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धर्म और विज्ञान

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Religion and Science
ज्ञान और अज्ञान का सदा से युद्ध-
धर्म और अधर्म, विज्ञान और अज्ञान, प्रकाश और अन्धकार में सदा विरोध रहा है। धर्म अधर्म नहीं और अधर्म धर्म नहीं, अतः इन दोनों का परस्पर मेल असम्भव है। इस प्रकार ज्ञान और अज्ञान एवं प्रकाश और अन्धकार एक-दूसरे के साथ ठहर नहीं सकते। धर्म, विज्ञान तथा प्रकाश को एक कोटि में और उनके विरोधी अधर्म, अज्ञान और अन्धकार को एक दूसरी कोटि में रखा जा सकता है। परन्तु विचित्र बात यह है कि बहुधा धर्म और विज्ञान को परस्पर या शत्रु समझ लिया जाता है। धर्मात्मा एवं वैज्ञानिकों में कभी-कभी तो घोर विरोध रहा है। धर्म का अज्ञान से क्यों साहचर्य हो, यह बात समझ में आनी कठिन है। परन्तु वास्तविक स्थिति से इन्कार भी नहीं किया जा सकता।

वैज्ञानिक अधर्मी कैसे? इस समस्या को समझने के लिए हमको धर्म और विज्ञान के वास्तविक लक्षणों पर विचार करना होगा। विज्ञान क्या है? सृष्टि के मौलिक नियमों की खोज और उन नियमों का अपने जीवन के कार्यों में प्रयोग! उदाहरण के लिए न्यूटन को लीजिए। वर्तमान वैज्ञानिक युग के आदि पुरुषों में न्यूटन का नाम विशेष स्थान रखता है। न्यूटन ने देखा कि वृक्ष से एक सेव का फल नीचे आ गिरा। वह सोचने लगा कि फल शाखा से टूटकर नीचे ही क्यों गिरा, वायु में उड़कर आकाश की ओर क्यों न उड़ गया? साधारण लोग हंसेंगे कि इसमें सोचने की क्या बात है? यह तो नित्य ही हुआ करता है। परन्तु यह तो थी एक घटना मात्र। उसके भीतर तो एक तात्त्विक नियम था। न्यूटन ने सोच-विचारकर यह परिणाम निकाला कि पृथिवी में एक आकर्षणशक्ति है, जो सब चीजों को अपने केन्द्र की ओर खींचती रहती है। इस अन्वेषण के द्वारा न्यूटन का नाम वैज्ञानिकों में प्रसिद्ध हो गया और उसके पश्‍चात् आने वाले वैज्ञानिकों ने बहुत सी ऐसी चीजों का आविष्कार किया, जिनको हम अपने दैनिक उपयोग में लाया करते हैं। हमारे विशाल भवन, अनेक प्रकार की कलें आदि सब पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के द्वारा ही बन सके। न्यूटन ने जो कुछ किया, वह उसके मस्तिष्क की कोरी कल्पना न थी, सृष्टि की वास्तविक घटना थी, जिसको देखा और जिस पर उसने विचार किया। इसी प्रकार सहस्त्रों अन्य वैज्ञानिकों की सहस्त्रों कृतियों की अवस्था है। प्रश्‍न यह है कि न्यूटन या अन्य वैज्ञानिकों ने कौन सा पाप किया, जिससे उनको धर्म के विरोधी या अधर्मी समझा जाये।

धर्म क्या है? अब थोड़ा सा धर्म का विचार कीजिए। सृष्टि के नियमों में उसके महान् नियन्ता का विचार करना, उसके लिए अपने हृदय में श्रद्धा रखकर अपने जीवन को तदनुकूल बनाना, यह है धर्म। इस प्रकार विज्ञान और धर्म में थोड़ा सा भेद होता है। सृष्टि के मौलिक नियमों का विचार धर्म और विज्ञान दोनों में निहित है। धर्म कुछ और आगे बढ़कर नियमों के नियन्ता के विषय में भी सोचता है, अतः इसमें विरोध कैसा? यदि मैं शरीर शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके मानवी भोजन को अनुकूल बनाता हूँ, तो मैं वैज्ञानिक हूँ। यदि मैं भोजन करने वाले अदृष्ट आत्मा के विषय में विचार करके पिण्ड के नियन्ता और ब्रह्माण्ड के नियन्ता का परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता हूँ, तो मैं धर्मात्मा हूँ। इस प्रकार धर्म और विज्ञान में किसी प्रकार का विरोध नहीं रहता।

परन्तु इतिहास बताता है कि धर्म और विज्ञान में अत्यन्त भीषण युद्ध छिड़ा रहता है। सभ्य संसार के आधुनिक साहित्य में इस युद्ध का रोमांचकारी वृतान्त पढ़ने को मिलता है। यह सब क्यों?

गैलीलियो को पादरियों ने सताया और तड़पाया- एक ऐतिहासिक घटना पर विचार कीजिए। गैलीलियो एक प्रसिद्ध विद्वान था। उसने सोचा कि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, वह चपटी नहीं हो सकती। इसको गोल होना चाहिए। उसने अपनी खोज के पक्ष में बहुत से प्रमाण दिये। धर्म के अधिकारियों ने यह बात सुनी। उनको उसकी यह खोज बुरी लगी। उनके पास उसके खण्डन में कोई युक्ति न थी। परन्तु उनके हाथ में शक्ति अवश्य थी। उन्होंने उसको धर्म का विरोधी घोषित करके बन्दीगृह में डाल दिया। बेचारा बूढ़ा गैलीलियो जेल में सड़ता रहा और उस समय तक उसको नहीं छोड़ा गया, जब तक उसने अपने आत्मा और अपने ज्ञान के विरुद्ध यह नहीं कह दिया कि पृथ्वी चपटी है, गोल नहीं। आजकल के साधारण विद्यार्थी इस बात पर हंसेंगे कि इससे गैलीलियों ने क्या बुरा या अधर्म का काम किया था? यदि पृथ्वी का गोल होना सिद्ध न होता, तो आजकल की समुद्रयात्रा में जो प्रगति हुई, वह भी असम्भव होती। परन्तु गैलीलियो को इस विज्ञान के कारण ही धर्म का विरोधी घोषित किया गया। इसी प्रकार सैकड़ों अन्य वैज्ञानिकों को सैकड़ों यातनाएँ भोगनी पड़ीं।

रूढ़ियों को धर्म समझा गया- इसका कारण है धर्मात्माओं की भूल, जिन्होंने अपने मित्रों को शत्रु समझा। परमात्मा की सबसे बड़ी कृति है जगत्। जगत् का अध्ययन करने वाले हैं वैज्ञानिक। अतः विज्ञान धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग है। धर्म को महाप्रभुओं ने समझा कि धर्म उन्हीं कुछ थोड़ी सी रूढ़ियों का नाम है, जिनको हम परम्परा से सुनते आए हैं। उनके विरुद्ध जो कोई खोजता या मानता है, वह ईश्‍वर की गुप्त बातों में हस्तक्षेप करता है और इसलिए यह पापी है।

वाष्प इंजन वालों को शैतान समझा- मध्यकालीन धर्म के प्रतिनिधियों के विज्ञान के प्रति तीन प्रकार के भाव रहे। आरम्भ में कौतूहल और उपेक्षा, उसके पश्‍चात् विरोध और क्रूरतामय प्रतिरोध, तीसरा अपनी पराजय मानकर उनके अनुकूल आचरण करना। जब वाष्पकल के आविष्कारक भाप द्वारा इंजन चलाने का प्रदर्शन करने के लिए इंजन को सड़क पर लाए, तो ग्रामवासियों ने समझा कि यह कोई शैतान है, क्योंकि अद्भुत काम केवल शैतान ही कर सकते हैं। अतः उन बेचारों को अपने पड़ोसियों से तंग आकर अपना काम छिपाकर करना पड़ा। परन्तु अन्त में विज्ञान की विजय हुई और आज रेल की यात्रा को कोई धर्म के विरुद्ध नहीं समझता।

वैज्ञानिकों की प्रतिक्रिया- वैज्ञानिकों की मनोवृत्ति भी सर्वथा पक्षपातशून्य नहीं रही। उनको धार्मिक पुरुषों के व्यवहार से घृणा हो गई। उन्होंने उस ईश्‍वर का मखौल उड़ाया, जो सृष्टि के नियम के विरुद्ध आदेश देता है और ज्ञान प्राप्त करने वालों को दण्ड दिलाता है। उन्होंने ऐसे ईश्‍वर का बहिष्कार किया और धर्म की जड़ काटने का उद्योग करते रहे। वस्तुतः यह बात वैज्ञानिक मनोवृत्ति के सर्वथा विरूद्ध थी। वैज्ञानिकों को अभिमान हो गया कि हम जल के दो अवयवों ऑक्सीजन और हाईड्रोजन को अलग कर सकते हैं। उन दोनों को मिलाकर फिर जल बना सकते हैं। हमको ही सृष्टिकर्त्ता क्यों न माना जाए। हमसे इतर सृष्टिकर्त्ता ही कौन हो सकता है? यह भी एक प्रकार की भूल थी। यदि दो बूंद पानी बनाने वाला अपनी कुशलता पर अभिमान कर सकता है तो उसको उस बड़े कारीगर पर भी श्रद्धा करनी ही चाहिए, जो करोड़ों लीटर पानी को आकाश से भूमि पर बरसाता और उसे हरा-भरा कर देता है। विज्ञान केवल इतना नहीं है कि जल, पृथ्वी, वायु या ताप के विषय में खोज की जाए। ज्यों-ज्यों विज्ञान उन्नति करता गया, उसको अपनी सीमा का ज्ञान होता गया। शरीर की बड़ी-बड़ी विचित्र घटनाएँ ऐसी दीख पड़ीं, जिनमें केवल जड़ पदार्थ सम्बन्धी नियम लागू नहीं सकते थे। मनुष्य का शरीर केवल जड़-पदार्थों का संयोग ही नहीं है। उसमें चेतना प्रकाशित होती है। उसमें दो चीजों में से एक को चुनने की योग्यता है। वह निर्वाचन करता है। निर्वाचन में बुद्धि की अपेक्षा होती है। उस बुद्धि को हम देख नहीं सकते, परन्तु जान तो सकते हैं। न्यूटन ने जिस बुद्धि से पृथ्वी की आकर्षण शक्ति की खोज की, वह बुद्धि उसके नाक, कान या मुँह को देखकर जानी नहीं जा सकती। असली न्यूटन वह नहीं था, जो सबको दिखाई देता था। असली डार्विन वह नहीं था, जिसका चित्र उसके ग्रन्थों में लगा है। जिस बुद्धि ने डार्विन या न्यूटन को प्रसिद्ध किया, वह एक आन्तरिक अदृष्ट शक्ति थी। उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र श्‍वेतकेतु को कहा, “जल लाओ।’’ वह जल ले आया। उसने कहा, “इसमें नमक छोड़ दो।’’ उसने नमक छोड़ दिया। नमक घुल गया। उद्दालक ने कहा, “श्‍वेतकेतु, नमक कहाँ है? देखो तो सही।’’ श्‍वेतकेतु बोला, “भगवन्! दिखाई नहीं पड़ता।’’ पिता ने कहा, “चखो।’’ चखने से प्रतीत हुआ कि जल में नमक का स्वाद है। पिता बोला, “पुत्र, इसी प्रकार तुम शरीर की ऊपर की आकृति को देखकर अपने आपको नहीं जान सकते। जो मूल तत्त्व शरीर को चलाता है, वह तो अदृष्ट है। वही तो तुम हो।’’ अपने आपकी खोज करना धर्म का मुख्य काम है।

क्या सत्य के बिना जी सकते हैं?- मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बताए। धृति, क्षमा, दम अर्थात् अपने ऊपर नियन्त्रण रखना, अस्तेय (चोरी न करना), शौच (शुद्धता), इन्द्रिय-निग्रह (अपनी इन्द्रियों को वश में रखना), धी या बुद्धि, विद्या या विज्ञान, सत्य व्यवहार और क्रोध पर नियन्त्रण। इन दस लक्षणों की खोज क्या विज्ञान नहीं है? विज्ञान को जल और ताप तक ही क्यों परिमित रखा जाये? क्या मनु के गिनाए दस लक्षण वे तत्व नहीं हैं, जो प्रत्येक मनुष्य की प्रगतियों के अध्ययन से ही जाने जा सकते हैं और जिनका प्रकाश मानवी इतिहास की घटनाओं में होता है? जिन धृति, क्षमा आदि गुणों का हमने नाम लिया, वे कल्पित नहीं हैं, वास्तविक हैं। मनुष्य के जीवन में इन गुणों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी जल, वायु, अन्न आदि की। हम जल के बिना जीवित नहीं रह सकते। परन्तु क्या सत्य और धृति के बिना जीवित रह सकते हैं? क्या अस्तेय और इन्द्रिय-निग्रह के बिना हमारा समाज ठीक रह सकता है? सत्य और धृति वैज्ञानिकों के परीक्षणालयों में देखे नहीं जा सकते। शीशे की नलिकाएँ और सर्वोत्कृष्ट तराजू उनका माप नहीं बता सकतीं। वैज्ञानिकों के विश्‍लेषण उनके अंग-प्रत्यंगों के उल्लेख करने में असमर्थ हैं। भौतिकी और रसायन के पण्डित उनके विषय में कुछ नहीं कह सकते, परन्तु हैं तो वे भी विज्ञान का विषय। जिस प्रकार जल का विश्‍लेषण होता है, उसी प्रकार मनुष्य के मन और अन्तःकरण का भी। यह कोई नहीं कह सकता है कि उसकी गिनती विज्ञान में नहीं है। मनोविज्ञान उसी भाँति विज्ञान है, जैसे भौतिकी और रसायन। इसलिए धर्म और विज्ञान को दो विरोधी कोटियों में रखना भूल है।

धर्म बिना विज्ञान के नहीं- सभी धर्मों के आचार्य कहते हैं कि बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं। अतः विज्ञान और धर्म का समन्वय करने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। यहाँ तक कि भौतिक विज्ञान हमारे धर्म के कामों में परम सहायक होता है। आजकल कोई ऐसा धर्म का कार्य नहीं है, जिसमें विज्ञान की सहायता न ली जाती हो। हमारे आचार्य रेल और वायुयानों में यात्रा करते हैं। धर्म मन्दिरों में बिजली की रोशनी जलाई जाती है। टेलीविजन, टेलीफोन, मोबाईल, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि का प्रयोग होता है। धर्मार्थ चिकित्सालयों में वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग होता है। बिजली के द्वारा चिकित्सा करना पाप नहीं समझा जाता है। मानव जीवन की वृद्धि के लिए वैज्ञानिक लोग जो उपाय सोच रहे हैं, उनको धर्म के आचार्यों की ओर से पूरा प्रोत्साहन मिल रहा है। धर्म-विरोधिनी प्रगतियों को नष्ट करने के लिए वैज्ञानिक प्रयोग काम में लाए जा रहे हैं। धार्मिक मन्तव्यों की वैज्ञानिक रीति से व्याख्या की जा रही है और धर्म सम्बन्धी जो रूढ़ियाँ विज्ञान के विरुद्ध समझी जाती थीं, उनमें वैज्ञानिक परिवर्तन भी हो रहे हैं। यह सब है विज्ञान की विजय। और क्यों न हो? विज्ञान है क्या? उन्हीं नियमों की खोज जो जगत्-नियन्ता द्वारा जगत् में जगत् के आदि से ही काम कर रहे हैं। वैज्ञानिक लोग उन नियमों को बनाते नहीं, अपितु उनकी खोज करते हैं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए, मानव-जाति के अज्ञान को दूर करने के लिए। अज्ञान अन्धकार है। विज्ञान उस अन्धकार में दीपक जलाने के समान है।

ईश्‍वरीय रहस्य कल्याणकारी- कुछ लोग समझा करते थे कि ईश्‍वर के गुप्त रहस्यों को जानने का प्रयास ही ईश्‍वर से विद्रोह करना है। परन्तु यह धारण अब नहीं रही। ईश्‍वर को किसी रहस्य को छिपाने से क्या प्रयोजन? उसके कोई गुप्त रहस्य नहीं हैं। जो नियम हैं, सब हमारे लाभ के लिए हैं। ऋग्वेद का एक मन्त्र कहता है, भगवान् के कर्मों को देखो और उन्हीं से अपने व्रतों को करो। हम र्ईश्‍वर का अनुकरण करके उसको अप्रसन्न नहीं करते अपितु उसकी आराधना करते हैं। यदि ईश्‍वर ने सूर्य बनाया, तो वह हमारे लिए। यदि उसके अनुकरणस्वरूप हम दीपक बना लें, तो इसमें उसकी अप्रसन्नता क्यों? अथर्ववेद के एक मन्त्र में प्रश्‍न उठाया है कि ईश्‍वर को ठीक-ठीक कौन समझता है? और इसका उत्तर यह दिया है कि जो सृष्टि में ओत-प्रोत नियमों को समझता है, वही ब्रह्म को भी समझ सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वैज्ञानिक ही ब्रह्मज्ञ है।

मनुष्यत्व लाने का प्रयास करना पड़ेगा- वैज्ञानिकों की मनोवृत्ति में भी परिवर्तन हो रहा है। अब उनकी वही मनोवृत्ति नहीं रही, जो हक्सले और डार्विन के समय थी। अब वे भी समझने लगे हैं कि केवल भौतिक और रसायन ही विज्ञान नहीं हैं। मनोविज्ञान और आत्मविज्ञान को भी विज्ञान की कोटि में गिनना चाहिए। यह परिवर्तन कुछ तीव्र गति से नहीं हुआ। यही कारण है कि विज्ञान मनुष्य को आन्तरिक शान्ति प्रदान करने में असमर्थ रहा है। आजकल मनुष्य-घातक शक्तियों का इतना आविर्भाव हुआ है कि लोग विज्ञान से डरने लगे गए हैं। परन्तु आशा करनी चाहिए कि अणु बम इत्यादि की खोज के साथ-साथ मनुष्यत्व लाने का प्रयत्न किया जाएगा, तभी धर्म और विज्ञान का समन्वय हो सकेगा। यदि वैज्ञानिक युग में भी हम सिंह और 7 भेड़ियों के समान ही रहे, तो विज्ञान का भविष्य उज्ज्वल नहीं रहने का। इसी प्रकार यदि धर्माध्यक्ष अपने आधिपत्य की रक्षा के रूप में पुरानी रूढ़ियों को ही दृढ़ करते रहे तो धर्म का भविष्य उतना ही अन्धकारमय होगा। - गंगाप्रसाद उपाध्याय

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