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राष्ट्रीय पर्यावरण-2

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National Enviroment 2

यजुर्वेद में राजा तथा जनता के कर्त्तव्यों का स्थान-स्थान पर विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस विषय में यजुर्वेद का 9 वाँ, 10 वाँ, 11 वाँ तथा 20 वाँ अध्याय विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं। अराजक स्थिति से बचने के लिए राजा होना चाहिए, परन्तु उसके लिए जनानुमोदन आवश्यक है।

राष्ट्र की व्यवस्था के संचालन के लिए तत्तद्गुण-विशिष्ट व्यक्तियों में कार्यों का विभाजन करना चाहिए। निम्न मन्त्र में इसका उल्लेख है-
विभक्तारं हवामहे वसोश्‍चित्रस्य राधस:।
सवितारं नृचक्षसम्॥126

अर्थात् जो राष्ट्र में सबके निवास, भूमि, अन्न, वस्त्र, धनादि तथा अद्भुत ऐश्‍वर्यों का यथायोग्य विभाजन करने वाला, ऐश्‍वर्य आदि उन्नति के लिए प्रेरित करने वाला तथा राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति की सुख सुविधा आदि को वितरित करने का पूर्ण ध्यान रखने वाला है, उसको हम सब चाहते हैं। उसके इन गुणों के कारण हम उसकी प्रशंसा एवं स्तुति करते हैं। अभिप्राय यह है कि सबको यथायोग्य भूमि, अन्न, ऐश्‍वर्य आदि का वितरण समाज या राष्ट्र में शासन को करना चाहिए।

यजुर्वेद के 30 वें अध्याय के पाँचवें मन्त्र से अन्तिम 22 वें मन्त्र तक 184 प्रकार के कार्यों तथा उनको करने वालों का विस्तुत वर्णन है, जिनमें शिक्षा, सेना, व्यापार, न्याय, स्वास्थ्य, कोष, वन, पर्वत, नगर आदि से सम्बन्धित विभाग हैं। इसी प्रकार सोलहवें अध्याय में भी बहुत से विभागों का उल्लेख प्राप्त होता है।

वैदिक काल में राष्ट्र की सुरक्षा के लिए विशेष सचेष्टता दिखाई पड़ती है। राष्ट्र में क्षत्रियों का अस्तित्व इसीलिए है कि वे राष्ट्र की रक्षा तथा जनता के संरक्षण के लिए सदा तैयार रहें- क्षत्राय राजन्यम्॥127 अर्थात् शत्रु के आघात से बचाने के लिए क्षत्रिय को नियुक्त करो।

क्षतत्राणात् क्षत्रं, क्षत्रेण युक्त: क्षत्रिय:। क्षत अर्थात् दु:ख से जो संरक्षण करता है, वह क्षत्रिय है।128 क्षणु हिंसायाम्129 इस धातु से क्षत पद बनता है। अत: राष्ट्र को हिंसा, दु:ख, कष्ट, हानि, अवनति आदि से बचाकर शत्रुओं के आक्रमण से रक्षा करने वाला ‘क्षत्रिय‘ कहा जाता है। जिन गुणों से राष्ट्र के स्वत्व की सुरक्षा होती है तथा देश का बचाव होता है- उन गुणों का नाम ‘क्षत्र‘ है।

राष्ट्र की रक्षा के लिए क्षात्रशक्ति के साथ-साथ बुद्धिबल की भी अत्यधिक आवश्यकता होती है। इसलिए उल्लेख आता है- वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहित:॥130

अर्थात् हम राष्ट्र हितार्थ सदैव जागरूक रहें। हमारा प्रयत्न किसलिए हो, इस विषय में यह उल्लेख है- महते क्षत्राय महत आधिपत्याय महते जानराज्याय॥131
अर्थात् बड़े शौर्य के लिए, बड़े अधिकार के लिए तथा बड़े जानराज्य-लोकराज्य के लिए हमारे प्रयत्न होने चाहिए।

राष्ट्र की उन्नति एवं रक्षा के लिए जागरूक रहना इसलिए आवश्यक है। क्योंकि जागरूक न रहने से अवनति होती है- भूत्यै जागरणम्, अभूत्यै स्वप्नम्॥132

किसी भी राष्ट्र या देश की सुरक्षा वहाँ के निवासियों की जागरूकता पर निर्भर है। जहाँ व्यक्ति सावधान हैं, जागरूक हैं तथा कर्तव्यनिष्ठ हैं, वहाँ शत्रु आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता। जहाँ असावधानी, प्रमाद एवं आलस्य है, वहीं पर बाहरी आक्रमण होते हैं। राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति में जागरूकता हो, इसके लिए राष्ट्र के प्रत्येक स्तर पर कार्य करना आवश्यक है।

राजा और प्रजा अथवा शासक और शासित इनमें मुख्यत: किसका किसको आधार है? इस विषय में यजुर्वेद में उल्लेख आता है-
पृष्ठीर्मे राष्ट्रमुदरमसौ ग्रीवाश्‍च श्रोणी।
ऊरू अरत्नी जानुनी विशो मेऽङ्गानि सर्वत:॥133
जंघाभ्यां पद्भ्यां धर्मोऽस्मि विशि राजा प्रतिष्ठित:॥134

राजा (शासक) कहता है- मेरी पीठ राष्ट्र है, मेरा पेट, कंधे, श्रोणी, जांघें, घुटने, हाथ आदि सब अवयव मेरे प्रजाजन ही हैं। जंघा और पांव के रूप में मैं धर्म ही हूँ अर्थात् धर्म के आधार पर मैं रहा हूँ। इस प्रकार से प्रजाजनों में राजा प्रतिष्ठित हुआ है अर्थात् प्रजा के आधार से राजा रहता है।

विश: मे अङ्गानि सर्वत:। प्रजाजन ही मेरे शरीर के सब प्रकार के अंग हैं अर्थात् मैं प्रजाजनों से पृथक् नहीं हूँ। प्रजाजन ही मेरा शरीर हैं। प्रजाजन ही मेरे शरीर के अंग तथा अवयव हैं। विशि राजा प्रतिष्ठित:। प्रजाओं के आधार से राजा रहता है। प्रजाजन ही राजा का सत्ता-आश्रय हैं। प्रजा ही राजा का प्रतिष्ठान अर्थात् आश्रय स्थान है। राजा न हो तो प्रजा तो रहती है, परन्तु प्रजा के बिना राजा का अस्तित्व भी नहीं हो सकता है। प्रजा के समर्थन एवं सहयोग के बिना राजा सिंहासन पर नहीं टिक सकता- प्रति क्षत्रे प्रति तिष्ठामि राष्ट्रे। प्रति तिष्ठामि यज्ञे॥135

अर्थात् प्रत्येक शौर्य के कार्य में मैं रहता हूँ। प्रत्येक राष्ट्ररक्षण तथा राष्ट्र हित के कार्य में मैं रहता हूँ। प्रत्येक यज्ञ में मैं भाग लेता हूँ।

राष्ट्र के राजा को राष्ट्र रक्षण तथा राष्ट्र हित आदि से सम्बन्धित अपने कर्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए। कभी भी इसमें आलस्य तथा प्रमाद नहीं करना चाहिए। राष्ट्र के अभ्युदय के लिए राजा को प्रयत्न करते रहना चाहिए-
लोमानि प्रयतिर्मम त्वङ्म आनतिरागति:।
मां सं म उपनतिर्वस्वस्थि मज्जा म आनति:॥136

अर्थात् मेरे सारे रोम राष्ट्रहित के लिए प्रयत्नशील हैं। मेरी त्वचा नम्रता बताती है तथा आकर्षण करने वाली है। मेरा मांस नम्रता कराने वाला है। मेरी अस्थि निवास करने वाली है और मेरी वसा अर्थात् मज्जा संसार को नम्र कराने वाली है।

जैसे बाल शरीर से बाहर आकर सहज ही बढते हैं, वैसे ही राष्ट्रोद्धार के लिए प्रयत्न सहज ही होते रहने चाहिएं। इसी तरह राजा तथा राज्य शासन के अधिकारीगणों में इनमें नम्रता रहनी चाहिए। लापरवाही, क्रोध तथा उद्धतभाव नहीं रहना चाहिए। प्रजा के विषय में विनम्र भाव धारण करना राजा एवं प्रजा-अधिकारियों के लिए आवश्यक है।137

विश: मे अङ्गानि सर्वत:। प्रजाजन ही राजा के शरीर के अवयव हैं। यह वैदिक सिद्धान्त साम्राज्यवाद के अनर्थों को दूर कर सकता है। प्रजाजनों का दु:ख राजा का दु:ख है, ऐसा राजा तथा राज्य शासक जहाँ समझेंगे, वहाँ राजा तथा राजपुरुषों से प्रजा को कष्ट देने का कार्य कदापि नहीं होगा। इस विचार के वातावरण में पले हुए राजा तथा राजपुरुष प्रजा को कष्ट नहीं दे सकते। प्रजा को कष्ट देने का पाप उनके द्वारा न हो, इस विषय में वे सदा सचेष्ट रहते हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों की कल्पना का शासक, प्रजा का शोषक नहीं हो सकता।•(क्रमश:)
सन्दर्भ सूची
126. यजुर्वेद संहिता - 30.4
127. यजुर्वेद संहिता - 30.5
128. वेदों में नगरों और वनों की संरक्षण व्यवस्था - श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर
129. धातुपाठ, तनादिगण
130. यजुर्वेद संहिता - 3.23
शतपथ ब्राह्मण - 5.2.2.5
तैत्तिरीय संहिता - 1.7.10
131. तैत्तिरीय संहिता - 1.8.10
132. यजुर्वेद संहिता - 30.17
133. यजुर्वेद संहिता - 20.8
134. यजुर्वेद संहिता - 20.9
135. यजुर्वेद संहिता - 20.10
136. यजुर्वेद संहिता - 20.13
137. वेदों में विविध प्रकार के राज्य शासन - श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर (दिव्ययुग- जून 2015) - आचार्य डॉ. संजयदेव द्वारा प्रस्तुत (देवी अहिल्या विश्‍वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध)

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