ओ3म् सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमकृत।
अत्रा सखाय: सख्यानि जानते भद्रैषां लक्षमीर्निहिताधि वाचि॥ ऋग्वेद 10.71.2॥
अन्वय- तितउना सक्तुं इव, यत्र मनसा पुनन्त: धीरा: वाचं अकृत। अत्र सखाय: सख्यानि जानते (जानन्ति)। भ्रदा लक्ष्मी: एषां वाचि अधि निहिता अस्ति।
अर्थ- जैसे (तितउना) चलनी में छानकर (सक्तुम् इव) सत्तू को साफ किया जाता है, उसी प्रकार (यत्र) जिस विषय में (धीरा:) बुद्धिमान् लोग (मनसा) ज्ञानरूपी चलनी द्वारा (वाचम्) वाणी को (पुनन्त:) शुद्ध करके (अकृत) प्रयोग करते हैं (अत्र) वहाँ (सखाय:) हितैषी विद्वान् लोग (सख्यानि) हित की बातों को (जानते) समझते हैं। (एषाम् वाचि) उनकी वाणी में (भद्रा लक्ष्मी:1) कल्याणप्रदा लक्ष्मी (अधि निहिता) रहती है।
व्याख्या- इस मन्त्र का आरम्भ ‘उपमा‘ से होता है। सक्तु अर्थात् सत्तू और तितउ अर्थात् चलनी उपमाएँ हैं। ‘वाचं‘ वाणी और ‘मनस्‘ बुद्धि उपमेय हैं। समस्त वाक्य को कहेंगे ‘उपमान प्रमाण।‘ न्याय-दर्शन में गोतम महामुनि चार प्रमाणों का उल्लेख करते हैं- (1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान, (3) उपमान, (4) और शब्द। इन प्रमाणों द्वारा ही मनुष्य को ज्ञान की उपलब्धि होती है। इनमें मुख्य या मौलिक प्रमाण प्रत्यक्ष ही है। ‘प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्‘ अर्थात् जो वस्तु प्रत्यक्ष है उसके लिए अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि जब प्रत्यक्ष उपस्थित न हो तभी दूसरे प्रमाणों की आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में तर्कवादियों ने प्राय: भूल की है। कुछ का कथन है कि जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता जैसे ईश्वर, उसकी प्रत्यक्ष के अभाव में अन्य प्रमाणों द्वारा सिद्धि भी कैसे होगी? क्योंकि अन्य प्रमाणों का आधार तो ‘प्रत्यक्ष‘ है। जब आधार ही नहीं तो आधेय कैसा? यह युक्ति प्राय: जैन आदि नास्तिक सम्प्रदायों ने आस्तिक्य के विरोध में दी है। परन्तु आनुषंगिक रूप में यहाँ हम स्पष्ट कर दें कि अनुमान आदि का प्रयोग ही वहाँ होता है जहाँ ‘प्रत्यक्ष‘ न लग सकता हो। यह ठीक है कि अनुमान आदि शेष प्रमाणों का प्रमाणत्व प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर है। परन्तु प्रमाण और प्रमेय में भेद है। जो प्रमेय प्रत्यक्ष हो गया उसके लिए दूसरा प्रमाण खोजने की आवश्यकता नहीं। ‘तुला‘ अर्थात् तराजुएँ किसी मुख्य तराजू के आधार पर बनाई जाती हैं । परन्तु सब वस्तुएँ मूल तराजू से ही नहीं तोली जा सकतीं। जब मुख्य तराजू नहीं मिलती तभी दूसरी तराजुओं का प्रयोग होता है।
‘प्रत्यक्ष‘ और ‘उपमान‘ का यह सम्बन्ध दिखाने के पश्चात् देखना चाहिए कि उपमान है क्या? साधारणतया उपमा और उपमेय में ‘साधर्म्य‘ (समान गुण) होना चाहिए परन्तु संसार की कोई दो वस्तुएँ ऐसी नहीं जिनमें साधर्म्य न हो। सुअर की पूँछ और हाथी के माथे में भी साधर्म्य है अर्थात् दोनों पंचभूतों के बने पदार्थ हैं। परन्तु कभी किसी ने हाथी के माथे के लिए सुअर की पूँछ की उपमा नहीं दी। क्योंकि गोतम जी ने उपमान के लो लक्षण दिये हैं, उनसे सुअर की पूँछ और हाथी का माथा लक्षित नहीं होते। प्रसिद्ध साधर्म्यात् साध्य साधनमुपमानम्। (न्यायदर्शन 1-1-6) यहाँ (साधर्म्य) के साथ ‘प्रसिद्ध‘ शब्द का विशेषण देना बड़े महत्त्व की चीज है। इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। साधर्म्य ऐसा हो जो झट से दिखाई दे जाए। इसके लिए उपमा में दो गुण होने चाहिएँ- एक तो वह स्थूल हो, दूसरे बहु-परिचित। अज्ञात उपमेय को ज्ञात उपमा से नापते हैं। यदि उपमा अज्ञात हो तो उससे उपमेय के जानने में सुगमता न होगी। जैसे कोई कहे कि आपके घर पर ठहरने में मुझे स्वर्ग का जैसा आनन्द हुआ। यहाँ ‘उपमा‘ स्वर्ग है और उपमेय निवास का सुख है। स्वर्ग अज्ञात है, प्रसिद्ध साधर्म्य नहीं, अत: उपमा अनुचित है। वेद में बहुत-सी उपमाओं का प्रयोग हुआ है। वहाँ सर्वत्र उपमाएँ उपमेयों की अपेक्षा अधिक स्थूल और अधिक परिचित हैं।
इन मन्त्र में सत्तू और चलनी (सक्तु और तितउ) घर की दैनिक वस्तुएँ हैं। ये सुपरिचित हैं। इन्हीं की उपमाओं का प्रयोग ‘वाचं‘ और ‘मनसा‘ दोनों सूक्ष्म उपमेयों के लिए किया गया है। यद्यपि साधारण अर्थों को समझने के लिए हमारे इस लम्बे व्याख्यान की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु वेद में तो सभी विद्याओं का समावेश है। वेद साहित्य और दर्शन के विषय में भी कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्ष रूप से एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। अत: हमने आवश्यक समझा कि कुछ प्रसंग से बाहर होते हुए भी एक जटिल प्रश्न पर कुछ व्यावहारिक प्रकाश डाल दें। इससे वेदों के साहित्यिक अलंकारों की शोभा की भी आभा का आनन्द मिलता है।
अब मन्त्र की मुख्य व्याख्या पर ध्यान दीजिए। उपमान से ही आरम्भ करें। सत्तू को छानने के लिए ‘तितउ‘ चलनी या सूप का प्रयोग किया जाता है। क्यों? बिना छाने हुए सत्तू का क्यों प्रयोग नही करते? दो कारणों से। एक तो इतर पदार्थ न मिला हो, जैसे कूड़ा, तिनके या रेत आदि। तितउ का काम है कि वह असली सत्तू से इतर पदार्थ को निकालकर फेंक दे। दूसरे, सत्तू की भूसी या वह कर्कश अंश दूर हो जाए जिसके कारण सत्तू को पचाने में कठिनाई पड़ती हो। सत्तू शुद्ध हो और कर्कश न हो।
वाणी में भी दो गुण होने चाहिएँ। वह सत्य और प्रिय हो। सत्यं ब्रूयात् प्रियं बू्रयात्। अप्रिय सत्य ‘सत्य‘ होते हुए भी निषिद्ध है, क्योंकि उसमें कर्कशता है। सत्तू के पीसने में त्रुटि है। सत्तू इतना मोटा पिसा है कि वह खाने में नहीं आता। जो वाणी उचित सावधानी के साथ नियोजित नहीं की गई वह सत्य होते हुए भी लड़ाई का कारण होती है। काने को काना कहकर पुकारना लड़ाई मोल लेना है। सत्तू में इतर पदार्थ की मिलावट के समान ही सत्य वाणी में इधर-उधर की ऊटपटाँग मिला देना है। इसलिए असत्य प्रिय हो तब भी न बोले। राजदरबारों में नित्य ही प्रिय असत्य बोला जाता है। इससे मनोरंजन तो होता है परन्तु साथ ही हानि भी बहुत होती है। इंग्लैण्ड के एक राजा कैन्यूट (Canute) की कहानी प्रसिद्ध है। उसके खुशामदी दरबारी कहा करते थे कि महाराज, आपकी आज्ञा तो समुद्र भी मानता है। राजा ने एक दिन आज्ञा दी कि उसकी कुरसी एक ऐसे स्थान पर रख दी जाए जहाँ समुद्र की तरंगों का आवेग हो। दरबारियों को आशंका हुई। वे बोले, ‘‘महाराज ! यहाँ तो समुद्र की लहरे आएँगी?‘‘ राजा बोला, ‘‘समुद्र से कह दो कि अपनी तरंगें रोक ले।‘‘ दरबारियों ने कहा, ‘‘समुद्र कैसे मानेगा?‘‘ राजा ने कहा, ‘‘तुम तो कहा करते थे कि समुद्र राजा का आज्ञाकारी है ! तुम ऐसा झूठ क्यों बोला करते हो?‘‘ दरबारी लज्जित हो गये। अन्य राजा भी इसी प्रकार करते तो उनको कभी धोखा न खाना पड़ता।
इसलिए वेदमन्त्र कहता है कि ‘वाचं‘ अर्थात् वाणी को छानकर बोलो। उसमें से असत्यता (इतर पदार्थ foreign matter) और अप्रियता (कर्कशता indigestible matter) को निकाल दो।
ऐसी कौन-सी चलनी (तितउ) है जिससे वाणी के ये दोनों अवगुण दूर हो सकें? मन्त्र उत्तर देता है- तुम्हारी बुद्धि (मन:) ही ऐसी चलनी है। बुद्धि या तर्क से शुद्ध करके वाणी को बोलो। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न पदार्थों से ‘इतर‘ और ‘कर्कश‘ दो पदार्थों को निकालने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के चलने बनाये गये हैं, इसी प्रकार वाणी से असत्यता और अप्रियता के दूर करने के लिए बृहद् तर्कशास्त्र का निर्माण हुआ है। न्यायदर्शन का पहला सूत्र ‘प्रमाण‘2 से आरम्भ होता है और ‘नि:श्रेयसाधिगम:‘ अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति पर समाप्त होता है। यह वेदमन्त्र भी सत्तूरूपी उपमान से आरम्भ होकर ‘लक्ष्मी‘ (भद्रा लक्ष्मी) पर समाप्त होता है, अर्थात् यदि हम बुद्धि से छानकर वेदवाणी का प्रयोग करेंगे तो हमको परम शान्ति की प्राप्ति होगी।
वेद-वाणी विद्या की निधि है, इसी के द्वारा मनुष्य हित और अहित में विवेचना करता है। बुद्धिपूर्वक वाणी का प्रयोग करनेवाले (सखाय:) मित्र लोग (संख्यानि जानते) स्वहितों को पहचानते हैं और अपनी विद्या द्वारा शान्ति की स्थापना करते हैं। जो बुद्धिरूपी चलनी का प्रयोग नहीं करते उनकी वाणी अशुद्ध सत्तुओं के समान कलह, भ्रान्ति और ह्रास का कारण बन जाती है। सभी को विदित है कि मनुष्य ही केवल एक भाषा-भाषी प्राणी है। यही मनुष्य-जीवन का गौरव है। परन्तु जब यही भाषा बिना बुद्धि के प्रयुक्त की जाती है तो मनुष्य जाति उन भीषण दोषों सें दूषित हो जाती है जो दोष किसी पशु-पक्षी या कीट-पतंग में भी नहीं पाये जाते। कहते हैं कि द्रौपदी ने अपनी अज्ञानता और बुद्धिहीनता के कारण कौरवों पर एक ताना कस दिया कि, ‘‘अन्धों के अन्धे ही उत्पन्न होते हैं।‘‘ यह वाणी का दुरुपयोग था और उस छोटे-से दोष का कितना भयानक परिणाम हुआ! यह तो एक प्रसिद्ध उदाहरण है । परन्तु ऐसे उदाहरण हमें परिवार और हर जीवन क्षेत्र में मिलेंगे, जिन्होंने संसार को दु:ख के सागर में निमग्न कर दिया। इसीलिए स्मृतिकार ने यह चेतावनी दी थी-
अहिंसयैव भूतानां कार्य्यं श्रेयोऽनुशासनम्।
वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥ (मनुस्मृति 2.159)
महर्षि दयानन्द ने इस श्लोक का भावार्थ इस प्रकार दिया है, जो उपदेशक वर्ग के काम की चीज है- ‘‘इसलिए विद्या पढ, विद्वान्, धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे और उपदेश में वाणी मधुर और कोमल बोले। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं।‘‘ (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 10)
ऋषि दयानन्द ने जिन विद्वान् उपदेशकों के विषय में ऊपर के उद्धरण में संकेत किया है उन्हीं को वेदमन्त्र में ‘सखाय:‘ कहा गया है। सखिन् या सखा शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है- ‘सखाय: समानस्थाना: शास्त्रादिविषयज्ञाना:।‘ ‘ख्या‘ प्रकथने धातु में ‘स‘ लगकर ‘सखिन्‘ बन गया है। ख्याति, व्याख्या, व्याख्यान ये सब शब्द इसी धातु का अर्थ देते हैं। जो उपदेशक बुद्धि का प्रयोग करके विद्या प्राप्त करता है और शुद्धभाव से उसका उपदेश करता है वह ‘सखा‘ है और सखा के सखित्व का जो फल है वही एक प्रकार से सख्य है। सख्य का परिणाम है भद्रा लक्ष्मी। याद रखना चाहिए कि केवल बोलना ही भद्रा लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं करा सकता। वक्ता तो संसार में बहुत से हैं और बहुत से इनमें से प्रभावशाली भी होते हैं, जिनको वाक्-पटु, सभा-चतुर या वाचाल कहते हैं। वे सभी छानकर वाणी का प्रयोग नहीं करते। बड़े-बड़े व्याख्यान-दाता अपने उत्तेजक व्याख्यानों द्वारा जनता को पथभ्रष्ट कर देते हैं। कहा जाता है कि भाषा भावनाओं को व्यक्त करती है । & Language is that which expresses thought. परन्तु यही भाषा नादान या स्वार्थी मनुष्यों से प्रयुक्त होकर भावनाओं के छिपाने का साधन बन जाती है। Language is that which conceals thought. देश जब दो दलों में विभक्त हो जाता है तो हर एक दल के पोषक जनता में दूसरे पक्ष के विरुद्ध भ्रान्तियाँ उत्पन्न करते हैं। यह सब भाषा को न छानकर प्रयुक्त करने के कारण होता है।
मनु महाराज (मनुस्मृति अ.12) ने वाणी के चार दोष बताये हैं जिनसे वाणी दूषित हो जाती है-
पारुष्यमनूतं चैव पैशून्यं चापि सर्वश:।
असम्बद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्॥
वाणी सम्बन्धी दुष्टकर्म चार हैं- पहला (पारुष्य) कठोर वचन, दूसरा (अनृत) झूठ बोलना, तीसरा (पैशून्यम्) अर्थात् सब प्रकार की चुगली, चौथा (असम्बद्ध-प्रलाप) व्यर्थ की बातचीत करना। ये चारों वे प्रसिद्ध दोष हैं जो शुद्ध सत्तुओं को भक्ष्य से अभक्ष्य बना देते हैं, और सखाओं को शत्रुओं में परिणत कर देते हैं। इन दोषों से बचने का एकमात्र उपाय है वाणी को बुद्धि के तितउ से छानकर प्रयोग करना। जिन्होंने भारतवर्ष की सभ्यता का कई सहस्र वर्षों का इतिहास पढा है वे जानते हैं जि जहाँ शुद्ध वेदवाणी ने आर्यजाति को संसार की सबसे प्रमुख और प्रभावशाली जाति बना दिया, उसी जाति ने जब वेदवाणी को बुद्धि से अलग करके बरतना आरम्भ किया तो वेदमन्त्रों को पढकर क्या-क्या अनर्थ नहीं किये गये ! नये-नये अवैदिक धर्मों की स्थापना और उत्पत्ति इसी बुद्धिहीनता का परिणाम थी। अत: यह आवश्यक है कि हम इस मन्त्र पर पूर्ण रीति से विचार करें और जो-जो परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न हो गई हैं जिनके कारण हम लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं कर पाते उनका निराकरण करें। जब हम कहते हैं कि वेद का पढना-पढाना और सुनना-सुनाना आर्यों का परमधर्म है तो इसका यही अर्थ है कि वेदमन्त्रों के अर्थों को बुद्धि की कसौटी पर कसकर और उनकी यथार्थ भावनाओं को समझकर उनके अनुसार आचरण करें। तभी हमारी उन्नति होगी और विश्व का कल्याण होगा।
सन्दर्भ-1. लक्ष्मी:- A Good Sign, Good Fortune, Prosperity, Success, Happiness, Wealth, Riches (Monier M. Williams)
लक्ष्मी: ईश्वर का नाम क्यों है, इस पर स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के पहले समुल्लास में लिखते हैं-‘लक्ष दर्शनांकनयो:‘ इस धातु से ‘लक्ष्मी‘ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो लक्षयति, पश्यति, अंकते, चिह्नयति चराचरं जगत् अथवा वेदै: आप्तै: योगिभिश्च यो लक्ष्यते सा लक्ष्मी: सर्वप्रियेश्वर:‘ जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता जैसे शरीर के नेत्र, नासिका और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सबको देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादि शास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी‘ है।
ऊपर के दोनों उद्धरणों की सहायता से वेदमन्त्र (ऋग्वेद 10.71.2) में आये हुए (लक्ष्मी) शब्द का अर्थ है सौभाग्य अथवा जीवन का लक्ष्य अर्थात् चरम उद्देश्य। 2. 1. प्रमाण 2. प्रमेय 3. संशय 4. प्रयोजन 5. दृष्टान्त 6. सिद्धान्त 7. अवयव 8. तर्क 9. निर्णय 10. बाद 11. जल्प 12. वितण्डा 13. हेत्वाभास 14. छल 15. जाति 16. निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानात् नि:श्रेयसाधिगम: (न्यायदर्शन 1.1) यहाँ प्रमाण तो तितउ है। प्रमेय सत्तू है। तीसरे अर्थात् संशय से लेकर 10 वें अर्थात् वाद तक कर्कश अंश है प्रमेय का, जिसको पहचानने की आवश्यकता है। 11वें से लेकर 16वें तक जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान ये इतर पदार्थ (Foreign Matter) हैं जिनका निराकरण बुद्धि द्वारा होना चाहिए। - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग - दिसंबर 2014)
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