शिव का सीधा-सादा अर्थ है कल्याणकारी। पुराणों की शिव की कल्पना भी कल्याण की भावना से ही प्रेरित है। शिव सबका कल्याण व हित चाहने वाला देवता है। दूसरों का शुभचिन्तक व हित चाहने वाला व्यक्ति अधिकतर शुद्ध-पवित्र हृदय का तथा भोलापन लिए होता है। इसीलिए शिव को भोला बाबा भी कहा जाता है, जो थोड़ी सी उपासना करने से ही प्रसन्न होकर काफी वरदान देने वाला देवता है। शिव के बारे में अनेकों कहानियाँ व किस्से प्रचलित हैं। वह किसी को दुखी देखता है तो उसे सुखी बना देता है। इसीलिये दुखी को सुखी बना देने वाला देवता ही शिव माना गया है। कल्याण व उपकार सब गुणों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसी बात को अपने शब्दों में कहा है- परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। इसीलिये शिव को सब देवी देवताओं से बड़ा देवों का देव महादेव भी कहते हैं।
बिना स्वार्थ के देने वाले को देव या देवता कहते हैं। देवता दो प्रकार के होते हैं, चेतन और जड़। दूसरे शब्दों में जीवित देव और निर्जीव देव भी कहे जाते हैं। जीवित या चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, विद्वान, वृद्धजन व अतिथि आते हैं, जो हमें उपदेश, सद्ज्ञान, अनुभव व आशीर्वाद देकर हमारे जीवन को सुखी व शान्तिप्रद बनाने का प्रयत्न करते हैं। निर्जीव या जड़ देवों में सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, अन्न, फल व वनस्पति हैं, जिनसे हमारे शरीर को भोजन, गर्मी व शक्ति मिलती है। तभी हमारे शरीर को गति मिलती है और रक्षा होती है। यानी जड़ देवता हमें जीवित रखने में परम सहयोगी हैं। यहाँ प्रसंगवश यह बता देना उचित है कि जैसे हम अपने शरीर के सब अंगों को भोजन व रस पहुँचाने के लिए मुख से भोजन करते हैं, फिर उस भोजन का रस बनकर हमारी नस-नाड़ियों द्वारा शरीर के सभी अंगों को पहुँच जाता है, वैसे ही सभी जड़ देवताओं का मुख अग्नि है। इसीलिये हम यज्ञ द्वारा अग्नि में आहुति देते हैं। यज्ञ में डाली हुई सामग्री व घृत की सुगन्ध हजारों गुणी होकर हवा में फैलकर सब जड़ देवताओं सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, अग्नि व वनस्पतियों को पहुँच जाती है तथा वह शुद्ध व पवित्र होकर प्राणी मात्र का कल्याण करती है और यज्ञ से ही वायुमण्डल हल्का हो जाने से वृष्टि भी होती है। वृष्टि से अन्न, फल व वनस्पतियाँ पैदा होती हैं, जिनको खाकर प्राणीमात्र जीवित रहता है। इसीलिये वेदों में ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्मः’ कहकर यज्ञ की महिमा कही गई है। वेदों में यज्ञ को विश्व की नाभि यानि केन्द्र भी बताया गया है।
पुराणों में शिव को सात आभूषणों से विभूषित किया गया है, जो उनके गुणों को प्रदर्शित करते हैं। वे सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में भी पूर्णतः घटित होते हैं। शिव की भाँति ही महर्षि दयानन्द का पूरा जीवन भी परोपकार के लिये बीता। उनको अपना कोई स्वार्थ नहीं था। उन्होंने अपने जीवन में जो ज्ञान, बल व तेज अर्जित किया, वह सब परहित में ही लगा दिया। महर्षि का एक-एक क्षण और एक-एक श्वास प्राणीमात्र की भलाई के लिये ही बीता। ऐसे महान् व्यक्ति का प्रादुर्भाव संसार में युगों के बाद होता है। शिव ने तो देवताओं व राक्षसों के झगड़े को मिटाने के लिये तथा देवी-देवताओं की रक्षा के लिये विषपान किया था और उस विष को गले में ही रोककर पेट में नहीं जाने दिया, जिससे शिव का गला नीला हो गया। इसीलिये शिव का एक नाम नीलकण्ठ भी है। परन्तु महर्षि दयानन्द ने तो प्राणिमात्र के कल्याण के लिये एक बार नहीं, दो बार नहीं, अनेकों बार विषपान किया और उसको न्यौली क्रिया द्वारा बाहर निकालते रहे तथा विष का प्रभाव शिव की भाँति ही शरीर पर नहीं होने दिया। इस प्रकार शिव ने जो कार्य बड़े रूप में एक बार किया, वही कार्य महर्षि दयानन्द अनेक बार छोटे रूप में करके शिव के तुल्य बनने के पूरे अधिकारी बने। शिव के सातों आभूषण महर्षि के जीवन में कैसे घटित होते हैं, इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-
गंगा को जटा में धारण करना- पौराणिक मान्यता के अनुसार भागीरथ की प्रार्थना पर गंगा के वेग को रोकने के लिये शिव ने पहले गंगा को अपनी जटा में धारण किया। फिर जटा से पृथ्वी पर प्रवाहित किया, जिससे पृथ्वीवासियों का कल्याण व हित हुआ। वैसे ही हजारों वर्षों से वेदों को न पढ़ने से वेद ज्ञान प्रायः लुत हो गया था। सिर्फ ग्रन्थों में ही बन्द था। महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के चरणों में बैठकर सत्य ज्ञान को जाना और अपने परिश्रम से वेद ज्ञान रूपी गंगा को पुनः धरती पर प्रवाहित किया। यानी वेद ज्ञान का प्रकाश किया। यह कार्य शिव के कार्य के समान था।
मस्तिष्क में चन्द्रमा का होना- चन्द्रमा शीतलता यानी धैर्य का प्रतीक है। महर्षि दयानन्द महान् धैर्यवान् व्यक्ति थे। इसके अनेकों उदाहरण ऋषि के जीवन में आते हैं। परन्तु यहाँ दो घटनाएं लिखना ही पर्याप्त होगा। एक बार ऋषि कहीं व्याख्यान दे रहे थे। उस समय एक विरोधी ने कुछ शरारती बच्चों को बुलाकर यह कहा कि तुम स्वामी जी पर ईंटें, पत्थर व धूल फेंको, मैं तुम्हें मिठाई दूँगा। बच्चों ने वही काम किया। ऋषि के भक्तों ने उन बच्चों को पकड़ लिया और ऋषि के पास लाये। ऋषि ने बच्चों से पूछा कि तुम ईंट, पत्थर क्यों फेंक रहे थे? तब बच्चों ने उस व्यक्ति का नाम लेते हुए कहा कि उसने हमें मिठाई का लोभ देकर यह काम करवाया। स्वामी जी ने अपने भक्तों से मिठाई मगंवाकर उन बच्चों को दी और उन्हें पुचकारते हुए जाने को कहा। बच्चे खुशी-खुशी अपने-अपने घर चले गये। यह थी महर्षि की सहनशीलता व धैर्य।
दूसरी घटना इससे भी कहीं ज्यादा हृदय को छूने वाली है जो मानव में नहीं, किसी महामानव में ही पाई जा सकती है। वह घटना उस समय की है, जब ऋषि पुणे में कई दिनों से अपने धारावाहिक प्रवचन कर रहे थे। प्रवचनों से खिन्न होकर उनका अपमान करने के लिए एक आदमी का मुँह काला करके गधे पर उल्टा बिठाकर और उसके गले में जूतों की माला पहनाकर पीछे बीस-तीस विरोधी ढोल बजाते हुए जुलूस निकाल रहे थे और उस व्यक्ति की पीठ पर लिखा था “नकली दयानन्द’’। ऋषि के भक्तों को यह बड़ा अशोभनीय लगा और वे ऋषि के पास गए तथा सारा वृत्तान्त कह सुनाया। ऋषि मुस्कुराते हुए बोले कि वे जुलूस ठीक ही तो निकाल रहे हैं, नकली दयानन्द की तो यही दुर्गति होनी ही चाहिये। असली दयानन्द तो यहाँ बैठा है। यह सुनकर ऋषि के भक्तों को बड़ा आश्चर्य हुआ। यह धैर्य की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है? शिव का धैर्य का गुण भी महर्षि में अत्यधिक था। इसलिए उनकी शिव से तुलना करना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
गले में सर्पों की माला रखना- गले में सर्पों की माला रखने का भावार्थ यह है कि परोपकार के लिये जीवन को हर समय संकट में रखना और प्रसन्नचित्त रहना। इसका एक दूसरा भाव है, दुष्टों को भी आदर देकर गले से लगाना। यह दोनों ही गुण महर्षि के जीवन में बहुत अधिक देखने को मिलते हैं। शिव के गले में सर्पों का रहना तो एक उपमा मात्र है। परन्तु ऋषि के ऊपर तो कितनी ही बार दुष्टों ने मरे हुए साँप फेंके, ईंट, पत्थर मारे। लेकिन वाह रे देव ऋषि! तू कभी भी क्रोधित नहीं हुआ और शान्त चित्त से सभी सहन करते हुए वेदों का प्रचार और परोपकारी कार्य करता रहा। धरती पर अनेकों मत संस्थापक व सन्त, ऋषि, महात्मा आये, जिनको विरोधियों का विरोध सहना पड़ा। ऋषि का तो पूरा जीवन ही संकटों से घिरा था। उनके ऊपर कितनी ही बार विरोधियों ने घातक हमले किये, फिर भी उन्होंने विरोधियों से प्रेम का व्यवहार किया। यहाँ तक कि विष देने वाले पाचक जगन्नाथ को भी पाँचसौ रुपयों की थैली देकर नेपाल भाग जाने को कहा।
हाथ में त्रिशूल- हाथ में त्रिशूल, दुष्टों के संहार तथा वीरता का सूचक है। ऋषि में जितनी सहनशीलता थी, उससे कहीं ज्यादा दुष्टों व अन्यायियों के दम्भ को चूर करने की भी उनमें शक्ति थी। कर्णवास प्रवास के दौरान राव कर्णसिंह महर्षि के वेद प्रचार से रुष्ट होकर उन्हें गाली-गलौच करने लगा। स्वामी जी ने राव को समझाया कि विचारों का मतभेद बातचीत से प्रेमपूर्वक मिटाया जा सकता है। लेकिन राव तो ताकत के नशे में चूर था। गाली बकते हुए तलवार लेकर महर्षि पर लपका। उसे महर्षि के अतुल्य बल का अनुमान नहीं था। महर्षि ने झपटकर उसके हाथ से तलवार छीन ली तथा भूमि पर टेककर दो टुकड़े कर दिये और शान्त मुद्रा में कहा- “मैं संन्यासी हूँ। तुम्हारी किसी भी गलत हरकत से चिढ़कर, मैं तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं करूंगा। जाओ! ईश्वर तुम्हें सुमति प्रदान करें।’’
हाथ में डमरू- हाथ में डमरू धर्म प्रचार का सूचक है। ऋषि ने जो सबसे ज्यादा कार्य किया, वह वैदिक धर्म का प्रचार कार्य है। उस समय वेद सरलता से उपलब्ध नहीं थे। बहुत अधिक परिश्रम करके वेद की कुछ प्रतियाँ दक्षिण भारत से और कुछ जर्मनी से मंगवाकर चारों वेद उपलब्ध करवाये। उनके प्रचार के लिये विरोधियों से कितने ही शास्त्रार्थ किये। सारे भारत में घूम-घूमकर कितने ही व्याख्यान व भाषण दिये। अनेकों ग्रन्थ लिखे। वेदों के भाष्य भी किये और वेद प्रचार करने के लिये ही आर्यसमाज की स्थापना सन् 1875 में मुम्बई में की, जिसका मुख्य उद्देश्य मानव मात्र की सेवा करते हुए वेद प्रचार करना ही है। डमरू का कार्य जितना महर्षि दयानन्द ने किया, उतना शायद ही किसी अन्य धार्मिक विद्वान् ने किया हो।
शरीर पर राख रमाना- शिव शरीर पर राख रमाते थे। इसका तात्पर्य एक तो यह हो सकता है कि राख जैसी महत्वहीन वस्तु को भी महत्व देना यानि निम्न, कमजोर, अनाथ व असहाय व्यक्तियों को गले लगाना और उनको सहयोग व सम्मान देना। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि परहित के कार्यों में अपने तन, मन, धन को समर्पित करके त्याग द्वारा स्वयं को राख के समान बना देना। ये दोनों ही काम महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में बहुत अधिक मात्रा में किये। उन्होंने वेद प्रचार के बाद यदि कोई दूसरा काम अधिक-से अधिक किया था, तो वह था दुखित, असहाय, व अनाथ लोगों का जीवन सुखी बनाने हेतु जन-समाज को प्रेरित करना तथा समाज में अपमानित व निन्दित शूद्र वर्ग जिसे अछूत कहा जाता था, उसको हिन्दू समाज का अभिन्न अंग बताकर उसको सम्मान दिलाना और पढ़ने व धार्मिक स्थानों में प्रवेश का अधिकार दिलाना।
नारी जाति की भी उस समय दुर्दशा थी। उन्हें पढ़ाना तो दूर रहा, घर से बाहर निकालना भी दुष्कर्म समझा जाता था। उनका जीवन एक कैदी के समान था, बाहर की हवा भी नहीं लगने दी जाती थी। नारी घर का काम करने की केवल मशीन मात्र थी। ऐसे समय में महर्षि ने मनुस्मृति के श्लोक ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः’ के आधार पर उन्हें परिवार व समाज में सम्मान दिलवाया और गार्गी जैसी विदूषियों का उदाहरण देकर उन्हें लौकिक शिक्षा ही नहीं, वेद पढ़ने व पढ़ाने तक का अधिकार दिलाया। महर्षि ने विधवा-विवाह का समर्थन कर विधवाओें को सुखी जीवन प्राप्त कराया।
बाघाम्बर धारण- शिव वस्त्रों की जगह पहनने व बिछाने में बाघ की खाल (बाघ-छाल) का ही प्रयोग करते थे। इसका तात्पर्य यह है कि अपनी हिंसक प्रवृत्तियों का दमन करके अपने वश में करना। महर्षि दयानन्द इस विषय में सर्वोपरि और बेजोड़ थे। वे बाल ब्रह्मचारी तो थे ही साथ ही त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और प्रकाण्ड वेदज्ञ विद्वान भी थे। कोई ऐसा मानवीय गुण जैसे दया, उदारता, सहृदयता, निर्भयता, निष्पक्षता, ईमानदारी, विनम्रता, अहिंसा आदि नहीं, जो उनमें नहीं हो और अमानवीय दुर्गुण जैसे ईर्ष्या, द्वेष, राग, घृणा व अहंकार आदि तो उनसे कोसों दूर रहते थे। यदि यह कहा जाए कि हिंसक प्रवृत्तियों के दमन का कार्य महर्षि ने बाल ब्रह्मचारी होने के कारण शिव से भी बढ़कर किया, तो यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस प्रकार शिव के सातों आभूषणों के प्रतीक के रूप में सभी गुण महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में पूर्णरूपेण देखे जा सकते हैं। - खुशहालचन्द्र आर्य (दिव्ययुग - फरवरी 2010)
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