प्रजाचक्षु दण्डी स्वामी श्री विरजानन्द जी महाराज के श्रीचरणों में अढ़ाई वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त, अतीत काल से प्रचलित परम्परानुसार महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराज पूज्यपाद गुरु से विदा लेने हेतु आध सेर लौंग गुरु दक्षिणा के रूप में लेकर उनकी सेवा में उपस्थित हुए। पर महर्षि को सच्चे शिव के दर्शन कराने वाले, उनकी आत्मा को ज्ञान के पावन आलोक से आलोकित करने वाले, अपने सुयोग्य शिष्य को सत्यार्थों में आध्यात्मिक जन्म देने वाले, महामहिमामय, दिव्यज्ञान के आगार, अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न, प्रकाण्ड पाण्डित्य से परिपूर्ण गुरु भला लौंगों की उस तुच्छ भेंट से कब सन्तुष्ट होने वाले थे! वह घनगर्जन सम गम्भीर वाणी में बोल उठे कि मुझे लौंग नहीं चाहिएं। मैं तो गुरु-दक्षिणा के रूप में तुमसे एक अलौकिक एवं अभूतपूर्व भेंट चाहता हूँ और वह अपूर्व, अद्वितीय, अमूल्य गुरु दक्षिणा तुम्ही और केवल तुम्हीं दे सकते हो। तुम ज्ञान के पुंज हो। अतः समस्त विश्व के अज्ञानान्धकार को तिरोहित कर उसे वेद ज्ञान के दिव्य प्रकाश से प्रकाशित करो। समग्र कुरीतियों का निवारण करके, सामाजिक सुधार द्वारा विश्व के सम्मुख उसका आदर्श स्वरूप प्रस्तुत करो। मिथ्या ब्राह्मडम्बरों का उन्मूलन कर विश्व में सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रचार और प्रसार करो। कृण्वन्तो विश्वमार्यम् के मूलमन्त्र को अपनाकर घर-घर में वेदों का डंका बजा दो। आर्ष ग्रन्थों का प्रचार करो और वैदिक ग्रन्थों के पठन-पाठन द्वारा समस्त विश्व को लाभान्वित करो। गंगा-यमुना के पावन प्रभाव सम अपने विशाल एवं उदार हृदय को लोकहित और लोक कल्याण की पवित्र भावना से ओतप्रोत कर क्रियाशील जीवन को अपनाओ। वस्तुतः यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी।
यद्यपि यह मार्ग सुगम नहीं है और इसका अवलम्बन करने तथा इस पर अग्रसर होने के लिए कठोर साधना और महान तपोत्याग अपेक्षित है। तुम्हें आजन्म नाना कठिनाइयों, विघ्न-बाधाओं और कष्टों की विशाल वाहिनी से जूझना होगा। संभव है कि सत्य पथ का अवलम्बन करते हुए तुम्हें अपने प्राणों की भी बलि देनी पड़े। तब क्या तुम ऐसे कण्टकाकीर्ण पथ का अनुसरण कर सकोगे? क्या गुरु के प्रति अपनी अविचल, अगाध श्रद्धा और अपूर्व भक्ति भावना को प्रदर्शित करने हेतु तुम उनके द्वारा निर्देशित पथ की ओर सन्मुख हो सत्यार्थों में अपनी गुरु दक्षिणा उन्हें अर्पित कर सकोगो? क्या तुम इस कठिन व्रत को धारण करने में समर्थ हो सकोगे?
और पूज्यपाद गुरुदेव के प्रति दृढ़ आस्था एवं अगाध श्रद्धा रखने वाले उस अद्वितीय शिष्य ने गुरु के परम पुनीत चरणकमलों का स्पर्श कर तत्क्षण प्रतिज्ञा की कि हे भगवन्! मैं आजीवन इस कठिन व्रत का निर्वाह अपना सर्वस्व अर्पण करके ही नहीं, प्रत्युत प्राणों तक की बलि देकर भी करूंगा। जब तक मेरे शरीर में एक भी श्वास रहेगा, एक बूंद भी रक्त शेष रहेगा, तब तक यह दृढ़व्रती दयानन्द अपने श्रद्धेय गुरु के सउऊमुख की गई इस प्रतिज्ञा को कभी विस्मृत नहीं करेगा। पर इस कठिन प्रतिज्ञा को पूर्ण करने हेतु मैं आप सरीखे देवतुल्य आचार्य से शुभाशीर्वाद की याचना करता हूँ। क्योंकि आपके वरदहस्त के प्रभाव से मेरे उस कण्टकाकीर्ण मार्ग के शूल भी फूलों में परिणित हो जाएंगे। कहना न होगा कि सत्य प्रतिज्ञ, दृढ़व्रती, दृढ़ संकल्प महर्षि दयानन्द ने अपने पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय गुरु के सम्मुख की गई उस भीष्म प्रतिज्ञा का आजन्म आपद-विपदों को सहन करके भी पालन किया। नाना पर्वताकार विघ्न बाधाओं को पार करते हुए वह अपने कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होते रहे और इस प्रकार उन्होंने सच्चे अर्थों में अपनी अभूतपूर्व तथा अभूतपूर्व अलौकिक गुरु दक्षिणा अपने गुरु को अर्पित की।
युगपुरुष क्रान्तिकारी महर्षि दयानन्द ने अपनी इस भीष्म प्रतिज्ञा के पालनार्थ बाल ब्रह्मचारी रहकर समस्त भारत में प्रसरित अगनित पाखण्डों, अन्धविश्वासों, धार्मिक ब्राह्माडम्बरों एवं नाना सामाजिक कुरीतियों पर प्रबल कुठाराघात कर विकृत हिन्दू धर्म की पुनः सत्य सनातन वैदिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठा की। अविद्या और अज्ञान के घोर अन्धकार का विनाशकर जनमानस को वेदों के सत्य ज्ञान के आलोक से आलोकित किया। नाना मत-मतान्तरों के प्रवर्त्तकों के इन्द्रजाल में उलझी भोली-भाली जनता को मुक्त कर उसे सच्चे वेद मार्ग की ओर उन्मुख किया। बहुदेववाद का खण्डन कर एकेश्वरवाद की स्थापना की और प्रभु के सर्वसम्मानित ओ3म् नाम की उपासना सिखाई। युग-युग से अभिशापित, सामाजिक अन्याय और अत्याचार से पीड़ित शोषित नारी, शूद्र और अन्त्यज वर्ग का उद्धार कर नारी जाति एवं शूद्रगण को भी वेद पठन का अधिकार प्रदान किया। बाल विवाह, अनमेल विवाह और वृद्ध विवाह जैसी दूषित प्रथाओं का उन्मूलन कर दुर्दशाग्रस्त, अभागी विधवाओं के लिए विधवा विवाह का विधान किया तथा वैदिक विधि से विवाह समारोह सम्पन्न कर उन्हें पुनः सौभाग्यवती एवं सुखी बनाया। यही नहीं प्रत्युत यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। के मूल मन्त्र का समर्थन कर समस्त मानव मानस में नारी जाति के प्रति श्रद्धा और सम्मान के भाव जागृत किए।
स्वाभिमानी, आदित्य ब्रह्मचारी, सूर्यसम प्रचण्ड तेजधारी यति दयानन्द ने रूढ़िवादिता और अन्धविश्वास को ही देश की दुर्दशा और पतन का कारण बताया। उन्होंने जनता में कुविचार फैलाने वाले धर्मान्ध पाखण्डियों से डटकर लोहा लिया और इस प्रकार वह शान्त सुधारक से उग्र क्रान्तिकारी के रूप में परिणत हो गए। भारतीय समाज सुधार के लिए जिन सिद्धान्तों और आदर्शो की अपेक्षा थी, उन पर वह चट्टान की तरह अटल हो गए। उन्होंने सर्वत्र वेद ज्ञान का प्रकाश फैलाकर निबिड़ अज्ञानतम को तिरोहित कर दिया। कृण्वन्तो विश्वमार्यम् के उदार एवं उन्नत सिद्धान्त का प्रतिपादन कर समस्त अन्य मतावलम्बियों के लिए शुद्धि का द्वार खोल दिया और समस्त विश्व में वेदों का डंका बजा दिया।
यद्यपि इस कण्टकाकीर्ण पथ का अवलम्बन करने के फलस्वरूप उन्हें अपने विरोधियों और कट्टरपन्थियों द्वारा समय-समय पर नाना कष्ट एवं यातनाएं सहन करनी पड़ी। यहाँ तक कि विष का प्याला भी पीना पड़ा। पर वाह रे! तेजस्वी, साहसी, उच्चाशय और उदार हृदय दयानन्द! तूने विषय पान कराने वाले को भी रुपयों की थैली देकर यह कहकर निर्विघ्न चलता कर दिया कि “मैं तो संसार को बन्धन से मुक्त कराने आया हूँ, बन्धन में डालने नहीं।’’ और स्वयं दीपावली के पावन पर्व के दिन “प्रभु तेरी इच्छा पूर्ण हो। कहते हुए कर्त्तव्य पथ की बलिवेदी पर हंसते-हंसते प्राण न्यौछावर कर इस असार संसार का परित्याग कर परमधाम सिधार गए।
इस प्रकार दृढ़व्रती, कर्त्तव्य पारायण, गुरुभक्त महर्षि दयानन्द अपनी गुरु दक्षिणा चुकाने हेतु गुरु के सम्मुख की गई प्रतिज्ञा के पालनार्थ हंसते-हंसते कर्त्तव्य की बलिवेदी पर अपने प्राणोत्सर्ग कर सदैव के लिए ऋषि ऋण से उऋण होने के साथ-साथ समस्त आर्य जाति में भी नवप्रेरणा, नव चेतना, नवोत्साह एवं नव जागृति का संचार कर गए। आज समग्र भारत में आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा शिक्षा आदि के क्षेत्रों में दृष्टिगोचर होने वाली महान क्रान्ति एकमात्र देव दयानन्द की ही दिव्य देन है।
पर ऐसी अभूतपूर्व गुरु दक्षिणा भारत के ही नहीं, समग्र विश्व के भी किसी शिष्य ने कभी अपने गुरुदेव को समर्पित की होगी, इसमें सन्देह ही है। देश और जाति के ऐसे ही सच्चे सपूत राष्ट्र का मस्तक उज्ज्वल कर उसे गौरवान्वित करते हैं।
पर आज के पावन पर्व के उपलक्ष में मनाए जाने वाले निर्वाणोत्सव के इस पुनीत अवसर पर क्या अपने गुरुदेव दयानन्द को भी उनके अनुरूप गुरुदक्षिणा अर्पित करने हेतु कोई साहसी, दृढ़व्रती अग्रसर होंगे, जो सच्चे अर्थों में ऋषि ऋण चुकाने के लिए कर्त्तव्यपथ पर आरूढ़ हो सच्चे हृदय से इस प्रेरक और उद्बोधक वाक्य का उद्घोष कर सकेंगे? दयानन्द के वीर सैनिक बनेंगे? दयानन्द का काम पूरा करेंगे? - सत्यबाला देवी (दिव्ययुग - अक्टूबर 2009)
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