चले जाते हैं, राष्ट्र की कर्मव्यवस्था में किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं होने पाती तथा राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के सुखपूर्वक यापन के लिए आवश्यक अन्नादि भोग्य पदार्थ पुष्कलमात्रा में प्राप्त होते रहते हैं। किसी को अभावग्रस्त नहीं रहना पड़ता।125 (क्रमश:)
सन्दर्भ सूची
114. यजुर्वेद संहिता - 12.56
115. यजुर्वेद संहिता - 7.36
116. यजुर्वेद संहिता - 7.39
117. यजुर्वेद संहिता - 20.50
118. वेदों के राजनीतिक सिद्धान्त-ख - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
119. यजुर्वेद संहिता - 33.64
120. शतपथ ब्राह्मण - 9.3.4.5
121. यजुर्वेद संहिता - 8.23
122. यजुर्वेद संहिता - 10.27
शतपथ ब्राह्मण - 5.4.4.5
123. यजुर्वेद संहिता - 20.2
124. निरुक्त - 2.4
125. वेदों के राजनीतिक सिद्धान्त-ख - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति - आचार्य डॉ. संजयदेव द्वारा प्रस्तुत (दिव्ययुग- अप्रैल 2015)
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