अपनी प्रशंसा सुनना हर किसी को अच्छा लगता है। सही प्रशंसा तो आह्लादकारी होती ही है, केवल चापलूसी के लिए की गई झूठी प्रशंसा भी प्रिय लगती है। गान्धी जी की लोग सच्चे हृदय से प्रशंसा करते थे, उनकी जय के नारे लगाते थे, उनके अमर रहने का उद्घोष करते थे। करोड़ों लोग उन्हें महात्मा मानते थे और अपना सब कुछ उनके चरणों में अर्पित करने को उद्यत थे। उनके इशारे पर लाठी-गोली सहने को, जेल जाने को तैयार थे।
ऐसे आदमी को गाली सुननी पड़ जाये, तो कैसा लगेगा?
गाली से बुरा उपहास- गाली फिर भी सह्य होती है, असह्य होता है उपहास। कोई हमारी खिल्ली उड़ाये, हमें मजाक का पात्र बनाये, उससे हमारा समझौता कभी नहीं हो सकता तथा उसे क्षमा कभी नहीं किया जा सकता। इन्द्रप्रस्थ में मय दानव द्वारा निर्मित युधिष्ठिर के राजप्रासाद में जब दुर्योधन पानी को स्थल समझकर जलकुण्ड में गिर पड़ा, तब द्रौंपदी का उपहास वाक्य ‘अन्धों के पुत्र अन्धे ही होते हैं’ दुर्योधन की छाती में विष बुझे बाण की तरह गहरा गड़ गया, जिसे वह कभी नहीं भूला, जिसे उसने कभी क्षमा नहीं किया। इसके फलस्वरूप उसने द्रौपदी का चीर हरण किया तथा महाभारत का सर्वनाशी युद्ध लड़ा गया।
सुभाष भी वही भूल कर बैठे, जो द्रौपदी ने की थी। सन् 1933 में सरकार ने सुभाष को जेल से इस शर्त पर छोड़ा था कि वह भारत में नहीं रहेंगे तथा यूरोप जाकर अपना इलाज करायेंगे। वह वियैना चले गये।
विट्ठलभाई पटेल और सुभाष- संयोग ऐसा हुआ कि उन्हीं दिनों श्री विट्ठलभाई पटेल भी बीमार होकर इलाज के लिए वियैना जा पहुँचे। विट्ठलभाई पटेल, वल्लभ भाई पटेल के बड़े भाई थे। वह बड़े वकील थे और उस समय की केन्द्रीय विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके थे। उनकी गणना देश के दबंग राजनेताओं में थी। अब वह बूढे हो गए थे, पर उनका तेजस्वी मन बूढा नहीं हुआ था।
उस समय सुभाष वियैना में ही थे। स्टेशन पर जाकर उन्होंने विट्ठल भाई का स्वागत किया। पहली भेंट में ही दोनों के मन मिल गये। सुभाष स्वयं रोगी होते हुए भी विट्ठलभाई की देखरेख में जुट गये। विट्ठलभाई सुभाष के राजनीतिक गुरु चित्तरंजनदास के घनिष्ठ मित्र रहे थे और सुभाष की गतिविधियों से परिचित थे।
जैसा कि स्वाभाविक था, दोनों में भारत की राजनीति पर चर्चा होती थी। उन दिनों गान्धी जी का सत्याग्रह आन्दोलन जारी था। एक लाख पच्चीस हजार सत्याग्रही घर बार, रोजी-रोटी छोड़कर जेलों में निवास कर रहे थे। इनमें महिलाएं भी थीं, जिनका जेलवास कहीं अधिक तपस्यामय था। सारे देश में विक्षोभ की तरंगे उठ रही थीं। लगता था कि अंग्रेजी राज्य की नैया अब डूबी कि तब डूबी।
गांधी जी ने सत्याग्रह बन्द किया- तभी एक दिन सुभाष ने एक अखबार ले जाकर विट्ठलभाई को दिखाया। खबर छपी थी कि गांधी जी ने अपना सत्याग्रह आन्दोलन बिना शर्त वापस ले लिया। सुभाष और विट्ठलभाई दोनों को लगा कि वे आकाश से जमीन पर गिर पड़े। इस आन्दोलन से उन्होंने बड़ी आशाएं बान्धी थी।
आन्दोलन गांधी जी का था, उन्होंने शुरू किया था, उन्होंने वापस ले लिया। इसमें परेशानी की क्या बात थी?
परेशानी की बात थी। यह आन्दोलन कोई अनशन (उपवास) जैसा नहीं था, जिसमें गांधी जी अकेले कष्ट भुगतते थे। यद्यपि अनशन में भी लोगों की भावनाएं गांधी जी के साथ जुड़ी होती थीं और उपवास की कुछ पीड़ा अन्य लोगों को भी होती थी। परन्तु यहाँ तो सवा लाख लोग जेलों में महीनों से बन्द थे। उसके सगे सम्बन्धी जेल से बाहर रहते हुए भी सरकारी कोप के शिकार थे। ऐसी दशा में बिना शर्त सत्याग्रह आन्दोलन को वापस ले लेने की घोषणा वज्रपात से कम नहीं थी। करोड़ों लोगों की भावनाओं को उद्वेलित करके, उनकी आशाओं को जगाकर उनसे ऐसा खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।
क्षुब्ध होकर विट्ठलभाई ने कहा- ‘‘राजनीति में गांधी जी हार गये। आंखें मीचकर अब भी उनके पीछे चलते जाने में कोई तुक नहीं।’’
सुभाष और विट्ठलभाई का वक्तव्य- विट्ठलभाई पटेल और सुभाष ने मिलकर एक वक्तव्य तैयार किया- ‘‘गांधी जी ने अब तक देश की सेवा के लिए भारी काम किया है। परन्तु इस समय उनकी स्थिति कबाड़ी की दुकान में पड़ी टूटी फूटी मेज कुर्सी की सी हो गई है। अब वे स्वतन्त्रता संग्राम की सफलता में रुकावट बन गये हैं। कांग्रेस का पुनर्गठन करके नेताओं को बदला जाना चाहिए। हमें यह भरोसा नहीं रहा कि गांधी जी के नेता रहते देश आजादी की ओर बढ सकता है। यदि कांग्रेस तुरन्त कोई नया कदम नहीं उठाती, तो उग्रपन्थी सभी लोगों को मिलकर एक नया दल गठित करना होगा।’’
सुभाष तो इससे भी अधिक उग्र भाषा का प्रयोग करना चाहते थे, परन्तु कानून विशेषज्ञ विट्ठलभाई ने भाषा को नरम ही रखा था। परन्तु ‘कबाड़ी की दूकान में पड़ी टूटी-फूटी मेज-कुर्सी’ तो रह ही गई। यह द्रौपदी के ‘अन्धे का पुत्र अन्धा’ से कम पीड़ादायक नहीं थी। इस वक्तव्य को घोषणा पत्र के रूप में प्रकाशित किया गया। कोई आश्चर्य नहीं कि गांधी जी इस उपाधि को कभी नहीं भूले। जब त्रिपुरा में उन्होंने सुभाष से किसी प्रकार का कोई समझौता करने से इन्कार कर दिया था, उनके समर्थन में जवाहरलाल नेहरू का टेलीफोन सुनने तक से इन्कार कर दिया था, तब यही वाक्य उनके दिल में कसक रहा था।
वसीयत सुभाष के नाम- विट्ठलभाई सुभाष के उत्साह और आवेश पर, देश की स्वतन्त्रता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर मुग्ध थे। उन्हें पता था कि उनका अन्त समय निकट है। उन्होंने सुभाष से कहा- ‘‘मैं अब और जीऊंगा नहीं। मैं अपनी सारी सम्पत्ति तुम्हें दे जाना चाहता हूँ। इसका उपयोग तुम देश के स्वाधीनता संग्राम को आगे बढाने के लिए करना।’’
सुभाष ने मना करते हुए कहा- ‘‘आपका आशीर्वाद सिर माथे पर। मेरे लिए वही बहुत है। यह सम्पत्ति मुझे मत दीजिये। यह गांधी जी और वल्लभ भाई को अच्छा नहीं लगेगा।’’
विट्ठलभाई ने दृढ स्वर में कहा- ‘‘सम्पत्ति मेरी है। उसका मैं क्या करता हूँ, इसमें किसी और का क्या दखल है?’’
विट्ठलभाई ने अगले ही दिन वकील को बुलवाकर बाकायदा वसीयत लिख दी, जिसमें अपनी सम्पत्ति सुभाष के नाम कर दी। बाद में यह वसीयत वल्लभ भाई पटेल और सुभाष में वैमनस्य का कारण भी बनी। 22 अक्टूबर 1933 को विट्ठलभाई पटेल का देहान्त हो गया।
सुभाष तानाशाह नहीं थे- गांधी-नेहरू गुट ने यह कहकर सुभाष को बदनाम करने की चेष्टा की कि सुभाष में तानाशाही प्रवृत्ति थी और वह हिटलर तथा मुसोलिनी के प्रशंसक थे। इस विषय में पत्रकारों के पूछने पर मुम्बई में सुभाष ने अपना विचार स्पष्ट रूप में प्रकट किया था- ‘‘नात्सीवाद का जामा (कुर्ता) हमारे नाप का नहीं है। वह हमें सही नहीं बैठेगा। हिटलर बड़े उद्योगपतियों के हाथों में खेलता है, हम समाजवादियों से उसका कोई मेल नहीं। मुझे न हिटलर पसन्द है, न उसका नात्सीवाद। परन्तु वर्साइ की अपमानजनक सन्धि को तोड़कर उसने जिस तेजी से जर्मनी को फिर शक्तिशाली राष्ट्र बना दिया है, उसकी प्रशंसा तो करनी ही पड़ेगी।’’
सन् 1938 में जब सुभाष को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की बात चली, तब गांधी गुट के अन्य नेताओं (आचार्य कृपलानी, मौलाना आजा, सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजेन्द्रप्रसाद, भूलाभाई देसाई आदि) ने उसे पसन्द नहीं किया। जवाहरलाल नेहरू सुभाष को पसन्द करते थे। उन्होंने सुभाष का समर्थन किया।
सुभाष का हिन्दी प्रेम- सुभाष बंगलाभाषी थे। उन्हें हिन्दी का अच्छा अभ्यास नहीं था। कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर उन्होंने बड़ी लगन से हिन्दी सीखी और हरिपुर में अध्यक्षीय भाषण हिन्दी में दिया सन् 1938 में गांधी जी ने बड़ी उदारता दिखाकर सुभाष को कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया था। परन्तु अगले साल जब सुभाष उनके न चाहते हुए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का यत्न करने लगे, तब न केवल गांधी जी का, अपितु सारे गुट का रुख प्रतिकूल हो उठा। न केवल विट्ठलभाई पटेल और सुभाष का वह सम्मिलित वक्तव्य खोजकर निकाला गया, जिसमें गांधी जी को ‘कबाड़ी घर की टूटी फूटी मेज कुर्सी’ कहा गया था, अपितु आचार्य कृपलानी और भूलाभाई देसाई सुभाष की लिखी पुस्तक ‘इण्डियन स्ट्रगल’ (भारतीय संघर्ष) की एक प्रति ले आये। यह पुस्तक लंदन में छपी थी और इसके भारत में लाने पर रोक थी। इसमें बहुत कुछ ऐसा था, जो गांधी जी को प्रिय नहीं लग सकता था। उन सब अंशों को रेखांकित करके भूलाभाई ने पुस्तक गांधी जी को दी। वह तो उन सभी अंशों को स्वयं पढ कर गांधी जी को सुनाना चाहते थे। परन्तु गांधी जी ने पुस्तक लेकर रख ली और कहा कि मैं फुरसत में पढूंगा।
पुस्तक में लिखा था कि गांधी जी के बहुत से चेलों में स्वतन्त्र रूप से सोच पाने की शक्ति ही नहीं है। सभी कांग्रेसियों ने अपनी अक्ल गांधी जी के पास गिरवी रख दी है, आदि।
गांधी जी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल से सलाह की और तय किया कि सुभाष को दुबारा कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनने देना है।
सुभाष के विरुद्ध सरकार और कांग्रेस एक- उस दिन गये रात को वल्लभभाई पटेल ने गांधी जी की कुटिया का द्वार खटखटाया। गांधी जी ने उन्हें भीतर आने को कहा। उनके साथ मुम्बई के गृहमन्त्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी भी अन्दर आये। पटेल ने एक मोटी सी फाइल मुंशी जी से ले कर गांधी जी के सामने रख दी। इस फाइल में लिखित विवरणों और फोटोग्राफों द्वारा यह दिखाया गया था कि किस प्रकार सुभाष मुम्बई में जर्मनी के दो मन्त्रियों से गुप्त रुप से एक होटल में मिलने गये। सरकार के गुप्तचरों ने यूरोपीय वेशभूषा में उनके फोटो भी लिये हुए थे। कांग्रेस का अध्यक्ष गांधी जी को बिना बताये जर्मनी में मेल जोल बढा रहा था। उसे आशा थी कि देर सबेर में जर्मनी से सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी। पर गांधी जी की दृष्टि में यह अक्षम्य अपराध था। जर्मनी बल प्रयोग का समर्थक था। गांधी जी की अहिंसा नीति उससे मेल नहीं खाती थी।
जवाहरलाल नेहरू ने भी गांधी जी का समर्थन किया और कहा कि सुभाष को जर्मनी के मन्त्रियों से नहीं मिलना चाहिए था।
गांधी-नेहरू गुट की ओर से डा. पट्टाभि को कांग्रेस अध्यक्ष पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। पर चुनाव में डा. पट्टाभि सुभाष से 200 वोट से हार गये। (सन्दर्भ- आर्यजगत् 5 नवम्बर 2000) (दिव्ययुग- जनवरी 2019)
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