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धर्म और अधर्म

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Religion and Iniquity

धर्म- जिसका स्वरूप ईश्‍वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए यही एक मानने योग्य है, उसको धर्म कहते हैं। आइये! हम धर्म और अधर्म के स्वरूप पर विचार करें तथा सदैव धर्माचरण करने का निश्‍चय करें।

श्री स्वामी दयानन्द जी महाराज ने धर्म का लक्षण करते हुए सबसे पूर्व ईश्‍वर की आज्ञा का यथावत् पालन करना आवश्यक समझा, जिससे ईश्‍वर का मानना स्वतः सिद्ध है। उस ईश्‍वर को न मानने वाला इस लक्षण के अनुकूल धर्मात्मा नहीं समझा जा सकता। बहुधा ऐसे मनुष्य दुनिया में मिलेंगे जिनका ईश्‍वर में विश्‍वास नहीं, परन्तु वे भी सृष्टि के नियमों को मानते हैं और उन पर चलते हैं। ऐसे पुरुष पूर्ण धर्मात्मा नहीं कहे जा सकते, चूंकि उन्होंने नियामक के आवश्यक अंग को नहीं माना जिसके बिना किसी भी नियम का निर्माण होना असम्भव है। अनुमान-प्रमाण विशेषकर मनुष्य के लिए ही है, जो कारण से कार्य और कार्य से कारण का अनुमान करके अपने कार्यों की सिद्धि करता है। प्रत्येक समय यह आवश्यक नहीं कि कार्य और कारण दोनों की प्रतीति एक ही साथ हो। यदि दुनिया में कहीं ऐसा नियम होता कि दोनों एक ही साथ होते तो अनुमान प्रमाण की आवश्यकता ही न होती।

जैसे बादलों को देखकर होने वाली वर्षा का और हुई वर्षा को देखकर उसके कारण रूप बादलों का अनुमान होता है, इसी प्रकार दुःख को देखकर पाप-कर्मों का और पाप कर्मों को देखकर दुःखों का अनुमान होता है। यदि कोई दुःखों को न देखकर पाप-कर्मों का अनुमान करे और सन्तान को देखकर माता-पिता का अनुमान न करे, तो उसको पूर्ण ज्ञानी नहीं कह सकते। इसी प्रकार यदि कोई सृष्टि नियमों को देखकर और स्वीकार करके भी उसके नियामक को स्वीकार न करे, तो वह भी पूर्ण ज्ञानी न समझा जायेगा। और जो पूर्ण ज्ञानी ही नहीं वह पूर्ण धर्मात्मा भी कैसे हो सकता है? क्योंकि धर्मात्मा के लिए ज्ञानपूर्वक कर्मों की ही तो प्रधानता है। यदि कोई यह शंका करे कि ईश्‍वर ने कानून तो बना दिया, पर वह अब कुछ नहीं करता और न आगे करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य उस ही नियम के अनुसार होता चला आ रहा है और आगे भी होता रहेगा, तो क्या हानि? इसका उत्तर यह है कि कानून स्वयं कुछ नहीं कर सकता, जब तक कि चेतन कर्त्ता उसको अमल में न लावे। जैसे कि सरकारी कानून किसी अपराधी का कुछ नहीं कर सकता, जब तक कि पुलिस उसको पकड़कर जज के सामने पेश न करे और जज उसको अपराध के अनुसार दण्ड न देदे। उसी प्रकार परमात्मा का कानून भी ईश्‍वर के स्वयं अमल में लाए बिना कुछ नहीं कर सकता।

जो ईश्‍वर को कानून का बनाने वाला तो मानते हैं लेकिन चलाने वाला नहीं मानते, उनको यह विचारना चाहिए कि जिस बुद्धि ने कानून का निर्माण किया है, वह ही बुद्धि उसको चला सकती है। प्रकृति जड़ होने से स्वयं न कोई कानून (नियम) बना सकती है और न किसी के बनाये नियम पर स्वयं स्वतन्त्रता से चल सकती है। जीवात्मा भी अल्पज्ञ होने से बिना ईश्‍वर से शरीर तथा ज्ञान प्राप्त किए न कोई नियम बना सकता है, न चल सकता है। जीवात्मा इस प्रकार की ईश्‍वरीय सहायता प्राप्त करके भी जो नियम बनाता या चलाता है, उसको भी वह अन्य पुरुषों की सहायता से ही कार्य रूप में परिणत करता है। कई स्थानों पर स्वयं अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने के कारण अपनी इच्छा के विरुद्ध फल की प्राप्ति और असफलता का पात्र बनता है। जैसे आपने देखा होगा कभी-कभी बिना किसी इच्छा के स्वयं ठोकर लग जाती है तथा भोजन करते समय दांतों तले जीभ कटकर कष्ट देती है। इससे यह सिद्ध है कि कभी-कभी जीवात्मा अपने शरीर पर भी पूर्ण अधिकार नहीं रख पाता। परन्तु परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होने के कारण अकेला ही सब नियमों को बनाता और स्वयं उन्हें चलाता है, यह हममें और परमात्मा में भेद है।

अब प्रश्‍न उठता है कि ईश्‍वर की आज्ञा कौन सी मानी जाये? अनेक सम्प्रदाय अपने ग्रन्थों वा पुस्तकों को ईश्‍वर प्रदत्त बताते हैं, परन्तु इन सबकी पुस्तकों में परस्पर भेद और विरोध होने के कारण सबको ईश्‍वर की आज्ञा नहीं कहा जा सकता। ईश्‍वर आज्ञा वही हो सकती है जो ईश्‍वर की भाँति सार्वभौम हो, एकदेशी न हो। अर्थात् सब मनुष्यों के लिए हितकर हो, किसी विशेष देश या जाति का पक्षपात न हो तथा उसके दया-न्यायादि गुणों के विरुद्ध न हो अर्थात् वेदानुकूल हो।

पक्षपातरहित न्याय- यह बहुत कम देखा जाता है कि मनुष्य न्याय करे और वह पक्षपातरहित हो। मनुष्य अल्पज्ञ और अल्प शक्तिमान होने के कारण कई दोषों से युक्त होता है। धन का लालच, रिश्तेदारी, मित्रता, दूसरे का भय और मोह आदि उसको पूर्ण न्याय नहीं करने देते। ईश्‍वर इन त्रुटियों से रहित होने के कारण पक्षपात रहित न्याय करता है। अतः जो पुरुष ईश्‍वरीय गुणों के अनुकूल अपने गुण बनाकर संसार में कार्य करता और अपने जीवन को व्यतीत करता है, वह एक समय पूर्वोक्त सम्पूर्ण दोषों से मुक्त होकर पक्षपात रहित न्याय करने लग जाता है। पक्षपाती पुरुष अपना दायरा अत्यन्त संकुचित रखता है। यह केवल अपने में या जिसके साथ वह पक्षपात करता है, उस ही तक सीमित रहता है।

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति॥ (यजुर्वेद 40.6)

जो अपने को सब प्राणियों में और सब प्राणियों को अपने में समझता है, वही सच्चा धर्मात्मा है। एकदेशी जीवात्मा के लिए यह असम्भव है कि वह ईश्‍वर की तरह सब वस्तुओं में व्याप्त हो जाय। उसके लिए यह एक ही प्रकार है कि वह अपने को ‘सर्वप्रिय’ और ’सर्वहितकारी’ बना सके, यह ही इसकी सर्वव्यापकता है।

सर्वहित- जिस न्याय में किसी का अहित न हो, वह पक्षपातरहित न्याय है। इसका दूसरा नाम सर्वहित है। ईश्‍वर इतना गम्भीर है कि दिन-रात सबका न्याय करता हुआ भी प्रत्येक जीव के हित को लक्ष्य में रख एक जीव के बुरे कर्मों को दूसरे पर प्रकट नहीं करता। क्योंकि वह जानता है कि बुराई के छुड़ाने में ऐसी बात साधक नहीं होती, अपितु बाधक होती है। जो जीव धर्म का आचरण करना चाहे, उसको ‘सर्वहितकारी’ अवश्य होना चाहिए। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य एक दूसरे की निन्दा करने के लिए घर-घर मारे-मारे फिरते हैं और उनको तब तक चैन नहीं पड़ता, जब तक दस-बीस स्थानों पर किसी की निन्दा न कर आवें। परन्तु वे यह नहीं विचारते कि ऐसा करने से किसी का कोई हित नहीं होता, बल्कि अपनी ही आदत खराब होती है और परस्पर राग-द्वेष की वृद्धि होकर वैमनस्य बढ़ता है।

स्वार्थी पुरुष भी पूर्ण न्याय या सर्वहित नहीं कर सकता। वह अन्यों के लाभ की अपेक्षा स्वार्थ को अधिक मूल्यवान समझता है और दूसरे के बड़े से बड़े लाभ को अपने तुच्छ से तुच्छ लाभ पर कुर्बान कर देता है। बहुत से मतों के प्रवर्तकों ने अपने मान और प्रतिष्ठा के लिए अपनी न्यूनताओं (कमजोरियों) को भी अपने अनुयायियों का एक धार्मिक नियम बना दिया और कौम की आगे होने वाली उन्नति में एक जबर्दस्त रोड़ा अटकाया। वैदिक ऋषि ईश्‍वरभाव से प्रेरित हो तथा सर्वहित को लक्ष्य में रखकर जो कुछ कार्य कर गये, वह उन सम्पूर्ण दोषों से रहित था, जिनसे सामान्य पुरुष प्रायः शीघ्र मुक्त नहीं हो पाते।

प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित- किसी चीज के लिए परीक्षा द्वार बन्द नहीं है। किसी भी काम को खूब सोच समझ और परीक्षा करके करना चाहिए। यदि हम उन परीक्षाओं में ठीक और यथार्थ उतरे तो धर्म और यदि न उतरे तो उसे अधर्म (अकर्त्तव्य) समझना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म का स्वयं उत्तरदाता है। इसलिए स्वयं परीक्षा करके ही प्रत्येक कार्य को करने की आज्ञा दी गई है। चाहे रेलवे का प्रबन्ध इंजीनियरिंग के अधीन रखा गया है और आदमी दिन-रात लाईन और पुलों की देखभाल करते रहते हैं, पर फिर भी ड्रायवर को सर्च लाइट और अपनी आँखों से देखकर चलाने की आज्ञा दी जाती है, ताकि उसका वैयक्तिक उत्तरदायित्व उसके कार्य के साथ रहे।

वेदोक्त- वेद ‘विद् सत्तायाम्, विद् ज्ञाने, विद् विचारणे’ तथा ‘विद्लृ लाभे’ इन धातुओं से सिद्ध होता है। इनका अर्थ हुआ कि जो सत्ता ज्ञान, विचार और लाभ के सहित हो अर्थात् सर्वप्रथम वेद द्वारा हमें प्रत्येक वस्तु की सत्ता का उपदेश होता है। तत्पश्‍चात् उन वस्तुओं तथा उनके गुण और व्यवहारादि का ज्ञान होता है। ज्ञान होने के अनन्तर ही हम उसके सूक्ष्म विषयों पर विचार करने में समर्थ हो पाते हैं। अन्त में इसी क्रम से हमें उस ज्ञान और विचार के अनुरूप लाभ की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वेद से उपदिष्ट कर्मों को जो कि मोटे शब्दों में ज्ञानानुकूल और विचारपूर्वक हों उन्हें धर्म कहा जाता है। इसीलिए महात्मा मनु ने अपनी स्मृति में वेदोऽखिलो धर्म मूलम् तथा धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः कहा। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार के वेदोक्त कर्मों को करना ही अपना धर्म समझना और उसका अनुष्ठान करना चाहिए।

अधर्म- जिसका स्वरूप ईश्‍वर की आज्ञा को छोड़कर और पक्षपात सहित अन्यायी होकर बिना परीक्षा करके अपना हित करना है जो अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरतादि दोषों से युक्त होने के कारण वेद विद्या के विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है, वह अधर्म कहलाता है।

यद्यपि किसी विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं, तथापि धर्म समझ लेने के बाद सिर्फ इतना विशेष याद रखना चाहिए कि जो धर्म से विपरीत अर्थात् उल्टा हो उसे अधर्म कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों को इसी कसौटी पर कस उन्हें मत-मतान्तर के नाम से निर्देश किया या मजहब बतलाया। क्योंकि उन सम्पूर्ण मजहबों में जो कि अपने को धर्म के नाम से पुकारते थे, उपर्युक्त दोष थे। जैसे कोई ईश्‍वर की सत्ता को ही न मानते थे अर्थात् नास्तिक थे। जब वे ईश्‍वर ही को न मानते थे तो फिर ईश्‍वर की आज्ञा को ही कैसे मानते? लिहाजा ऋषि ने उन्हें भी कहा कि तुम्हारा मत धर्म नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह धर्म के एक आवश्यक अंग से रहित है, अतः वह मजहब है। इसी प्रकार जो लोग ईश्‍वर की सत्ता को मानते थे, पर उसकी आज्ञाओं में पक्षपात मानकर किसी एक देश या जाति के लोगों से पक्षपात या प्रेम और दूसरों से नफरत प्रकट करते थे या ईश्‍वर के नाम पर यज्ञों में अथवा देवी-देवताओं के सामने पशु हत्या आदि करके अपनी अविद्याप्रियता का परिचय देते थे, उन्हें तथा जिनके ग्रन्थों में निरी असम्भव और विश्‍वास न करने लायक बातें भी भरी पाईं, ऋषि ने कहा कि तुम्हारा मत भी सिर्फ मत यानी मजहब है। वह धर्म का स्थान नहीं ले सकता। इसीलिए वह सम्पूर्ण मनुष्य के लिए मान्य न होकर सिर्फ तुम लोगों की ही स्वार्थ पूर्ति के लिए हो सकता है। अतः प्रत्येक समझदार मनुष्य को इस प्रकार के मजहबों या मत-मतान्तरों को दूर से ही प्रणाम करके छोड़ देना चाहिए, जिससे उसका जीवन व्यर्थ बर्बाद न हो। - पं. रामचन्द्र देहलवी

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