’बिस्मिल’ एक महान क्रांतिकारी
राम प्रसाद ’बिस्मिल’ भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे, जिन्हें 30 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार ने फाँसी दे दी। वे मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं मे शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे।
रामप्रसाद एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे। बिस्मिल उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था, जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे।
शुक्रवार ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी (निर्जला एकादशी) विक्रमी संवत् 1954 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में जन्मे रामप्रसाद को 30 वर्ष की आयु में सोमवार पौष कृष्ण एकादशी (सफला एकादशी) विक्रमी संवत् 1984 को शहीद हुए। उन्होंने सन् 1916 में 19 वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा था। यह वह समय था जब देश में राष्ट्रीय आन्दोलन जोरों पर था। 11 वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया। उन पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला, उससे उन्होंने हथियार खरीदे और उन हथियारों का उपयोग ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिये किया। 11 पुस्तकें ही उनके जीवन काल में प्रकाशित हुईं और ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त की गयीं।
बिस्मिल को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध की लखनऊ सेण्ट्रल जेल की 11 नम्बर बैरक में रखा गया था। इसी जेल में उनके दल के अन्य साथियों को एक साथ रखकर उन सभी पर ब्रिटिश राज के विरुद्ध साजिश रचने का ऐतिहासिक मुकदमा चलाया गया था।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है...। इन क्रान्तिकारी पंक्तियों की बदौलत भारत के इतिहास को एक नया मोड़ देने वाले अमर शहीद पण्डित रामप्रसाद ’बिस्मिल’ का 19 दिसम्बर को बलिदान दिवस है। भारत की आजादी के लिए सिर पर कफ़न बान्धकर चलने वाले ’बिस्मिल’ ने ब्रिटिश हुक़ूमत के खिलाफ जो क्रान्ति की चिनग़ारी भड़काई, उसने ज्वाला का रूप लेकर ब्रिटिश शासन के भवन को लाक्षागृह में परिवर्तित कर दिया था।
आन्दोलन से ज्यादा कलम की थी खौफ-
ब्रिटिश सरकार जितना उनके क्रान्तिकारी आन्दोलन से डरती थी उससे कहीं ज्यादा उनकी कलम उसे डराती थी। क्योंकि बिस्मिल क्रान्तिकारी के साथ-साथ एक उच्चकोटि के कवि, शायर, अनुवादक और साहित्यकार भी थे।
बचपन से ही ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ नफऱत-
देश में ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ एक ऐसी लहर उठने लगी थी, जो पूरे अंग्रेज़ी शासन को लीलने के लिए बेताब हो चली थी। बिस्मिल में भी बचपन से ही ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ एक गहरी नफऱत घर कर गई। अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव और ठाकुर रोशनसिंह जैसे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आने के बाद ’बिस्मिल’ ने अंग्रेजों की नाक में दम करना शुरू कर दिया।
काकोरी कांड-
इसी दौरान ब्रिटिश साम्राज्य को दहला देने वाले काकोरी काण्ड को ’बिस्मिल’ ने ही अंजाम दिया था। बिस्मिल के नेतृत्व में 10 लोगों ने सुनियोजित कार्रवाई के तहत यह कार्य करने की योजना बनाई। 9 अगस्त, 1925 को बिस्मिल के नेतृत्व में लखनऊ के काकोरी नामक स्थान पर देशभक्तों ने रेल विभाग की ले जाई जा रही संगृहीत धनराशि को लूट लिया। इस डकैती में बिस्मिल के साथी अशफाक उल्ला खान, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, सचीन्द्र सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त आदि भी शामिल थे।
’बिस्मिल’ अंग्रेजों के लिए मुसीबत बन गए-
’बिस्मिल’ ने अपने हाथों से बम बनाए और क्रान्तिकारियों को पनाह दी। अंग्रेजी हुकूमत के लिए बिस्मिल लगातार सिरदर्द बने रहे। ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में काकोरी की घटना मात्र एक डकैती नही थी वरन अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध एक सशस्त्र क्रान्ति थी जिसका उदेश्य ब्रिटिश सरकार को हटाना था। काकोरी ट्रेन डकैती और पंजाब असेम्बली में बम फेंकने की वजह से ’बिस्मिल’ अंग्रेजों की मुसीबत बन गए थे।
जेल में लिखी आत्मकथा-
’बिस्मिल’ ने बिस्मिल अज़ीमाबादी के नाम से भी काफ़ी शायरी की। जीवन के अन्तिम सफ़र में जब उन्हें गोरखपुर जेल भेजा गया तो उन्होंने आत्मकथा भी लिखी। 19 दिसम्बर 1927 को ब्रिटिश सरकार ने गोरखपुर जेल में उन्हें फांसी पर लटका दिया। जिस वक्त उन्हें फंदे की तरफ ले जाया जा रहा था वे निडर थे। उनके चेहरे पर खौफ का कोई भाव न था। वे ’वन्दे मातरम्’ और ’भारत माता की जय’ के नारे ऊंची आवाज में लगा रहे थे। बिस्मिल के हौसले और नारों की बदौलत अंग्रेज सरकार को अपने पतन की आहट सुनाई देने लगी थी।
बिस्मिल जी का जीवन इतना पवित्र था कि जेल के सभी कर्मचारी उनकी बड़ी इज्जत करते थे। ऐसी स्थिति में यदि वे अपने लेख व कवितायें जेल से बाहर भेजते भी रहे हों तो उन्हें इसकी सुविधा अवश्य ही जेल के उन कर्मचारियों ने उपलब्ध करायी होगी, इसमें सन्देह करने की कोई गुंजाइश नहीं। अब यह आत्मकथा किसके पास पहले पहुँची और किसके पास बाद में, इस पर बहस करना व्यर्थ होगा। बहरहाल इतना सत्य है कि यह आत्मकथा उस समय के ब्रिटिश शासन काल में जितनी बार प्रकाशित हुई, उतनी बार जब्त हुई।
प्रताप प्रेस कानपुर से काकोरी के शहीद नामक पुस्तक के अन्दर जो आत्मकथा प्रकाशित हुई थी, उसे ब्रिटिश सरकार ने न केवल जब्त किया, अपितु अँग्रेजी भाषा में अनुवाद करवाकर समूचे हिन्दुस्तान की खुफिया पुलिस व जिला कलेक्टर्स को सरकारी टिप्पणियों के साथ भेजा भी था कि इसमें जो कुछ रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा है वह एक दम सत्य नहीं है। उसने सरकार पर जो आरोप लगाये गये हैं वे निराधार हैं। कोई भी हिन्दुस्तानी जो सरकारी सेवा में है, इसे सच न माने। इस सरकारी टिप्पणी से इस बात का खुलासा अपने आप हो जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने बिस्मिल को इतना खतरनाक षड्यन्त्रकारी समझ लिया था कि उनकी आत्मकथा से उसे सरकारी तन्त्र में बगावत फैल जाने का भय हो गया था। वर्तमान में उत्तरप्रदेश के सीआईडी हेडक्वार्टर लखनऊ के गोपनीय विभाग में मूल आत्मकथा का अँग्रेजी अनुवाद आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। बिस्मिल की जो आत्मकथा काकोरी षड्यन्त्र के नाम से वर्तमान पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में तत्कालीन पुस्तक प्रकाशक भजनलाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस,सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान) से पहली बार सन 1927 में बिस्मिल को फाँसी दिये जाने के कुछ दिनों बाद ही प्रकाशित कर दी थी वह भी सरफरोशी की तमन्ना ग्रन्थावली के भाग- तीन में अविकल रूप से सुसम्पादित होकर सन् 1997 में आ चुकी है।
यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ आर्य प्रकाशकों ने इसे पुन: प्रकाशित कराया। - डा. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (दिव्ययुग- दिसंबर 2015)
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